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जब देश बढ़ रहा था विकास की ओर, बिहार में घोंटा जा रहा था ‘सामाजिक न्याय’ का गला: जंगलराज के ‘बेताज बादशाह’ लालू यादव को जन्मदिन मुबारक

himanshumishra द्वारा himanshumishra
11 June 2025
in राजनीति
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव

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“बिहार में सरकार नहीं है। यहां भ्रष्ट अफसर राज्य चला रहे हैं और बिहार में जंगलराज कायम हो गया है।” 5 अगस्त 1997 को पटना हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने जब यह कहकर तत्कालीन बिहार साकरार को फटकार लगाई थी तब यह टिप्पणी मात्र नहीं बल्कि न्यायलय ने बिहार में शासन के चरित्र को एक वाक्य में समेट दिया था। यह कोई साधारण टिप्पणी नहीं थी, बल्कि उस राजनीतिक और प्रशासनिक अराजकता की सार्वजनिक पुष्टि थी, जिसे लाख कोशिशों के बावजूद कोई नकार नहीं सका।

आज जब लालू प्रसाद यादव अपना 78वां जन्मदिन मना रहे हैं, उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल इस दिन को ‘सामाजिक न्याय एवं सद्भावना दिवस’ के रूप में मना रही है। ऐसे समय में उन्होंने अपने 78वें जन्मदिन पर 78 किलो लड्डू केक तलवार से काटकर जश्न मनाया। यह तलवार न केवल एक समारोह की सजावट थी, बल्कि बिहार के उस दौर की खौफनाक स्मृति भी, जब सड़कों पर खून बहाने वाले अपराधियों और सत्ता के गठजोड़ का यही प्रतीक था। और विडंबना देखिए कि जिस व्यक्ति के शासन को स्वयं न्यायपालिका ने जंगलराज कहा, वही आज न्याय और सद्भाव की राजनीति का प्रतीक बनकर पेश किया जा रहा है। ‘जंगलराज’ कोई राजनीतिक नारा नहीं था, बल्कि लालू के शासन में बिहार की रोजमर्रा की त्रासदी बन चुका था। यह वो दौर था जब हत्या, अपहरण और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध बिहार के सामाजिक ढांचे का हिस्सा बन चुके थे। कानून व्यवस्था नाम की चीज़ सिर्फ सरकारी कागज़ों में बची थी, और सड़कों पर खौफ का साम्राज्य था।

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राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनना सिर्फ एक औपचारिक बदलाव था, असल सत्ता हमेशा लालू यादव के हाथ में ही रही। इस दौरान लालू राज सिर्फ सत्ता नहीं चला रहा था, बल्कि एक सोच को मजबूत कर रहा था एक ऐसी सोच जिसमें जातीय तुष्टिकरण को सामाजिक न्याय का नाम दिया गया। इसी सोच के परिणामस्वरूप बिहार में जातीय नरसंहारों का दौर चला, नौकरशाही का पेशेवर ढांचा ढह गया, और राज्य ऐसे सामाजिक अंधकार में धकेला गया जिससे वह आज तक उबर नहीं पाया। 1990 का दशक भारत के लिए आर्थिक क्रांति का कालखंड था। देश में जब उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की बयार चल रही थी, तब बिहार लालू के कथित समाजवादी प्रयोग का प्रयोगशाला बना हुआ था। जहाँ देश निवेश, इंफ्रास्ट्रक्चर और शिक्षा की नई ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहा था, वहीं बिहार अपराध, जातिवाद और पलायन की गर्त में समा गया। हत्या और अपहरण जैसे अपराध यहां उद्योग का रूप ले चुके थे, और प्रशासन अपराधियों का सहयोगी बन चुका था।

इस ‘राजनीतिक प्रयोग’ की कीमत बिहार को दशकों तक चुकानी पड़ी। आज भी बिहार से लाखों लोग रोजगार और शिक्षा की तलाश में बाहर जाते हैं, राज्य की छवि बदनाम होती रही है, और निवेशक इससे दूर भागते हैं। यह किसी एक पीढ़ी की नहीं, पूरी सामाजिक संरचना की त्रासदी रही है। आज जब लालू यादव के समर्थक उन्हें गरीबों और पिछड़ों का मसीहा कहकर उनकी राजनीतिक विरासत को महिमामंडित करने में लगे हैं, तो यह जरूरी हो जाता है कि इतिहास की उन कड़वी सच्चाइयों को याद रखा जाए, जो आज भी बिहार के समाज और व्यवस्था को प्रभावित कर रही हैं। आइए इस लेख में आपको विस्तार से बताते हैं कि कैसे लालू यादव के जंगलराज ने बिहार को विकास के रास्ते से भटका दिया और कैसे आज भी राज्य उस अंधकारमय विरासत की भारी कीमत चुका रहा है…

