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सिंधुदुर्ग किला: मराठा साम्राज्य का अभेद्य गढ़, जहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता था

सिंधुदुर्ग किला एक ऐतिहासिक किला है, जिसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने बनवाया था। किले का बाहरी दरवाजा इस प्रकार बनाया गया है जहां सुई तक अंदर नहीं जा सकती। कैसे कहीं न कहीं इसने आधुनिक भारतीय नौसेना की भी नींव रखी?

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
20 November 2022
in प्रीमियम
सिंधुदुर्ग किला, Sindhudurg Fort – A crucial naval asset that also laid base for the modern Indian Navy

Source- TFI

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आचार्य चाणक्य की नीति से कौन परिचित नहीं? एक समय कुछ लोग उनसे मिलने जब आए, तो उन्होंने अपने मार्ग का विवरण करते हुए बताया, “आपके पास पहुंचने में हम लोगों को बहुत कष्ट हुआ। आप महाराज से कहकर यहां की जमीन को चमड़े से ढकवाने की व्यवस्था करा दें। इससे लोगों को आराम होगा”। उनकी बात सुनकर आचार्य मुस्कराते हुए बोले, “वत्स, कंटीले व पथरीले पथ तो इस विश्व में अनगिनत हैं। ऐसे में पूरे विश्व में चमड़ा बिछवाना तो असंभव है। हां, आप लोग चमड़े द्वारा अपने पैरों को सुरक्षित कर लें तो अवश्य ही पथरीले पथ व कंटीली झाड़ियों के प्रकोप से बच सकते हैं”। वह व्यक्ति उनका आशय अविलंब समझ गया और कहीं न कहीं ये नीति सिंधुदुर्ग के अद्वितीय गढ़ के निर्माण में झलकती भी है। टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत हैं। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे सिंधुदुर्ग किला मराठा साम्राज्य के सूझबूझ का अद्वितीय उदाहरण है और कैसे कहीं न कहीं इसने आधुनिक भारतीय नौसेना की भी नींव रखी?

“हे हिंदवी स्वराज्य श्री हरिची इच्छा” अर्थात भारत में स्वराज्य ही हरी की इच्छा हो। ऐसे स्पष्ट विचार जिस योद्धा के हो, तो सोचिए किस उद्देश्य के अंतर्गत छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके मावड़े लड़े होंगे। इसी का एक प्रतिबिंब है सिंधुदुर्ग का गढ़।

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सिंधुदुर्ग किला और वीर शिवाजी

कभी पांडवों और चालुक्य वंश का प्रतीक रहा सिंधुदुर्ग एक खंडहर बन चुका था, परंतु इसे एक नौसेना के गढ़ के रूप में पुनः स्थापित करने में मराठा योद्धाओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्तमान महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले के मालवण तहसील में स्थित सिंधुदुर्ग किला मराठा और भारतीय नौसेनिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

ये छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा बनवाया गया प्रथम समुद्री क़िला था और इसके निर्माण में उन्होंने निजी तौर पर भी हिस्सा लिया था। ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ मराठा नेवी एंड मर्चेंटशिप्स (1973)’ में डॉ. बी.के.आप्टे बताते हैं कि 48 एकड़ ज़मीन में फैले इस क़िले में 32 अर्ध-गोलाकार मीनारों से सजे 53 बुर्ज हैं, जिन्हें गोलाबारी के लिए इस्तेमाल किया जाता था। इसके उत्तर-पूर्वी दिशा से आवाजाही होती थी। दीवारें 12 फ़ुट चौड़ी और 30 फ़ुट ऊंची रखी गईं थीं, ताकि दुश्मनों और अरब सागर की लहरों से भी बचाव हो सके। कुल मिलाकर रणनीतिक एवं सामरिक रूप से ये एक कुशल और भव्य दुर्ग था। इसके अलावा यहां पर महादेव और जरिमई आदि मंदिर भी मौजूद हैं।

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परंतु मराठा साम्राज्य का इस स्थान से क्या नाता? उन्हें इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी?

सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते एक तरफ़ भारतीय उपमहाद्वीप में पुर्तगालियों के अलावा अनेक यूरोपीय ताक़तें अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए आपस में लड़ रही थीं, तो दूसरी तरफ़ दक्खन के पठारों में छत्रपति शिवाजी महाराज के नेतृत्व में मराठों का उदय भी हो रहा था। ये उनका ही कमाल था कि आदिल शाही और यहां तक कि मुग़ल इस क्षेत्र में कमज़ोर होते जा रहे थे।

