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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और रक्षाबंधन

जब संघ का एक स्वयंसेवक राखी बाँधता है या बँधवाता है, तो वह केवल एक धागा नहीं होता, बल्कि कर्तव्य, सेवा और बलिदान का मौन संकल्प अपने हृदय में ग्रहण करता है।

Dr. Mahender द्वारा Dr. Mahender
9 August 2025
in मत, संस्कृति
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और रक्षाबंधन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और रक्षाबंधन

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आज घटित हुई एक छोटी सी घटना इस लेख का कारण बनी। कई दिनों की लंबी यात्रा के बाद पिछले कल गाज़ियाबाद पहुंचा था। परिवार सर्दी जुखाम से पीड़ित चल रहा है, बेटियों पर प्रभाव थोडा अधिक है और घर की यात्रा भी करनी है। पिछली रात दवाई लेकर आ रहा था तो क्लासिक रेजीडेंसी में लगने वाली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ‘कैलाश शाखा के मुख्य शिक्षक परवीर जी से भेंट हुई । जब भी यहाँ आना होता है तो यहाँ लगने वाली शाखा में चला जाता हूँ। इसलिए यहाँ के कार्यकर्ताओं से आत्मीय परिचय और सम्पर्क है। खैर! परवीर जी से बात होने लगी, उसी दौरान उनसे सुबह शाखा आने का भी बताया। लेकिन परिवार के दवा औषधि के चक्कर में बहुत रात हो गयी, स्वाभाविक है सोना भी बहुत देर हुआ। मन में था कि शाखा जाऊँगा । इसके बाद प्रातः 7:30 बजे के लगभग बहन ने आवाज लगाई ,”भैया शाखा वाले आये हैं” ।

अचानक बिस्तर छोड़कर खड़ा हुआ और समय देखा तो बहुत देर हो चुकी थी। फटाफट मुंह पर पानी मारा और बाहर निकला तो देखा शाखा के पाँच स्वयंसेवक गणवेश और शुभ्रवेश पहने बाहर खड़े थे। बाहर तेज बारिश हो रही थी, लेकिन ये लोग संघ की योजना और संकल्पना अनुसार रक्षाबंधन मना रहे थे। संघ का स्वयंसेवक होने के नाते उन्होंने मेरा भी ध्यान रखा, जबकि मैं दूसरी जगह रहने वाला हूँ, मेरा यहाँ घर भी नहीं है, कोई दायित्व भी नहीं है, कभी कभार आना होता है। फिर भी संघ के संस्कार अनुसार अभिषेक जी, परवीर जी, घनश्याम जी, प्रदीप जी और राकेश जी मुझे रक्षा सूत्र बाँधने पहुँच गए। उस समय तो कुछ ज्यादा न कह पाया, उन्होंने भी रक्षा सूत्र बांधा और मिष्ठान के बाद शुभकामना आदि दी और चले गए। सब कुछ इतना जल्दी घटित हुआ कि मैं उनको बैठने के लिए भी नहीं बोल सका। चलते चलते प्रदीप जी ने कहा,” कंटिन्यू नींद” । वो लोग चले गए और मैं भीतर आ गया।

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उसके बाद से पूरा घटनाक्रम मस्तिष्क में घुमने लगा। पश्चाताप भी हुआ कि मैं आज शाखा नहीं जा पाया, संघ के स्वयंसेवकों की आत्मीयता देखकर प्रसन्नता भी हुई। अपने स्वयंसेवक होने के दायित्व का बोध भी हुआ। बार-बार ये विचार मन में आ रहा था कि वे लोग यदि मुझसे मिलने न भी आते तो क्या फर्क पड़ जाता? आखिर इनको क्या मिला होगा? सभी लोग अच्छे से सेटल हैं, इनको बारिश में भीगते हुए आकर सुबह सुबह किसी का दरवाजा खटखटाने की क्या जरूरत है और वो भी त्यौहार के दिन, जिस दिन सभी लोग अपने घर में रहना पसंद करते हैं? ऐसे बहुत से प्रश्न मन में उमड़ रहे थे, उन्ही का उत्तर मनोभाव के रूप में इस आलेख में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। भले ही ये बहुत छोटी सी घटना है लेकिन इसका संदेश बहुत व्यापक है। संघ जिस शुद्ध सात्विक प्रेम को अपने कार्य का आधार बताता है, उसकी पुष्टि इस छोटी सी घटना से होती है।