‘सामाजिक न्याय’ का दीमक लगा ढांचा

लालू यादव आज भले ही अपने जन्मदिन पर ‘सामाजिक न्याय एवं सद्भावना दिवस’ का ढोल पीट रहे हों, लेकिन उनका वह कथित ‘सामाजिक न्याय’ किस किस्म का था, इसकी एक झलक 90 के दशक के रक्तरंजित बिहार में साफ देखी जा सकती है। उस समय बिहार जातीय हिंसा की आग में झुलस रहा था। माओवादी संगठनों और उच्च जातियों द्वारा खड़ी की गई रणवीर सेना के बीच पूरा राज्य रणभूमि बना हुआ था। माओवादियों ने ऊंची जातियों के लोगों को निशाना बनाना शुरू किया, तो जवाब में भूमिहार और अन्य अगड़ी जातियों के लोगों ने रणवीर सेना का गठन कर ‘खून के बदले खून’ की नीति अपनाई। इसका नतीजा यह हुआ कि बिहार की धरती पर एक के बाद एक नरसंहार होते गए और कानून नाम की चीज खत्म होती चली गई।

1999 में जहानाबाद इसका जीता-जागता उदाहरण बना, जहां साल की शुरुआत के महज दस हफ्तों में ही करीब 80 लोगों की जान गई। सेनारी का नरसंहार आज भी लोगों के ज़ेहन में डर बनकर जिंदा है। ग्रामीण क्षेत्रों में दलितों और पिछड़े तबकों के बीच यह खौफ हमेशा बना रहता था कि माओवादियों के हमलों का बदला लेने के लिए रणवीर सेना कभी भी उन पर टूट सकती है। उस समय के विपक्षी नेता सुशील कुमार मोदी तक ने कह दिया था कि राजद के लोग दिन में राजनीति करते हैं और रात में माओवादी बन जाते हैं। चर्चा यहां तक थी कि राजद और प्रतिबंधित MCC (माओवादी संगठन) के बीच अप्रत्यक्ष सांठगांठ थी। पुलिस तक इन संगठनों से भय खाती थी, और माओवादी खुलेआम सुरक्षाकर्मियों को घेर कर उनके हथियार तक छीन लेते थे। छोटे जमींदार अपने खेतों को छोड़ चुके थे, ताकि वे माओवादियों की नजर से बच सकें।

राजद के कार्यकाल के दौरान लचर कानून व्यवस्था की इसी विफलता से ‘रणवीर सेना’ जैसे संगठन खड़े हुए और दोनों पक्षों में खूनी संघर्ष चलता रहा। बारा नरसंहार इसका सबसे वीभत्स उदाहरण है। 12-13 अगस्त 1992 की रात गया जिले के बारा गांव में माओवादियों ने भूमिहार समुदाय के 35 लोगों को एक-एक कर घरों से बाहर निकाला और नहर के किनारे ले जाकर गला रेत कर मार डाला। लंबी सुनवाई के बाद दोषियों को फांसी की सजा सुनाई गई, लेकिन 2017 में राष्ट्रपति द्वारा उनकी फांसी माफ कर दी गई। बदले में रणवीर सेना ने भी क्रूर जवाब दिया लक्ष्मणपुर-बाथे में 58 दलितों को मौत के घाट उतार दिया गया।

यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। बथानी टोला, नाढ़ी, इकवारी, सेनारी, रामपुर चौरम, मियांपुर इन सब जगहों पर जातीय नरसंहारों ने बिहार के कई जिलों को कानूनहीन बना दिया। पटना, जहानाबाद, अरवल, औरंगाबाद से लेकर शाहाबाद तक, राज्य की न्यायिक और प्रशासनिक संरचना पूरी तरह चरमरा गई थी। विडंबना यह है कि इन नरसंहारों, इस भयावह जंगलराज और जातीय विद्वेष के बीच लालू यादव और उनकी पार्टी ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे। जातियों को बाँटकर, जातीय पीड़ा को वोट बैंक में तब्दील कर राजद ने जो राजनीति की, वह बिहार के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन की सबसे बड़ी वजह बनी। और आज, उन्हीं लालू यादव को ‘सामाजिक न्याय’ का पुरोधा बताकर महिमामंडित करना उन हज़ारों परिवारों की पीड़ा का अपमान है जिन्होंने उस दौर में अपनों को खोया। यही है लालू- राबड़ी राज का असली चेहरा जो खून से लथपथ है, जातियों में विभाजित है, और बिहार को अंधेरे में धकेल देने के लिए ज़िम्मेदार भी।

अपराधियों की प्रयोगशाला

जब पूरा देश 90 के दशक में आर्थिक सुधारों की दिशा में तेज़ी से बढ़ रहा था, बिहार अपराधियों की, भ्रष्टाचारियों की और सत्ता संरक्षित माफिया व्यवस्था की एक अलग ही प्रयोगशाला बन चुका था । बिहार की सत्ता पर लालू यादव का नियंत्रण लगभग पंद्रह वर्षों तक बना रहा। तकनीकी रूप से इनमें से करीब आठ साल तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उनकी पत्नी राबड़ी देवी बैठीं, लेकिन हकीकत यह थी कि शासन की असली बागडोर लालू यादव के ही हाथों में थी। ये वह दौर था जब हत्या, अपहरण और फिरौती का धंधा राज्य का एक समानांतर ‘उद्योग’ बन गया था। राजनेता, प्रशासन और माफिया तीनों के गठजोड़ ने बिहार को हिंसा, असुरक्षा और अराजकता की प्रयोगशाला में तब्दील कर दिया था।

