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द्रविड़ पार्टियां हिंदी के विरोध में नहीं बल्कि तमिल लोगों के विरोध में हैं

तमिलनाडु में भाजपा के बढ़ते वर्चस्व के कारण इनकी हालत पतली होने लगी है और ये किसी भी तरह हिंदी और तमिल भाषी लोगों को एक नहीं होने देना चाहते हैं.

Vaishali Shukla द्वारा Vaishali Shukla
28 November 2022
in राजनीति
M K Stalin

Source- TFI

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क्या आपने कभी सोचा है कि इतने वर्षों से भारत के उत्तर और दक्षिण में एक तरह का विभाजन और टकराव क्यों है? ऐसा क्यों है कि भारत के दक्षिण हिस्से के नेता अलग देश की मांग करते हैं? ऐसा क्यों है कि “हिंदी बोलने वाले पानी-पूरी बेचते हैं” ऐसे बयान भारत के दक्षिण के नेताओं के मुंह से निकलते हैं। इस तरह के सभी सवालों का जवाब है- द्रविड़ पॉलिटिक्स। यह द्रविड़ पॉलिटिक्स नास्तिकता, हिंदू विरोधी, हिंदी विरोधी और उत्तर भारतीय विरोधी आदर्शों के इर्द-गिर्द घूमती है। पिछले कुछ वर्षों में इंटरनेट और सोशल मीडिया हर घर पहुंचे हैं और यह उसी का परिणाम है कि दक्षिण में चल रही राजनीति की खिचड़ी उत्तर वालों को भी देखने को मिल रही है।

दूसरी ओर मोदी सराकर तमिल-हिंदी दोनों को एकसाथ लेकर चलने की बात करती है तो वहीं द्रविड़ पॉलिटिक्स करने वाले इसमें भी अपना उल्ली सीधा करते हुए दिख जाते हैं। भाजपा काफी पहले से ही हिंदी और तमिल भाषी लोगों के बीच जमीनी स्तर पर तनाव खत्म करने की कोशिश कर रही है और हाल ही में काशी में हुए काशी-तमिल संगमम इसका प्रमाण है। लेकिन जैसे ही पीएम नरेंद्र मोदी या यूं कहें कि भाजपा के शीर्ष नेताओं ने हिंदी-तमिल को एक करने की बात करनी शुरू की, वैसे ही पेरियार के चेलों में खुजली मचनी शुरू हो गई और उन्हें इस बात का डर सताने लगा कि अगर भाजपा ऐसा करने में सफल हो जाती है, तो इनका भविष्य क्या होगा। फिर क्या था, इन्होंने अपनी कुत्सित महत्वाकांक्षाओं की आड़ में कुकृत्य करना शुरू कर दिया है।

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तमिलनाडु में आत्मदाह

दरअसल, तमिलनाडु के सलेम जिले में हिंदी का विरोध करने वाले एक किसान ने खुद को आग लगाकर आत्मदाह कर लिया। सलेम में डीएमके ऑफिस के बाहर थंगावेल नाम के 85 वर्षीय किसान ने अपनी जान दे दी और एक बड़ा सुसाइड नोट भी छोड़ दिया, जिसमें ये कहा गया है कि मोदी सरकार तमिल लोगों पर जबरदस्ती हिंदी थोपने का प्रयास कर रही है। पहली नजर में तो यह विरोध ही प्रतीत होता है लेकिन जब हम इसके तह में जाएंगे तो स्थिति स्वत: स्पष्ट हो जाएगी। ज्ञात हो कि जिस व्यक्ति ने हिंदी के विरोध में आत्मदाह किया, वो डीएमके का ही एक सदस्य था और वो पार्टी के कृषि संघ आयोजक के पद पर भी रह चुका था।

