“जो कलम सरीखे टूट गये पर झुके नहीं, उनके आगे यह दुनिया शीश झुकाती है
जो कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गई, वह तो मशाल की तरह उठाई जाती है”
ये पंक्तियाँ उस पत्रकारिता का प्रतीक है, जिसके अवशेष आज ढूंढने से भी भारत की वर्तमान पत्रकारिता में नहीं मिलेंगे। आज की पत्रकारिता का वास्तविक विषयों से कोई सरोकार नहीं है! लेकिन एक समय ऐसा भी था, जब पत्रकार एक सशक्त राष्ट्र निर्माण के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने को भी तैयार थे। आज ही के दिन एक ऐसे पत्रकार का जन्म हुआ, जिसने राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व अर्पण किया और जिसने दो राष्ट्रनायकों के व्यक्तित्व को विकसित भी किया, परंतु उनके अभूतपूर्व योगदान से आज भी सम्पूर्ण राष्ट्र अपरिचित है, अनभिज्ञ है।
ये कहानी है प्रखर राष्ट्रवादी साहित्यकार एवं पत्रकार गणेश शंकर श्रीवास्तव की, जिन्हें हम गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम से भी जानते हैं। आज ही के दिन 131 वर्ष पूर्व इनका जन्म प्रयागराज के निकट फतेहपुर जिले के हठगांव ग्राम में हुआ था। इनका बचपन केन्द्रीय प्रांत [अब मध्य प्रदेश] के विदिशा और मुंगावली में बीता।
गणेश शंकर विद्यार्थी की साहित्य में विशेष रुचि
गणेश शंकर विद्यार्थी भले ही निर्धन परिवार से आते थे, परंतु साहित्य में उनकी विशेष रुचि थी। किशोरावस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रुचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले ‘भारत मित्र’, ‘बंगवासी’ जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जॉन स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। उन्होंने तो प्रख्यात लेखक विक्टर ह्यूगो के प्रसिद्ध उपन्यास ‘नाइंटी थ्री’ का अनुवाद भी किया। गणेश शंकर विद्यार्थी, लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे। विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्पायु में ‘हमारी आत्मोसर्गता’ नामक एक किताब लिख डाली थी।
वर्ष 1911, में भारत के चर्चित समाचार पत्र ‘सरस्वती’ में उनका पहला लेख ‘आत्मोसर्ग’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के उद्भूत विद्वान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर ही विद्यार्थी पत्रकारिता के क्षेत्र में आये थे। श्री द्विवेदी के सानिध्य में समाचार पत्र सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रुझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के समाचार पत्र ‘अभ्युदय’ से भी जुड़ गये।
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‘प्रताप’: क्रांति का एक महत्वपूर्ण अध्याय
महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने गणेश शंकर विद्यार्थी को एक ऐसी पत्रिका निकालने का सुझाव दिया, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन-जन में प्रसार कर सके। अत: अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग और मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से ‘प्रताप’ नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। इस समाचार पत्र के प्रथम अंक में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि वो राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, जातीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए, अपने अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे। परंतु यह साप्ताहिक सामाचर पत्र उनके जीवन में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला था, इसका आभास शायद उन्हें भी नहीं था।
विद्यार्थी जी ने स्वराज के लिए किये गये अपने संघर्ष को अंग्रेजी राज के विरोध तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने देश के भीतर सामंतवाद, पूंजीवाद से भी संघर्ष किया। वे कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बनकर भले ही अहिंसात्मक आंदोलन में अपनी भागीदारी निभाते रहें, परन्तु उनका असली काम तो क्रांतिकारियों का समर्थन करना था। कई क्रांतिकारियों की विद्यार्थी से गहरी मित्रता थी। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना में गणेश शंकर विद्यार्थी का बहुत बड़ा योगदान थान।
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आजाद और भगत सिंह के स्वरुप को निखारा
परंतु गणेश शंकर विद्यार्थी की भूमिका वहीं तक सीमित नहीं रही। उन्होंने दो ऐसे व्यक्तियों के वास्तविक स्वरूप को पहचाना, जो आगे चलकर देश के स्वतंत्रता आंदोलन में कभी न मिटने वाले अमर हस्ती बन गए। एक थे चंद्रशेखर तिवारी, जिन्होंने वाराणसी में एक अंग्रेज़ अफसर को सर पर पत्थर मारने के लिए बेधड़क 15 कोड़े खाए, और हर कोड़े पर उनके मुख से चीख के बजाए ‘वन्दे मातरम्’ निकला। यही चंद्रशेखर तिवारी बाद में चंद्रशेखर आज़ाद के रूप में विश्वप्रसिद्ध हुए और इन्हें कानपुर में आश्रय दिलवाने में गणेशशंकर विद्यार्थी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इनके अलावा एक और किशोर थे, जो राष्ट्रवाद की ज्योति में ऐसे रमे थे कि वे मात्र 17 वर्ष की आयु में अपना घर त्यागकर लाहौर से कानपुर आ गए। तब इन्हीं गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप प्रेस’ में उस नवयुवक ने ‘बलवंत’ के उपनाम से कई राष्ट्रवादी लेख लिखे, और ये गणेश शंकर विद्यार्थी ही थे, जिन्होंने उस नवयुवक के अंदर के क्रांतिकारी को पल्लवित-पोषित किया। ये कोई और नहीं, इस देश के सबसे प्रखर क्रांतिकारियों में से एक, सरदार भगत सिंह थे, जिनके बलिदान और राष्ट्रभक्ति की भावना को आज भी कोई अनदेखा नहीं कर सकता।
धर्मांधता की भेंट चढ़ गए गणेश शंकर विद्यार्थी
परंतु पत्रकारिता और क्रांति के इस ओजस्वी प्रतीक को कट्टरपंथ के विषैले नाग ने लील लिया। 23 मार्च 1931 को जब देर शाम लाहौर के सेंट्रल जेल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई, तो देशभर में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए। परंतु कानपुर समेत कई जगह विरोध के नाम पर कट्टरपंथी मुसलमानों ने दंगे भड़का दिए। गणेश शंकर विद्यार्थी ऐसे उन्माद के सख्त विरुद्ध थे और इसे रोकने के लिए वे स्वयं गए। परंतु कट्टरपंथी मुसलमानों ने उन्हे चाकुओं से गोदते हुए मृत्यु लोक पहुंचा दिया और 25 मार्च 1931 को क्रांति की एक प्रखर ज्योति सदा के लिए बुझ गई।
जिस व्यक्ति ने भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों को देश को सौंपा, जिसने राष्ट्र निर्माण के लिए अपना सर्वस्व अर्पण किया, वह धर्मांधता की भेंट चढ़ गया। आज कितने ऐसे पत्रकार होंगे, जो गणेश शंकर विद्यार्थी की भांति कट्टरपंथियों को रोकने का प्रयास मात्र भी करेंगे? आज के कथित ‘पत्रकारिता की मशाल’ लेकर घूमने वाले रवीश कुमार, बरखा दत्त जैसे पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकार का नाम सुनते ही मौन व्रत धारण कर लेंगे, और उचित तर्क पर बगलें झांकते फिरेंगे!
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