आँकड़ों की बात करें तो लालू-राबड़ी शासन के आखिरी साल 2005 में बिहार में कुल 3,471 हत्याएँ हुईं, 251 अपहरण और 1,147 बलात्कार के मामले दर्ज हुए। उससे ठीक एक साल पहले 2004 में ये संख्या और भी भयावह थी 3,948 हत्याएँ, 411 अपहरण और 1,390 बलात्कार। लेकिन यह सिर्फ आंकड़ों की कहानी नहीं थी। यह एक पूरे राज्य की उस मानसिक और सामाजिक पीड़ा की कहानी थी, जो हर रोज़ कानून की लाशों पर जी रही थी। इसी दौर में नक्सलवाद भी तेजी से फैला। आरोप थे कि राजद के कई नेताओं की नक्सलियों से साँठ-गाँठ थी। वोट बैंक की राजनीति में लालू यादव ने इन्हें भी अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया। नतीजा यह हुआ कि सिर्फ 2005 में ही 203 नक्सली हिंसा की घटनाएँ दर्ज की गईं। सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन जैसे लोगों का आतंक चरम पर था विरोधी उम्मीदवारों पर हमले होते थे, पुलिस अफसरों पर गोलियाँ चलती थीं, पोस्टर हटाए जाते और कार्यकर्ताओं की हत्याएँ होती थीं। और यह सब एक संगठित सिस्टम के तहत होता था, जिसमें गुंडे नेता बनते थे और नेता गुंडों को पालते थे।

इस पूरी व्यवस्था को लालू यादव के साले सुभाष यादव और साधु यादव अपने तरीके से और मजबूत करते थे। उनके दबदबे का आलम यह था कि जब लालू यादव की बेटियों की शादी होती, तो गाड़ियों के शोरूम खाली करवा दिए जाते, और सरकारी खजाने से 100 करोड़ रुपये पानी की तरह बहा दिए जाते थे। पत्रकार श्रीकांत प्रत्यूष को दिए एक इंटरव्यू में खुद सुभाष यादव ने बताया कि 90 के दशक में ‘किडनैपिंग इंडस्ट्री’ का संचालन सीधे मुख्यमंत्री आवास से होता था। एक मामले में उन्होंने खुलासा किया कि अररिया में किडनैप किए गए व्यक्ति को सहरसा के काला दियर इलाके में नाव पर बंधक बनाकर रखा गया था, और खुद लालू यादव, शहाबुद्दीन और प्रेमचंद गुप्ता उस मामले को निपटाने में सक्रिय थे। सुभाष का कहना था, “हम लोग तो कभी शामिल नहीं होते थे, सब कुछ सीएम हाउस से तय होता था। मुख्यमंत्री आवास अपराधियों के लिए सबसे सुरक्षित जगह बन चुका था।” यही नहीं, खुद लालू यादव भी घोटालों में लिप्त थे।इन्हीं में से एक चारा घोटाले में वे दोषी ठहराए जा चुके हैं और फिलहाल जमानत पर बाहर हैं।

इन सबके बीच जो सबसे त्रासदीपूर्ण पहलू था, वह यह कि यह सब उस समय हो रहा था जब भारत आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहा था। देश नए भारत का सपना देख रहा था बुनियादी ढांचे, शिक्षा और निवेश में क्रांति का दौर था। मगर बिहार उस समय ‘समाजवाद’ के नाम पर अपराध, जातिवाद और पलायन की गहराई में धँसता चला गया। सड़कें नहीं बनीं, उद्योग नहीं लगे, और जो थोड़ा बहुत निर्माण हुआ, वह भी माफिया-राज के टेंडर तंत्र की भेंट चढ़ गया। यहाँ नेता ही अपराध उद्योग के संरक्षक थे, और अपराधी वही ‘विकास’ थे जो सत्ता को स्थायित्व दे रहे थे। आज जब लालू यादव अपने ‘सामाजिक न्याय’ की विरासत पर गौरव करते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि उन्होंने बिहार को सिर्फ सामाजिक ही नहीं, बल्कि आर्थिक और नैतिक अंधकार में भी झोंक दिया था एक ऐसा अंधकार, जिसकी छाया से राज्य आज तक पूरी तरह उबर नहीं पाया है।

स्रोत: बिहार, लालू यादव, राबड़ी देवी, जंगलराज, पटना हाई कोर्ट, सुभाष यादव, सामाजिक न्याय, Bihar, Lalu Yadav, Rabri Devi, Jungle Raj, Patna High Court, Subhash Yadav, Social Justice
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