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अभिव्यक्ति की आज़ादी कुछ को बहुत ज्यादा, तो कुछ को बहुत कम मिलती है: जस्टिस बोबडे

Abhinav Kumar द्वारा Abhinav Kumar
1 November 2019
in मत
अभिव्यक्ति की आज़ादी

PC: https://th.thgim.com

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जस्टिस एस ए बोबडे देश के अगले चीफ जस्टिस होंगे। मौजूदा चीफ जस्टिस रंजन गोगोई का कार्यकाल 17 नवंबर 2019 को खत्म हो रहा है। इसके अगले दिन यानी 18 नवंबर को बोबडे का शपथ ग्रहण होगा। शरद अरविंद बोबडे ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर कहा है कि इसके दो पक्ष हैं। उन्होंने कहा कि कुछ ऐसे लोग हैं, जो सार्वजनिक तौर पर और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर कुछ भी कहकर बच निकलते हैं। तो कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें अपनी अभिव्यक्ति के चलते हमलों का शिकार होना पड़ता है। बोबडे ने अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया से बातचीत में कहा, ‘यह विवाद स्पष्ट है। कुछ लोगों को अभिव्यक्ति की काफी आजादी है। ऐसा दौर कभी नहीं रहा, जब कुछ लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी का कोई दायरा तय रहा हो।’ उन्होंने कहा कि दूसरी तरफ कुछ लोगों को बिना कहे ही समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

जस्टिस बोबडे का यह बयान ऐसे समय आया है जब देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए चल रही वाद-विवाद अब एक वैचारिक लड़ाई बन चुकी है। एक वर्ग अपने आप को देश का कर्ता-धर्ता मानती है और विचारों, मीडिया और निर्णयों पर अपना प्रभुत्व रखने का प्रयास करती है। वहीं दूसरा वर्ग समाज में अपने विचार रखने से भी घबराता है क्योंकि उसे सुनने वाला ही नहीं है। अगर वह कुछ कहना भी चाहता है तो डर से नहीं कह पाता।

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हाल की एक दो घटनाओं को देखा जाए तो आपको भी ये स्पष्ट हो जायेगा। हाल की ही घटना में हम हिन्दूमहासभा के पूर्व अध्यक्ष कमलेश तिवारी का उदाहरण लेते हैं। उनके खिलाफ मौलानाओं ने कई फतवा जारी कर रखा था क्योंकि उनका एक बयान उन मौलानाओं को चुभ गया। सिर्फ फतवा ही नहीं जारी हुआ बल्कि उनका सिर कलम करने वाले को इनाम की भी घोषणा कर दी गयी। वर्ष 2015 में उनके खिलाफ लगभग 1 लाख मुस्लिम सड़क पर उतर गए और उन्हें फांसी की सज़ा देने की मांग करने लगे। इसके बाद मीडिया और लॉबी वर्ग अपने काम पर लग गया और इस तरह की रिपोर्टिंग की गयी कि कानून द्वारा उन्हें नेशनल सिक्यूरिटी  के एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया गया और सजा भी भुगतनी पड़ी।

इसी परिपेक्ष में दूसरे वर्ग की की गयी गलती का उदाहरण लेते हैं। वामपंथियों ने एक बार नहीं, हज़ार बार हिन्दू देवी देवताओं का न सिर्फ मज़ाक उड़ाया है बल्कि अपशब्द भी कहे और तिरस्कार तक किया है। जब रामायण के भगवान राम को माता सीता की अग्नि परीक्षा लेने के लिए “Misogynist” कहा गया तब इस आभिजात्य वर्ग ने चूपी साध ली। वहीं जब माँ दुर्गा को ‘वेश्या’ कह अपमान किया गया, तब भी इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी घोषित कर दिया गया। हालांकि, यह सच है कि इस वर्ग को रामायण जैसे ग्रंथ के बारे में तनिक भी ज्ञान नहीं हैं। लेकिन दोनों ही उदाहरणों में एक वर्ग अपने अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रयोग करता है तो उस पर नेशनल सिक्यूरिटी एक्ट लगा कर गिरफ्तार कर लिया जाता है। आखिर यह कैसा न्याय है? अभिव्यक्ति की आज़ादी की परिभाषा मौका परस्त कैसे हो सकता है?

इस आभिजात्य वर्ग  का अभिव्यक्ति की आजादी पर दोहरा मानदंड सिर्फ धार्मिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है। यह राजनीति में भी व्याप्त है। एक तरफ जहां ममता बनर्जी की फोटो को एडिट करने के लिए प्रियंका नाम की बीजेपी युवा नेता को गिरफ्तार कर लिया जाता है तो वहीं, दूसरी ओर अफजल गुरु का बरसी मनाने वाले बुरहान वानी को हेडमास्टर का बेटा कहना, अभिव्यक्ति की आज़ादी बता ढ़ोल पिता जाता है। यहाँ तक की प्रधानमंत्री तक को भी नहीं छोड़ा जाता और उन्हें भी मौत का सौदागर कह दिया जाता है।

इससे यही स्पष्ट होता है कि आभिजात्य वर्ग की लॉबी इतनी मजबूत है कि वह किसी विषय या कार्य के असहिष्णुता का निर्णय खुद लेती है। वह लोगों को यह बताती है कि क्या फ्री स्पीच है और क्या फ्री स्पीच नहीं है। इन निर्णयों से उनका सिर्फ अपना राजनीतिक और वैचारिक लक्ष्य प्राप्त करना एकमात्र उद्देश्य है।

अब सवाल यह है कि आखिर एक युवा जो अभी वैचारिक रूप से राजनीति को समझने की कोशिश कर रहा है उसे कैसे सच का पता चलेगा? वह यह निर्णय कैसे ले पाएगा कि किसे अभिव्यक्ति की आज़ादी कहते है? कमलेश तिवारी, ध्रुव त्यागी जैसे लोगों का हश्र देख कर क्या उसके मन में डर पैदा नहीं होगा? अगर वह भी अपने विचार को रखना चाहता होगा तो क्या वह रख पाएगा? नहीं कभी नहीं! इस अभिव्यक्ति की आज़ादी की परिभाषा में असंतुलन को देख वह अवश्य ही अपने कदम पीछे खींच लेगा। उसके सामने कमलेश तिवारी के गले की तस्वीर अवश्य आ जाएगी। वह समाज में अपना विचार रखना चाहेगा लेकिन उस बर्बरता और फिर गिद्ध बुद्धिजीवियों द्वारा हमले को सोच कर उसकी हलफ सुख जाएगी। और वह वापस अपनी जगह जा बैठेगा।

आज धीरे-धीरे ही सही पर दृश्य बदल रहा है और जब तक अभिव्यक्ति की आज़ादी सभी वर्गों को समान रूप से नहीं मिलता तब तक देश में असहिष्णुता बनी रहेगी। अब जब जस्टिस बोबडे ने इंटरव्यू में इस असंतुलन को स्पष्ट कर दिया है तो हम उम्मीद करते हैं कि इस असंतुलन को कम करने के दिशा में कदम उठाएंगे ताकि जो सभी को बराबर का मौका दे।

Tags: एस ए बोबडेचीफ जस्टिससुप्रीम कोर्ट
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