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8/11/1947: जूनागढ़ के परिग्रहण की कहानी, जानें कैसे पटेल और मेनन ने इसे अंजाम दिया था

सनकी था जूनागढ़ का नवाब!

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
8 November 2021
in ज्ञान
जूनागढ़

Source- Google

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क्या आपने कभी सोचा है कि जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री होते हुए भी अपने गृहमंत्री से इतने असहज क्यों रहते थे? कभी सोचा है कि देश के मुकुट समान राज्य कश्मीर का विध्वंस करने के लिए पाकिस्तान इतना लालायित क्यों रहता है? कभी सोचा है कि निज़ाम शाही का विध्वंस करने के लिए बातचीत का मार्ग क्यों नहीं अपनाया गया? इन सबका उत्तर एक प्रांत के विलीनीकरण में समाहित है, जिसकी कहानी अपने आप में सम्पूर्ण भारत की राजनीति का सार के समान है, यह प्रांत है जूनागढ़, जिसके स्वतंत्रता की नींव आज ही के दिन पड़ी थी।

निस्संदेह जूनागढ़ को 9 नवंबर 1947 को आधिकारिक तौर पर स्वतंत्र कराया गया था, परंतु वहां सैन्य कार्रवाई 8 नवंबर से ही प्रारंभ हो गई थी। इस प्रांत की कथा अपने आप में भारतीय राजनीति के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए एक विशेष केस स्टडी है कि कैसे कोई अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने हेतु किसी भी हद तक जा सकता है।

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जब भारतवर्ष 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ, तो देश सिर्फ नाममात्र का स्वतंत्र हुआ था, इसके साथ ही देश की 565 रियासतें एवं प्रांत भी स्वतंत्र हुए थे। इन सभी देशों को एक भारत में पिरोने का दायित्व भारत के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल एवं उनके विश्वासपात्र, प्रिंसिपल सेक्रेटरी वप्पला पंगुन्नी मेनन [वी पी मेनन] पर था, जिन्होंने कुछ ही महीनों में अनेकों राज्यों एवं रियासतों को भारत में विलय के लिए मना लिया।

परंतु, अक्टूबर 1947 तक तीन राज्य ऐसे भी थे, जिनका भविष्य अभी तक तय नहीं हुआ था। इनमें एक प्रांत था जूनागढ़, दूसरा हैदराबाद और तीसरा था कश्मीर। तीनों की अपनी विकट समस्याएं थी, लेकिन जूनागढ़ और हैदराबाद में एक बात समान थी कि इन दोनों रियासतों का शासन मुसलमानों के हाथों में था, जबकि बहुसंख्यक सनातन धर्म से वास्ता रखते थे। दोनों के दोनों पाकिस्तान समर्थक और दोनों ही अपनी इच्छाओं को जबरदस्ती जनता पर थोपना जानते थे!

सनकी था जूनागढ़ का नवाब

लेकिन जूनागढ़ की कथा अपने आप में बड़ी अनोखी है। इस प्रांत पर बबाई पशतून समुदाय का शासन था, जिसके अंतिम शासक थे नवाबज़ादा सर मोहम्मद महाबत खान तृतीय ‘खानजी’। ये शासक अपने आप में बड़ा अनोखा, लेकिन बड़ा सनकी भी था। निस्संदेह उन्होंने गीर के प्रसिद्ध वन्य उद्यान की नींव रखी, परंतु उनका ध्यान अपने राज्य से अधिक अपने कुत्तों पर होता था। वो अपने कुत्तों के प्रति इतने शौकीन थे कि उन्होंने सन् 1931 में तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड इरविन को अपने सबसे प्रिय रोशनारा की मंगरोल के नवाब के कुत्ते बॉबी से निकाह के लिए वास्तव में आमंत्रित भी किया था। हालांकि, लॉर्ड इरविन ने वो प्रस्ताव तो ठुकरा दिया, लेकिन नवाब साहब ने इस निकाह के लिए अपने प्रांत में तीन दिन के राज्य अवकाश की घोषणा की और इस समारोह पर विशेष खर्चा भी किया, जिसे एबीपी न्यूज ने अपनी प्रसिद्ध वेब सीरीज़ ‘प्रधानमंत्री’ में चित्रित भी किया था।

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तो फिर ऐसा क्या हुआ, जिसके कारण ऐसा अजीबोगरीब नवाब पाकिस्तान से जुडने का ख्वाब देखने लगा? इसका कारण था उसका नया दीवान, शाहनवाज़ भुट्टो। शाहनवाज़ भुट्टो कट्टरपंथी इस्लाम का जीता जागता प्रतीक था, जिसने एक सिन्धी हिन्दू कन्या लद्दन बाई से विवाह कर उसका इस्लाम में धर्मपरिवर्तन भी कराया। ये वही शाहनवाज़ भुट्टो हैं, जिसके बेटे जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपनी सनक में लेफ्टिनेंट जनरल टिक्का खान के जरिए पूर्वी पाकिस्तान [अब बांग्लादेश] पर बेहिसाब अत्याचार ढाए और जिसकी पौत्री बेनज़ीर भुट्टो ने कश्मीर में लाखों हिंदुओं के नरसंहार की नींव रखी। उसने पहले जूनागढ़ के तत्कालीन दीवान, खान बहादुर अब्दुल कादिर मुहम्मद हुसैन को पदच्युत किया, जो मात्र एक सशक्त और स्वतंत्र काठियावाड़ के ख्वाब देख रहे थे। शाहनवाज़ भुट्टो के उकसाने पर ही जूनागढ़ के नवाब ने सितंबर 1947 में पाकिस्तान से जुड़ने का हास्यास्पद निर्णय लिया था।

