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फिल्म या धारावाहिक देखकर हिन्दू देवी-देवताओं पर सवाल करना कितना जायज है?

Abhishek Singh Rao द्वारा Abhishek Singh Rao
3 September 2019
in धार्मिक कथा
फिल्म या धारावाहिक देखकर हिन्दू देवी-देवताओं पर सवाल करना कितना जायज है?

PC: firstpost

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आप कहते हैं हिंदुओ को इतना ग़ुस्सा क्यों आता है? क्यों हिंदू अब छोटी-छोटी बातों पर असहिष्णु होने लगे हैं?

इसका कारण है, आप अपने आप पास घट रही घटनाओं को देखिए और फिर चिंतन कीजिए कि क्या ये सब एक ख़ास मक़सद से या अपने-अपने निजी मक़सदों को पूरा करने के लिए तो नहीं हो रहा ना? क्या खुद को ज्ञानी साबित करने के लिए कुछ लोग हिन्दू संस्कृति, परम्पराओं, देवी-देवताओं को अपमानित तो नहीं कर रहे ना?

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इस देश की धर्म निरपेक्षता की ख़ूबसूरती है कि हमारे यहाँ इशनिंदा जैसा कोई क़ानून नहीं है लेकिन इसी कारण आए दिन कोई भी भगवान पर फिल्म-धारावाहिक कुछ भी बना देता है और उसे देखकर हम देवी-देवताओं पर सवाल करने लगते हैं। उनके जीवन, उनके निर्णयों की गलत समीक्षा करने लगते हैं।

दरअसल, दिक्कत ये है कि हिंदू धर्म के लोग ही अपने धर्म की ख़ूबसूरती को समझना नहीं चाहते और सवाल करने लगते हैं, और फिर महाकाव्यों को काल्पनिक सिद्ध कर अपने आप को महान समझने लगते हैं।

डिजिटल क्रांति की ख़ूबियाँ बहुत है लेकिन धार्मिकता के प्याले में इसने ज़हर घोलने का काम किया है। हिन्दुओं के देवी-देवताओं, परम्पराओं एवं पद्धतियों पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाना शायद आज से ज्यादा आसान कभी नहीं था।

ये लोग ना गीता पढ़ते हैं, ना रामायण, ना महाभारत। सिक्स पेक ऐब्स वाले शिवजी और टैटू वाली द्रौपदी को टीवी पर देखतें हैं और उसे ही हक़ीक़त समझ लेते हैं। टीवी पर रामायण या महाभारत देखते हुए मजाक करते हैं धनुष ऐसे थोड़ी टकराते होंगे। और फिर इसी को ग़लत साबित कर महानता के डिंगे मारने लगते हैं।

दिक्कत ये है ना जो इस धर्म को समझते नहीं हैं वही दूसरों को सबसे ज़्यादा समझाते हैं।

हिन्दू धर्म को महिला-विरोधी बताया जा रहा है यह जानते हुए भी कि हिन्दू धर्म के अलावा ऐसा कोई धर्म नहीं जिसमें हर शुभ काम लिए देवी की पूजा होती हो।

हम आज उस कगार पर पहुंच गए हैं जहां ‘सीताराम’ की संस्कृति में राम के सामने सीता को खड़ा कर दिया है। माँ सीता के पात्र को हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं ये लोग।

एक दो काल्पनिक फ़िल्मो को देखकर ये लोग ‘राम’ पर सीता के प्रति निर्दयी एवं निष्ठुर जैसे शब्दों का प्रयोग करने लग जाते हैं।

ये लोग पुरुषोत्तम राम पर आरोप लगाते हैं कि राज-पाठ लेकर उन्होंने मां सीता को वन में भटकने के लिए छोड़ दिया। जबकि उस काल में कर्त्यव-निष्ठा का वह सबसे उत्तम उदाहरण थे।

धार्मिक मुद्दे बेहद ही संवेदनशील होते हैं। कुछ लोगों की मुर्ख टिप्पणियां किसी श्रद्धा-वान व्यक्ति की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकती है। इसलिए ज़रुरी है कि ऐसे मुद्दों पर महान बनने की जल्दबाजी न की जाए। दूसरी खास बात, फिल्में या धारावाही को देखकर किसी धर्म या देवी-देवताओं पर सवाल न करें।

