रूस-यूक्रेन विवाद में तनाव की एक बड़ी वजह यूक्रेन में रह रहे रूसी मूल के लोग भी है। यूक्रेन का जो पूर्वी हिस्सा है, वहां रूसी मूल के लोगों की संख्या काफी ज्यादा है। इन लोगों ने यूक्रेन में बढ़ती रूस विरोधी भावनाओं का विरोध किया, जो पूर्वी यूक्रेन और पश्चिमी यूक्रेन के बीच टकराव की वजह बन गया। पूर्वी यूक्रेन के रूसी मूल के लोगों ने राष्ट्रवाद के ऊपर अपनी निजी अस्मिता को रखा। इन लोगों ने रूसी सेना की मदद से पूर्वी यूक्रेन के डोनेट्स्क (Donetsk) और लुहान्स्की (Luhansk) में सशस्त्र विद्रोह किया। इतना ही नहीं, यहां के अहम सरकारी इमारतों पर कब्जा भी जमा लिया। रूसी मूल के विद्रोही यूक्रेन की सेना पर भारी पड़े और पूर्वी यूरोप का यह हिस्सा धीरे-धीरे विद्रोहियों के अधीन हो गया। इसी हिस्से को युद्ध के कुछ दिन पहले ही रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अलग देश की मान्यता दे दी थी।
हालांकि, सिर्फ राष्ट्रीय अस्मिता और सांस्कृतिक अस्मिता के बीच टकराव रूस-यूक्रेन झगड़े की एकमात्र वजह नहीं है। हमले के लिए रूस ने यूक्रेन पर यह आरोप लगाया कि वह पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंध प्रगाढ़ कर रूस की सुरक्षा को खतरे में डाल रहा था। NATO में शामिल होकर यूक्रेन पश्चिमी देशों की सेनाओं को रूस की सीमा तक लाने वाला था। रूस द्वारा पूर्व में अमेरिका पर यह आरोप भी लगाए गए थे कि अमेरिका सोवियत संघ में शामिल रहे और अब स्वतंत्र हो चुके देशों में रूस विरोधी भावनाओं को भड़काने के लिए एनजीओ को फंड करता है।
यूक्रेन में रहने वाले रूसी मूल के लोग भूल गए देशप्रेम!
वहीं, दूसरी ओर यूक्रेन को पूरा अधिकार है कि वह किसी देश से अपने संबंधों को मजबूत करे। दोनों देशों के अपने तर्क हैं लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि जैसे ही रूस ने यूक्रेन पर हमले की योजना बनाई वैसे ही यूक्रेन में रहने वाले रूसी मूल के लोग अपने देशप्रेम को भूल गए और रूस की चाकरी करने में लग गए। राष्ट्रीय अस्मिता ज्यादा अहम है या सांस्कृतिक पहचान, इस सवाल पर भारत को भी गौर करना चाहिए। वर्ष 1947 में भारतीय मुसलमानों ने राष्ट्रीय अस्मिता से ज्यादा महत्व अपनी मजहबी पहचान को दिया, जिसका परिणाम विभाजन के रूप में सामने आया! मुसलमानों में मजहबी पहचान को राष्ट्रीय अस्मिता के ऊपर रखने की प्रवृत्ति पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देखी गई। यही वजह थी कि वर्ष 1924 में महात्मा गांधी ने अपने एक लेख में ये तक लिख दिया कि हिंदू इस बात के लिए आश्वस्त नहीं हो सकता कि कल को अफगान या ईरानी सेना भारत पर हमला करे, तो भारतीय मुसलमान किसके पक्ष में खड़े होंगे। गांधी द्वारा उठाए गए ऐसे सवाल आज भी उनके संकलित कार्यों का हिस्सा हैं।
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सर्वोपरि होनी चाहिए राष्ट्रीय अस्मिता
कश्मीर में इस्लामीकरण की सनक ने ही अलगाववाद को जन्म दिया। भारत में बंगाली, तमिल, पंजाबी आदि क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान कभी-कभी राष्ट्रीय पहचान पर हावी होने लगती है। छोटे बड़े रूप में यह प्रवृत्ति भारत के हर हिस्से में देखने को मिलती है। मराठियों द्वारा दक्षिण भारतीय और उत्तर भारतीयों पर किए गए हमले इसी प्रवृत्ति का परिणाम प्रतीत होते हैं। ऐसी ही प्रवृत्तियों का तो दुश्मन देश फायदा उठाते हैं और इस टकराव का लाभ उठाकर छोटे बड़े स्तर पर हिंसा कराते हैं। कश्मीर पाकिस्तानी सीमा से सटा है, ऐसे में वहां सांस्कृतिक पहचान पहले अलगाववाद में बदला और फिर अलगाववाद आतंकवाद के रूप में बदलता दिखाई दिया। अगर भारतीय अपनी क्षेत्रीय और संकीर्ण मानसिकता को राष्ट्रवाद की भावना पर हावी होने देंगे, तो भारत में लगभग हर स्तर पर छोटे बड़े कश्मीर का जन्म होगा!
राष्ट्रवाद की यह परिभाषा कि वह एक भूभाग में रहने वाले लोगों के सांस्कृतिक पहचान के आधार पर बनने वाली एक इकाई है, बेहद ही संकीर्ण सोच का नतीजा है। यह यूरोपीय राष्ट्रवाद है। इसी कारण यूरोप में राष्ट्रवाद के नाम पर पिछले 300 सालों में निरंतर खून बहा। इसी संकीर्ण मानसिकता ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद और नाजी जर्मनी जैसे विध्वंसकारी विचारों को पैदा किया। जहां तक भारतीय राष्ट्रवाद की बात करें, तो भारतीय राष्ट्रवाद इतना संकीर्ण नहीं होना चाहिए कि वह क्षेत्रीय पहचान के आधार पर बने और बिगड़े। बिगड़ना तो दूर हमें क्षेत्रीय पहचान के आधार पर राष्ट्रीय अस्मिता को प्रभावित भी नहीं होने देना चाहिए।
भारतीय राष्ट्र एक सांस्कृतिक पहचान, जो भारत के साथ 5000 वर्ष या उससे भी पहले से जुड़ी हुई है, उसके आधार पर एक इतिहास जो हमारे समान संघर्ष की कहानी कहता है, जिसमें सिखों का बलिदान, मराठों का साहस और अहोमों का शौर्य आदि सबकुछ शामिल है, जिसमें पृथ्वीराज से लेकर कृष्णदेव राय तक सारे ही नायक एकसमान पूजनीय हैं, उनसे हमारी पहचान होनी चाहिए न कि बंगाली, मराठी, तमिल, तेलगु जैसी क्षेत्रीयता से हमारी पहचान हो।
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