कुछ महानुभावों को लगता है कि अंग्रेज़ न होते, तो भारत में सभ्यता दूर दूर तक नहीं थी। परंतु अंग्रेज़ों के आगमन से पूर्व भारत एक गणतांत्रिक राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर था, जहां जनता के समर्थन से सबसे शक्तिशाली साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों में बाँटा गया था। यह मराठा परिसंघ यानि Maratha Confederacy के नाम से प्रसिद्ध था, और इसके संस्थापकों में एक, होल्कर वंश साम्राज्य को मराठों का “मस्तकमणि” भी माना जाता है।
इस लेख में मिलिये होल्कर (परिवार) साम्राज्य से, जिनके गौरव और जिनके योगदानों से आज भी अधिकांश भारत अपरिचित है।
पेशवा बाजीराव के प्रिय
1720 में जब पेशवा बाजीराव को मराठा साम्राज्य का प्रशासन सौंपा गया था, तो उन्होंने कई क्रांतिकारी बदलाव किये। उन्होंने मराठा के कुलीन वर्ग का “शुद्धिकरण” प्रारंभ किया, अर्थात जो लोग छत्रपति शिवाजी महाराज के हितों एवं उनके “हिंदवी स्वराज्य” के स्वप्न में बाधा बनते, उन्हे वे “साम दाम दंड भेद” के माध्यम से अपने मार्ग से हटवा देते।
इसी के अंतर्गत पेशवा बाजीराव ने युवा सलाहकारों एवं सैनिकों को अधिक प्राथमिकता दी, जिनमें से एक थे मल्हारराव होल्कर। 1720 में उन्होंने मालवा क्षेत्र में मराठा सेनाओं की कमान संभाली और 1733 में पेशवा ने इंदौर के आसपास के क्षेत्र में ९ परगना क्षेत्र दिये। मल्हार राव ने 1734 में ही एक शिविर की स्थापना की, जो अब में मल्हारगंज के नाम से जाना जात है। 1749 में उन्होने अपने राजमहल, राजवाडा का निर्माण शुरू किया। उनकी मृत्यु के समय वह मालवा के ज्यादातर क्षेत्र मे शासन किया और मराठा महासंघ के लगभग स्वतंत्र पाँच शासकों में से एक के रूप में स्वीकार किया गया।
परंतु मल्हारराव केवल इसके लिए चर्चित नहीं थे। मुगलों की भांति अन्य रियासतों एवं प्रांतों में ये भ्रम फैलाया गया कि भारत के वासी बड़े रूढ़िवादी और महिला विरोधी थे। परंतु मल्हारराव का जीवन इसके ठीक विरुद्ध एक तमाचा समान था। भले ही उस समय की रीतियों के अनुसार उनके बेटे का विवाह बालपन में हुआ, परंतु उन्होंने अपनी बहू को अपनी पुत्री की तरह माना, और उसे राजनीति से लेकर युद्धनीति में सम्पूर्ण दीक्षा दी। यह कन्या कोई और नहीं, इंदौर की सूबेदार एवं मराठा साम्राज्य के गौरव में से एक, अहिल्याबाई होल्कर थी।
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पानीपत में होल्कर की भूमिका
मल्हारराव होल्कर पर एक लांछन खूब लगाया है : वे पानीपत के मोर्चे से भाग खड़े हुए थे। परंतु पानीपत में क्या हुआ था, इसके बारे में बहुत कम ही लोग परिचित हैं। युद्ध से पूर्व मल्हारराव “कटक से अटक तक”, हिंदवी स्वराज्य का विस्तार करने में शिंदे शाही एवं रघुनाथ राव जैसे योद्धाओं को भरपूर समर्थन दे रहे थे। उनके पुत्र खांडेराव होल्कर की अल्पायु में मृत्यु हो गई थी, परंतु वे अपने पथ से डिगे नहीं।
जब अफ़गान आक्रमण की सूचना मल्हारराव समेत अन्य मराठाओं को मिली, तो उन्होंने अविलंब धावा बोलने की ठानी। मल्हारराव होल्कर रघुनाथ राव की भांति सम्पूर्ण तैयारी के साथ युद्ध करने के पक्ष में थे, परंतु पेशवा बालाजी बाजीराव के भतीजे एवं पेशवा के दीवान सदाशिव राव भाऊ ने उनकी एक न सुनी।
रघुनाथ राव इससे रुष्ट हो गए, और उन्होंने पानीपत की ओर न जाने का निर्णय लिया। परंतु मल्हारराव होल्कर ने अंत तक मराठा सेनाओं का साथ दिया। पानीपत के युद्ध में भी उन्हे कोई खास क्षति नहीं पहुंची थी, और वे अंतिम श्वास तक लड़ने को तैयार थे। परंतु जब सदाशिव राव को लगने लगा कि परिणाम उनके पक्ष में नहीं होंगे, तो उन्होंने मल्हारराव को युद्ध में सहभागी कई नागरिकों एवं अपने परिवारजनों की रक्षा करने का दायित्व सौंपा। न चाहते हुए भी मल्हारराव को सदाशिवराव भाऊ का यह आदेश मानना पड़ा, और उन्होंने पार्वतीबाई समेत कई तीर्थयात्रियों एवं स्त्रियों की रक्षा की। वे इस अभियान में पूर्णत्या सफल नहीं हुए, और यह बात 1766 में उनकी मृत्यु तक उन्हे सालती रही।
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कैसे अहिल्याबाई होल्कर ने मराठा साम्राज्य और भारत के गौरव को अक्षुण्ण रखा
परंतु होल्कर साम्राज्य की गाथा समाप्त नहीं हुई थी। उनकी बहू अहिल्याबाई ने उनके बाद इंदौर सूबा का प्रशासन संभाला। महादजी शिंदे, नाना फड़नवीस, एवं पेशवा माधवराव द्वारा मराठा साम्राज्य के पुनरुत्थान में उन्होंने सम्पूर्ण साथ दिया।
इतना ही नहीं, अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मन्दिर बनवाए, घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण किया, मार्ग बनवाए-सुधरवाए, भूखों के लिए अन्नसत्र (अन्यक्षेत्र) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, मन्दिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिन्तन और प्रवचन हेतु की। और, आत्म-प्रतिष्ठा के झूठे मोह का त्याग करके सदा न्याय करने का प्रयत्न करती रही। इन्ही की देख रेख में काशी विश्वनाथ मंदिर का वर्तमान रूप निर्मित हुआ, जिसके मूल परिसर को औरंगज़ेब ने वर्षों पूर्व ध्वस्त किया था।
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ये उसी परम्परा में थीं जिसमें उनके समकालीन पूना के न्यायाधीश रामशास्त्री थे और उनके पीछे झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हुई। अपने जीवनकाल में ही इन्हें जनता ‘देवी’ समझने और कहने लगी थी। इतना बड़ा व्यक्तित्व जनता ने अपनी आँखों देखा ही कहाँ था। जब चारों ओर गड़बड़ मची हुई थी। शासन और व्यवस्था के नाम पर घोर अत्याचार हो रहे थे। प्रजाजन-साधारण गृहस्थ, किसान मजदूर-अत्यन्त हीन अवस्था में सिसक रहे थे। उनका एकमात्र सहारा-धर्म-अन्धविश्वासों, भय त्रासों और रूढि़यों की जकड़ में कसा जा रहा था। न्याय में न शक्ति रही थी, न विश्वास। ऐसे काल की उन विकट परिस्थितियों में अहिल्याबाई ने जो कुछ किया-और बहुत किया, वह चिरस्मरणीय है।
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