ये इसलिए हास्यास्पद था, क्योंकि जूनागढ़ भौगोलिक ही नहीं, अपितु सामरिक दृष्टि से भी पाकिस्तान से मीलों दूर था। उसका सबसे निकट तट, वेरावल, जहां पवित्र सोमनाथ मंदिर स्थित है, वो भी कराची से लगभग 557 किलोमीटर दूर है। लेकिन उस सनकी नवाब के जिहाद के ख्वाब जो न कराए। ऐसे में भुट्टो जितना उकसाते गए, नवाब उतना ही पाकिस्तान में जूनागढ़ को मिलाने के ख्वाब देखते गए।

सेना की सहायता से स्वतंत्र हुआ जूनागढ़

दूसरी ओर भारत इन गतिविधियों पर क्रोध में मुट्ठियां भींचे हुए था। सितंबर में बॉम्बे में समलदास गांधी के नेतृत्व में वैकल्पिक सरकार तो स्थापित हो गई, परंतु जूनागढ़ को स्वतंत्र कराने का भार तो केंद्र सरकार पर ही था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बातचीत के मार्ग पर अड़े हुए थे, जबकि सरदार पटेल और वीपी मेनन अपने जन्मभूमि के एक क्षेत्र को शत्रुओं के हाथों में यूं ही जाते हुए नहीं देख पा रहे थे, लेकिन नेहरू की अकर्मण्यता के कारण वे भी विवश थे! सितंबर में वीपी मेनन जूनागढ़ में बातचीत के लिए पहुंचे, परंतु वो शाहनवाज़ भुट्टो के इरादों को पहचान गए और समझ गए कि बिना सशस्त्र विद्रोह के जूनागढ़ की स्वतंत्रता संभव नहीं है। उसी समय हैदराबाद के कट्टरपंथी नेता कासिम रिजवी भी जूनागढ़ की गतिविधियों को भांपते हुए भड़काऊ बयान देने लगे। वो कहते, “इनसे एक छोटा सा जूनागढ़ नहीं संभलता और ये हमारी निजाम शाही उखाड़ेंगे?”

और पढ़ें: लाला लाजपत राय: वो वीर पुरुष जिनके बलिदान ने स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा ही बदल दी!

लेकिन जब पानी सर के ऊपर से निकलने लगा, तो सरदार पटेल और वीपी मेनन समझ गए कि सैन्य कार्रवाई ही जूनागढ़ की स्वतंत्रता का एकमात्र विकल्प है। नवाब मोहम्मद खान तुरंत स्थिति भांप गए और लगभग आधी से अधिक संपत्ति और अपनी कई बीवियों एवं कुत्तों सहित कराची भाग गए, लेकिन एक पत्नी और कुछ कुत्ते तब भी पीछे छूट गए। परंतु शाहनवाज़ भुट्टो और उनका अत्याचारी शासन तब भी डटा रहा, लेकिन जब साथी राज्यों ने सहायता देने से मना कर दिया और सेना एवं जूनागढ़ की जनता ने सशस्त्र विद्रोह में सहयोग दिया, तो शाहनवाज़ भुट्टो के पास भारत को जूनागढ़ सौंपने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। 8 नवंबर को सेना ने जूनागढ़ में प्रवेश किया और 9 नवंबर को जूनागढ़ राज्य स्वतंत्र हुआ।

सरदार पटेल जनमत संग्रह के पक्ष में नहीं थे, परंतु वीपी मेनन ने उन्हें इस प्रक्रिया के लिए मना लिया। जब 1948 में जनमत संग्रह हुआ, तो मात्र 91 लोगों ने पाकिस्तान के लिए मत दिया और बाकी सब ने भारत में विलीनीकरण को समर्थन दिया। जूनागढ़ की स्वतंत्रता आधिकारिक रूप से 9 नवंबर को होती है, पर नींव तो 8 नवंबर को ही पड़ चुकी थी और इसी ने सरदार पटेल के ‘लौहपुरुष’ की छवि को स्थापित करने में सहायता भी की!

Tags: जूनागढ़सरदार वल्लभ भाई पटेल
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26 November 2025

India’s rich cultural tapestry, as often explored on TFIPost.in, weaves tales of fate and fortune through epics like the Mahabharata, where dice games shaped destinies....

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