सुसाइड नोट में थंगावेल ने लिखा, “अगर तमिलनाडु में हिंदी आ गई तो युवाओं का भविष्य और उनके रोजगार के अवसर पूरी तरह से बर्बाद हो जाएंगे। मैंने बचपन से ही हिंदी का विरोध किया था। मैंने यह निर्णय तमिलनाडु में हिंदी को अनुमति नहीं देने के इरादे से लिया है।” हिंदी का विरोध करते हुए उन्होंने अपने बैनर पर लिखा था कि मोदी सरकार, केंद्र सरकार, हमें हिंदी नहीं चाहिए। हमारी मातृ भाषा तमिल ही है, हिंदी तो विदूषकों की भाषा है। हिंदी भाषा थोपने से छात्रों के जीवन पर काफी असर पड़ेगा। खबरों की माने तो थंगावेल की मौत के कुछ ही बाद ही स्टालिन की पार्टी के लोग उसके घर पहुंचे थे और पैसे वगैरह भी देने की बात सामने आई है।

इन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा बदलाव

ध्यान देने योग्य है कि मोदी सरकार कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अरूणाचल प्रदेश से द्वारका तक देश को एक धागे में पिरोने का प्रयास कर रही है। इसी क्रम में नॉर्थ इस्ट के राज्यों का उद्धार भी हमें देखने को मिल रहा है और आने वाले समय में नॉर्थ इस्ट एशिया का मुख द्वार भी हो सकता है। हालांकि, यह स्पष्ट है कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद तमिल लोगों में हिंदी भाषाई या यूं कहें कि उत्तर भारतीय लोगों के प्रति विचारों में बदलाव देखने को मिला है।

तमिलनाडु विधानसभा चुनाव 2021 में भाजपा के उम्मीदवारों की जीत इसके प्रमाण दे रहे हैं। वहीं, तमिलनाडु भाजपा अध्यक्ष के अन्नामलाई के नेतृत्व में पार्टी जमीनी स्तर पर अपनी पकड़ मजबूत करते जा रही है। यही कारण है कि तमिलनाडु में भी लोग भाजपा को पसंद करने लगे हैं। तमिल-हिंदी को एक करने को लेकर भाजपा द्वारा किए जा रहे प्रयासों से डीएमके जैसी पार्टियों के पेट में मरोड़े उठ रही है, जिसके कारण हमें थंगावेल जैसे कांड देखने को मिल रहे हैं।

और पढ़ें: द्रविड़ राजनीति के अंत की नींव पीएम मोदी ने रख दी है

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि डीएमके जैसी पार्टियां हिंदी के प्रति तमिल लोगों के लगाव को बर्दाश्त नहीं कर पा रही हैं। वह तमिल लोगों को बस तमिल तक ही सीमित करके रखना चाहते है, जिससे वह अपनी नार्थ-साउथ की पीपड़ी बजा सके। बीते कई वर्षों में इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से तमिल के लोग भी दक्षिण में चल रही राजनीति की खिचड़ी को समझने लगे है और वो इससे बाहर निकलने का प्रयास करने लगे है लेकिन यह स्थानीय पार्टियों को रास नहीं आ रहा है।

ज्ञात हो कि तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके दोनों ही महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों ने द्रविड़ आंदोलन के सहारे अपना सिक्का जमाया हुआ है। अन्नाद्रमुक में जयललिता के आने के बाद से तमिलनाडु में द्रविड़ विचारधारा जरा बहुत कम हुई है लेकिन स्टालिन के सत्ता में आने के बाद से मानो राज्य फिर से हिंदू और हिंदी विरोधी राजनीति में तब्दील होने लगा है। स्टालिन की डीएमके द्रविड़ पॉलिटिक्स की आड़ में अपने हिंदू विरोधी और ब्राह्मण विरोधी कट्टरता के लिए काफी ज्यादा मशहूर है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि तमिल लोगों को तमिलनाडु तक सीमित करने की कोशिश में उपर्युक्त घटना को अंजाम दिया गया है।

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