राम, रामायण, महाभारत सभी पर आज लोग सवाल उठा सकते हैं। हक़ है, लेकिन कम से कम पहले विश्वसनीय सूत्रों के ज़रिए उसका अध्ययन तो कर लें। ज्ञानी बनिए, महान बनिए लेकिन इसके लिए भी उन्हें मेहनत तो करनी ही होगी। उनके चाहने एवं सोचने मात्र से उनका सवाल महत्वपूर्ण बन जाएगा ये सिर्फ एक ख़याली-पुलाव हो सकता है।

इन लोगों को सही-गलत के फैसले करने की इतनी जल्दबाजी रहती है कि मुद्दों के बेसिक्स भी पढ़ना नहीं चाहते। बस एक फिल्म जिसकी शुरुआत में ही लिखा होता है कि यह काल्पनिक है उसी पर ये लोग विश्वास करते हैं और उसकी आड़ में धर्म, देवी-देवताओं पर कुछ भी बोलने लग जाते हैं।

राम को गलत बताने वाले या हिन्दू संस्कृति को गाली देने वाले इतना तो जानते ही होंगे कि किसी भी ग्रन्थ या कहानी को पूरी तरह गहराई में जाकर फ़िल्माया नहीं जा सकता, उसकी अपनी सीमाएं होती हैं। इस सीमा में रहकर कहानी के सभी पहलू पर प्रकाश डालना किसी भी निर्देशक के लिए असंभव है ऐसे में उस फ़िल्म को आधार बनाकर खुद को ज्ञानी बताना बहुत ही बचकानी हरकत है।

ये लोग बहुत ही आसानी से कह देते हैं कि राम ने अपना पति धर्म नहीं निभाया और सीता को अयोध्या से निकाल दिया।

राम के उस निर्णय के पीछे की मर्यादा, यातना, करुणा, और राम-सीता के प्रेम की कहानी को तो फिल्मों में भी दिखाया गया है, लेकिन फिर भी ये लोग अपनी सहूलियत के हिसाब से सवाल उठाते हैं और होशियार बन जाते हैं। बार-बार अनेको बार वही सवाल उठाया जाता है।

ये भूल जाते हैं कि ‘सीता-पति’ से पहले राम ‘अयोध्या-पति’ थे। और उस क्षण यही उनकी मर्यादा भी थी।

शायद उस समय राम के भीतर भी ‘सीता-पति’ बनाम ‘अयोध्या-पति’ का युद्ध चल रहा होगा। एक पात्र पत्नी-प्रेम को समझा रहा होगा, दूसरा देश-प्रेम को।

लोग बड़ी आसनी से इस मार्मिक घटना को दो शब्दों में सीता सही या राम गलत कर खत्म कर देते हैं, लेकिन क्या कोई राम के भीतर की वेदना को समझने का कष्ट कर सकता है?

वह कुछ ऐसा ही क्षण होगा जब एक फ़ौजी अपने परिवार की फ़िक्र करते हुए भी देश-प्रेम की ख़ातिर दुश्मनों की गोलियों से छलनी हो जाना स्वीकार करता है।

राम का पतित्व भी उस दिन शहीद ही हुआ होगा।

और ये कहना की राम ने सीता को सजा देते हुए अयोध्या से निकाल दिया था। इस वाक्य को भी तोड़ने की जरुरत है।

मैं आपको बता दूँ कि राम ने सीता को किसी भी हिसाब से दण्डित नहीं किया था। राम माँ सीता की सच्चाई जानते थे लेकिन लोगों के शक की वजह से माँ सीता के सतीत्व पर कोई लांछन न लगे और लोग खुद-ब-खुद गलत साबित हो जाएं इसलिए शांति हेतु आश्रम-वास का विकल्प दिया गया और माँ सीता ने बड़ी सहजता से इसे स्वीकार किया।

क्या ये लोग इस दृश्य से पति-पत्नी के बीच अनहद प्रेम एवं समझदारी की सीख नहीं ले सकते?

