जस्टिस चंद्रचूड़: हम एक स्वतंत्र राष्ट्र में रहते हैं जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और इस तरह यह आवश्यक हो जाता है कि लोकतंत्र को और सशक्त बनाए रखने के लिए इस देश के हर आधारभूत क्षेत्र में लोकतंत्रिक व्यवस्था मजबूत रखा जाए। न्यायपालिका देश का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है लेकिन जज को जज ही नियुक्त करे इस प्रक्रिया पर और पूर्ण न्यायिक स्वतंत्रता पर विवाद समय-समय पर उठता रहता है।
मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति
नये मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति पर ध्यान दें तो इस पद के लिए एक योग्य व्यक्ति को नियुक्त करने से लेकर शपथ लेने की प्रक्रिया के बीच के समय में लंबित मुद्दों को सुलझाने का काम किया जा सकता है। हाल ही में जस्टिस चंद्रचूड़ की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश के रूप में हुई है, यह नियुक्ति कार्यपालिका के लिए कॉलेजियम प्रणाली और उसमें आमूलचूल परिवर्तनों पर ध्यान केंद्रित करने और सोचने का एक विशेष अवसर देता है।
देश को उसका 50वां CJI यानी मुख्य न्यायाधीश मिल गया है, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के द्वारा जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ को इस बड़े और सम्मानित पद पर नियुक्त किया गया है। आने वाले महीने के 9 नवंबर को जस्टिस चंद्रचूड़ शपथ लेंगे और इस पद पर रहते हुए उनका कार्यकाल 10 नवंबर 2024 तक के लिए होगा। फिलहाल जस्टिस यूयू ललित इस पद पर हैं और आने वाले 8 नवंबर को वो रिटायर हो जाएंगे।
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किरेन रिजिजू का बयान
इधर जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ यानी जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ का मुख्य न्यायाधीश के पद के लिए चुनाव कर लिया गया और उधर केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री किरेन रिजिजू का कुछ ऐसा बयान सामने आया जिसके बारे में चर्चा करने की आवश्यकता पड़ जाती है।
अहमदाबाद में आयोजित ‘साबरमती संवाद’ में सोमवार को केंद्रीय मंत्री ने कहा कि उन्होंने देखा है कि आधे समय जज नियुक्तियों को तय करने के लिए बिजी होते हैं, जिसकी वजह से उनका प्राथमिक काम ‘पीड़ितों को न्याय देना’ प्रभावित होता है। यह संवाद ‘पांचजन्य’ द्वारा आयोजित किया गया जो कि RSS द्वारा प्रकाशित की जाने वाली साप्ताहिक पत्रिका है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर पूछे गए एक प्रश्न पर रिजिजू ने कहा कि “मैं जानता हूं कि देश की जनता जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली से खुश नहीं है।” न्यायाधीशों के चयन को लेकर की गयी अपनी टिप्पणी में किरेन ने न्यायपालिका की राजनीति पर भी अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि “न्यायाधीशों के चयन के लिए परामर्श की प्रक्रिया बहुत तीव्र है जिसके कारण मुझे ऐसा कहने पर खेद है कि इसमें समूहवाद विकसित होता है। नेताओं के बीच की राजनीति तो लोग देख पाते हैं लेकिन न्यायपालिका के भीतर की राजनीति वो नहीं जानते हैं।”
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कॉलेजियम प्रणाली पर सवाल
देखा जाए तो कॉलेजियम प्रणाली हमेशा से ही सवालों के घेरे में बनी रही है। कभी इसकी पारदर्शिता पर प्रश्न उठते हैं तो कभी न्यायाधीशों की नियुक्ति में इसे एक बड़ी समस्या के रूप में देखा जाता है। देशभर की अदालतों में जजों की नियुक्ति की प्रणाली को कॉलेजियम प्रणाली कहा जाता है। वर्ष 1993 में आई इस व्यवस्था के तहत न्यायाधीशों के पोस्टिंग, तबादले और पदोन्नति से जुड़े निर्णय कॉलेजियम समिति द्वारा लिए जाते हैं। कॉलेजियम प्रणाली से ही यह तय होता है कि हाईकोर्ट के कौन से जज पदोन्नत होकर सुप्रीम कोर्ट जाएंगे। हालांकि, हमारे भारतीय संविधान में कॉलेजियम प्रणाली का कोई उल्लेख नहीं किया गया है।
हमारे संविधान में अनुसूचित जाति के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अच्छी तरह से प्रावधान किए गए हैं। संविधान का अनुच्छेद 124 (2) राष्ट्रपति के लिए मुख्य न्यायाधीश सहित अनुसूचित जाति के न्यायाधीशों की नियुक्ति को अनिवार्य बनाता है। उसे यह सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों के परामर्श से करना होता है।
व्यावहारिक रूप से भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायाधीशों की सिफारिश करते थे और राष्ट्रपति का कार्य सामान्यतः 1980 तक उस पर मुहर लगाने तक ही सीमित रहता था और फिर 1981 का ‘फर्स्ट जजेज केस’ आया। एस पी गुप्ता बनाम भारत संघ में, न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति कर सकते हैं ‘गंभीर कारणों’ से CJI की सिफारिश को ठुकराया यह व्यवस्था 12 वर्षों तक चलती रही लेकिन कुल मिलाकर राष्ट्रपति इस प्रक्रिया में ज्यादा हस्तक्षेप करने से बचते रहे।
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“परामर्श” का अर्थ “सहमति”
यह भी न्यायपालिका को मंजूर नहीं था। 1993 के दूसरे न्यायाधीशों के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि “परामर्श” का अर्थ “सहमति” है। मूल रूप से कोर्ट ने कहा कि प्रक्रिया पर न्यायपालिका की राय अधिक महत्व रखती है। SC ने कहा कि CJI के अलावा SC में दो वरिष्ठतम जज भी प्रक्रिया का हिस्सा होंगे। इसने कॉलेजियम प्रणाली को जन्म दिया। 3 साल बाद, SC ने ‘थर्ड जजेज केस’ में फैसला सुनाया कि कॉलेजियम को 5 सदस्यीय निकाय होना चाहिए जिसमें CJI और उनके चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल हों।
किरेन रिजिजू के बयान को देखें तो कई प्रश्न उठते हैं, जैसे कि क्या वो आने वाले दिनों में होने वाले किसी बदलाव की ओर इशारा कर रहे हैं क्योंकि अभी-अभी देश के मुख्य न्यायाधीश का चयन हुआ है। ध्यान देने वाली बात है कि यह नवीनतम नियुक्ति भी कॉलेजियम के तहत ही हुई है।
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समझने वाली बात यह है कि नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका की भागीदारी के लिए न्यायपालिका द्वारा निरंतर ‘नही’ स्पष्ट रूप से इस ओर इंगित करता है कि उसे कार्यपालिका पर भरोसा नहीं है। इसे सिस्टम का हिस्सा नहीं बनने देना लोकतंत्र की किसी भी शाखा के लिए अच्छा नहीं है।
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