हमें भली भाँति जानते हैं कि हिन्दू समाज विभिन्नताओं से परिपूर्ण है, लेकिन काल के प्रवाह में यह कई प्रकार के जाति, पंथ, वर्ग और भाषाओं में विभाजित प्रतीत होता है। एकता और भ्रातृत्व की भावना का आभाव इस हिन्दू समाज का ‘दुर्भाग्य’ है। राजनीतिक दल तो रोज ही विभाजन आग में घी डालते रहते हैं। समाज को जोड़ने वाला तत्त्व लुप्तप्राय जैसा है। ऐसे में हमारी परम्परा से जन्में उत्सवों की भूमिका बड़ी हो जाती है। ‘रक्षाबंधन’ ऐसा ही एक पारंपरिक उत्सव है, जिसमें एक दुर्बल व्यक्ति सहायता और रक्षा की अपेक्षा से एक सबल अथवा बलशाली व्यक्ति को ‘भ्रातृत्व का धागा या सूत्र’ अथवा ‘रक्षा सूत्र बंधन’ करता है। इस प्रकार एक पंडित या पुजारी अपने यजमान को, नागरिक अपने सैनिकों को और एक बहन अपने भाई को रक्षा सूत्र बाँधते हैं। संघ ने ‘वैश्विक भ्रातृत्व’ की भावना का संदेश देने के लिये इस उत्सव का चुनाव किया है। इस उत्सव के दिन स्वयंसेवक एकता और भ्रातृत्व के प्रतीक पवित्र सूत्र (धागे) को केवल आपस में ही नही बाँधते, अपितु समाज में जाकर सभी लोगों को बाँधते हैं, साथ ही समाज के दुर्बल और असक्षम वर्ग में जाकर भी लोगों को रक्षा सूत्र बाँधते हैं। अतः यह उत्सव प्रत्येक स्तर पर भ्रातृत्व और सामाजिक बंधुत्व का उत्सव बन गया है।

संघ और रक्षाबंधन का संबंध केवल एक पारंपरिक त्योहार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संघ के वैचारिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रनिष्ठ उद्देश्यों से भी जुड़ा हुआ है। संघ ने रक्षाबंधन को एक सांस्कृतिक-सामाजिक दायित्व के रूप में पुनर्परिभाषित किया है। परंपरागत रूप से रक्षाबंधन को भाई-बहन के प्रेम, सुरक्षा और उत्तरदायित्व के प्रतीक के रूप में मनाया जाता रहा है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस पर्व को एक राष्ट्र-सांस्कृतिक एकता और सामाजिक समरसता के प्रतीक पर्व के रूप में विकसित किया है।

संघ के दृष्टिकोण में ‘रक्षा सूत्र’ केवल व्यक्तिगत सुरक्षा का नहीं, बल्कि राष्ट्र, समाज और संस्कृति की रक्षा का प्रतीक है। यह सूत्र एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों की भी याद दिलाता है। संघ की शाखाओं में रक्षाबंधन पर सभी जातियों, वर्गों और पृष्ठभूमियों के स्वयंसेवक एक-दूसरे को राखी बाँधते हैं, जिससे यह संदेश जाता है कि किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना भारतीय समाज एक है। संघ के लिए रक्षाबंधन राष्ट्र की रक्षा, सेवा और समर्पण के लिए संकल्प लेने का अवसर होता है। जब संघ एक स्वयंसेवक राखी बाँधता है या बँधवाता है, तो वह केवल एक धागा नहीं होता, बल्कि कर्तव्य, सेवा और बलिदान का मौन संकल्प अपने हृदय में ग्रहण करता है।

आज जब समाज विभाजन, आत्ममुग्धत्ता, द्वेष और अविश्वास जैसे घातक संकटों से जूझ रहा है, तब रक्षाबंधन जैसे पर्वों की पुनर्व्याख्या और उनके मूल स्वरूप की पुनर्स्थापना अत्यंत आवश्यक है और इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जो कर रहा है वह प्रेरणादायक और अनुकरणीय है। मेरे साथ आज जो घटना घटी है वह संघ के इसी प्रयास की एक छोटी सी झलक है। इससे पता चलता है कि शुद्ध सात्विक प्रेम के आधार पर संघ का जमीनी स्तर पर कैसे काम होता है। इसी के आधार पर संघ ने कुटुंब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण, स्व का बोध और नागरिक कर्तव्य जैसे पंच परिवर्तन का संकल्प लिया है जो आने वाले समय में फलीभूत होगा ।

नारायणायेती समर्पयामि….

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