खैर, कुछ समय पश्चात अयोध्यावासियों ने अपनी गलती को मानी भी थी।

रघुकुल में बहुविवाह की प्रथा थी लेकिन यह राम का सीता के प्रति प्रेम ही था जिसने पहले ही दिन पत्नी सीता को यह वचन दिया कि एक पुरुष के रूप में उनकी निष्ठा, प्रेम एक स्त्री को ही समर्पित होगी। वे दूसरी शादी नहीं करेंगे।

इन लोगों की बुद्धि पर मुझे तरस आता है ये राम के पात्र पर सवाल उठा रहे हैं। वह राम जिन्होंने माँ सीता के वन में जाते ही एक राजा के सभी वैभव त्याग दिए थे। पत्नी-प्रेम के विरह में हर क्षण वे तड़पते रहे और एक दिन आया जब अपने शरीर को सरयू नदी में त्याग दिया।

यदि राम उस समय गलत थे तो आज हर वो शख्स गलत है जो विभिन्न मर्यादाओं के बीच भी अपनी पत्नी से प्रेम करता है।

यही नहीं हर वो पत्नी भी गलत है जो पति की मर्यादाओं का सम्मान करती है। वह पत्नी जो चाहती है कि शादी की सालगिरह पर उसका पति उसे घुमाने ले जाए लेकिन काम की मर्यादा के चक्कर में वह उस दिन जल्दी घर तक नहीं पहुंच पाता।

ऐसी अनेकों मर्यादाएं हैं जिसका सम्मान हर पति-पत्नी करते ही हैं लेकिन इस प्रेम की बारीकियों को समझने वाला बेवकूफ चाहिए। फ़िल्मे देखकर संस्कृति पर सवाल करने वाला समझदार नहीं।

पति धर्म से इतर यदि इस घटना को हम राजधर्म के चश्मे से देखें तो क्या ये एक उत्तम द्रष्टान नहीं हो सकता कि एक राजा ने अपनी प्रजा की सुनते हुए उनके पक्ष में निर्णय लिया जो उसके परिवार एवं खुद के लिए भी पीड़ा का कारण था।

कितने अंतर्विरोध हैं इनकी बातों में। एक तरफ आज ये लोग नेताओं को राजधर्म की नसीहत देते हैं और दूसरी तरफ़ चूंकि राम ने परिवारवाद के सामने राजधर्म अपनाया तो उसे गलत बता रहे हैं।

अब ये जमात कितने भी तर्क दें और सवाल उठाये लेकिन सच्चाई तो यही है कि वर्षों से राम-सीता के प्रेम, राम की मर्यादा और उनके राम राज्य का बखान किया जाता रहा है. इसके पीछे कारण उनके सार्थक निर्णय रहे होंगे वरना निर्थकता लम्बे समय तक कहां टिकती है।

राम पूजनीय हैं क्योंकि वे इस संस्कृति को मर्यादा में रहते हुए भी जीना सीखा गए। माँ सीता देवी हैं क्योंकि एक राजकुमारी जो हँसते-हँसते पति के साथ वनवास की ओर निकल जाती हैं एवं अयोध्या की रानी के पद की लाज हेतु अपने पति से भी दूर निकल जाती हैं।

यदि इसमें राम के सामने सीता या सीता के सामने राम को खड़ा करने का कोई दुस्साहस करता है तो उससे बड़ा मुर्ख कोई नहीं। शायद इन लोगों में वह समझ ही नहीं कि उस निर्णय की मार्मिकता का अंदाज़ा भी लगा सकें।

यदि कोई हिन्दू धर्म, हिन्दू परम्पराओं, देवी-देवताओं पर तर्क करना चाहता है तो पहले हिन्दू ग्रंथों को पढ़ना होगा, समझना होगा। इस संस्कृति को मानने वाले अंतिम छोर के व्यक्ति की श्रद्धा को भी समझना ज़रुरी है। केवल फ़िल्मे देखकर खुद को तीस मार खां समझ लेना मज़ाक मात्र से ज्यादा नहीं है।

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