इस दौरान शिवाजी महाराज ने विदेशी ताक़तों के ख़तरे को भांपते हुए अपनी एक सशक्त नौसेना का गठन करने का अभियान भी प्रारंभ कर दिया, जिसके अंतर्गत उन्होंने न केवल कई समुद्री क़िलों पर कब्जा किया, बल्कि कुछ का निर्माण भी करवाया। उन्हीं क़िलों में सबसे पहला क़िला सिंधुदुर्ग था। ये दो नामों को जोड़कर बनाया गया है: सिन्धु (समुद्र) और दुर्ग (क़िला)।

इसी परिप्रेक्ष्य में केस्टॉड पैरासाईट्स ऑफ़ मरीन फ़िशेस ऑफ़ सिंधुदुर्ग रीजन (2019)’ में डॉ.समीर भीमराव पाटिल ने प्रकाश डालते हुए बताया हैं कि कैसे क़िले के निर्माण हेतु शिवाजी को ‘कुरते बेत’ (मराठी में द्वीप) पसंद आया था जो विदेशी ताक़तों और मुरुड-जंजीरा के सिद्दी लड़ाकों पर निगरानी रखने के लिए उपयुक्त स्थान था।

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कान्होजी आंग्रे ने किया नेतृत्व

शाही वास्तुकार हिरोजी इंदुलकर के सुझाव के अनुसार 25 नवंबर 1664 को सिंधुदुर्ग किला पर कार्य प्रारंभ हुआ और उन्होंने क़िले के निर्माण के लिए गोवा से पुर्तगाली इंजीनियर बुलवाए थे। स्वयं शिवाजी महाराज ने भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था और शायद यही कारण है कि यहांं दो अलग-अलग जगहों में इनके हाथ और पांव की छाप आज भी देखी जा सकती है। क़िले के क़रीब ही पांडवगढ़ एक चौकी की तरह था। वहां शिवाजी के जहाज़ों का निर्माण और मरम्मत का काम हुआ करता था। मतलब यूरोपीय शिल्पकारों और उन्हीं से कार्य करवाकर उन्हीं के अत्याचारों के विरुद्ध शिवाजी राजे ने एक कुशल नौसेना तैयार की, जिसका बाद में सारखेल कान्होजी आंग्रे जैसे महानायकों ने नेतृत्व किया था।

अब ये कौन बंधु हैं? ये मत पूछिए, ये पूछिए कि ये क्या करते और कहां कहां उत्पात मचाते।

कान्होजी ने 18वीं शताब्दी के दौरान भारत के तटों पर ब्रिटिश, डच और पुर्तगाली नौसेनाओं के विरुद्ध अनेक युद्ध लड़े और विजयी भी रहे। वे आयुपर्यंत अपराजित रहे। परंतु वे इतने तक सीमित नहीं रहे, आंग्रे भाऊ तो उनके जहाज़ों को जब मन चाहे तब उठवा लेते थे, मानो सुबह का नाश्ता कर रहे हो। हम मज़ाक नहीं कर रहे। कान्होजी आंग्रे यूरोपीय आक्रांताओं, विशेषकर अंग्रेजों को चिढ़ाने के लिए यह अनोखी रणनीति भी अपनाते थे, जिसके लिए उन्हें समुद्री दस्यु यानी पाइरेट तक कहा जाने लगा। प्रारंभ में ये रणनीति उन्हें प्रिय नहीं थी, परंतु अंत में उन्हें स्मरण हुआ- साम दाम, दंड, भेद – अर्थात युद्ध में सब उचित है।

उदाहरण के लिए कान्होजी ने भारत के पश्चिमी तट पर ग्रेट ब्रिटेन और पुर्तगाल जैसी नौसेना शक्तियों पर हमले तेज कर दिए। 4 नवंबर 1712 को उनकी नौसेना ने अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करते हुए बॉम्बे के ब्रिटिश गवर्नर विलियम एस्लाबी के सशस्त्र नौका अल्जाइन पर नियंत्रण प्राप्त किया एवं उनके करवार कारखाने के प्रमुख थॉमस चाउन को मार डाला और उनकी पत्नी को कैदी बना लिया। वो महिला 13 फरवरी 1713 तक 30,000 रुपये की फिरौती मिलने तक बंदी बनी रही। महिला की रिहाई पहले से ब्रिटिश द्वारा अवैध नियंत्रण वाली भारतीय भूमि की वापसी सुनिश्चित सहित कराई गई। उन्होंने गोवा के पास ईस्ट इंडियन, सोमरस और ग्रन्थम को जब्त कर लिया क्योंकि ये जहाज इंग्लैंड से बॉम्बे तक जाते थे।

अब यहां सिंधुदुर्ग से अब एक सुई भी घुस जाता, तो मराठा साम्राज्य के लिए आश्चर्य की बात होती और इसी रणनीतिक निर्णय ने आगे चलकर आधुनिक भारतीय सेना की नींव रखी, जिसके लिए वर्तमान भारतीय प्रशासन उसे उसका उचित श्रेय भी देती है।

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