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बिहार के लिच्छवी से लेकर तमिलनाडु के उत्तरमेरूर तक, प्राचीन भारत में विद्यमान था लोकतंत्र और गणतंत्र: चीन वाले बताते थे ‘स्वर्ग का केंद्र’

भारत के बाहर भी भारतीय गणतांत्रिक व्यवस्था की प्राचीनता को स्वीकार किया जाता रहा है। प्राचीन चाइनीज में भारत को 'Tian Zhou' नाम से उल्लिखित किया गया है।

architsingh द्वारा architsingh
20 December 2024
in इतिहास, ज्ञान
लोकतंत्र, गणतंत्र, प्राचीन भारत का इतिहास

वैशाली के लिच्छवी, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह आदि प्रमुख गणतंत्र थे

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आजकल देश में चाय की दुकान से लेकर संसद तक संविधान की चर्चा सुनी जा सकती है, कारण है भारतीय संविधान के 75 वर्ष पूरे होना। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि भारतीय गणतंत्र की आत्मा कहा जाने वाला हमारा लिखित संविधान भले ही 75 वर्ष का हो किन्तु जब हम अपने अतीत को देखते हैं तो सभी गणतांत्रिक मूल्य हमें प्राचीन भारत में परिलक्षित होते हैं। भारत में लोकतंत्र एवं गणतंत्र का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है।

हालाँकि, कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी आज भी अंग्रेजी मानसिकता के चलते यह मानते हैं कि भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों एवं अवधारणाओं का विकास 1215 ई. में जारी किए गए इंग्लैंड के कानूनी परिपत्र मैग्ना कार्टा से हुआ है। इसी संदर्भ में आज हम भारत में गणतांत्रिक व्यवस्था की प्राचीनता पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे।

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प्राचीन भारत में लोकतंत्र/गणतंत्र का इतिहास

प्राचीन भारत के इतिहास को सिलसिलेवार ढंग से देखें तो वैदिक काल से ही गणतांत्रिक व्यवस्था दिखाई देती है। वैदिक साहित्य में समिति एवं सभा का उल्लेख इसका प्रमाण है। वैदिक काल में राजा का निर्वाचन समिति में एकत्रित होने वाले लोगों द्वारा किया जाता था। समिति आम जनमानस का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था थी। परिचर्चा एवं सभी की सहमति से ही निर्णय लिए जाते थे। वहीं सभा में वृद्ध एवं अनुभवी लोगों का विशेष स्थान प्राप्त होता था तथा यह समिति के अधीन कार्य करती थी। यह चयनित लोगों की एक स्थायी संस्था थी। वैदिक वाङ्गमय का अध्ययन करने पर हमें ज्ञात होता है कि राजा को राजपद प्राप्त करने से पूर्व राष्ट्र के विभिन्न अंगों की अनुमति प्राप्त करनी पड़ती थी, वह राष्ट्र के भिन्न–भिन्न स्थानों की मिट्टी, जल, वर्ण, वायु, पर्वत और संपूर्ण प्रजा का प्रतिनिधित्व करता था।

स्पष्ट है उसका निरंकुश होना असम्भव था। उसे मंत्रिपरिषद के परामर्श, स्वीकृति और प्रजा के कल्याण की भावना से ही कार्य संपादित करना होता था। यहाँ तक कि उसके पुनर्निर्वाचन की भी निश्चित प्रक्रिया और व्यवस्था थी। यहाँ इसका उल्लेख करना भी आवश्यक है कि समिति एवं सभा की सदस्यता जन्म आधारित नहीं अपितु कर्म आधारित थी। संविधान सभा में हुई डिबेट्स के दौरान डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी इस सम्बंध में कहा था, “गणतांत्रिक व्यवस्था इस देश के लिए कोई नया प्रयोग नहीं है। ये इतिहास के आरम्भ काल से भारत की व्यवस्था में थी“।

वैदिक काल के पश्चात बौद्ध एवं जैन साहित्य का अध्ययन करने पर हमें ज्ञात होता है कि महावीर जैन एवं बुद्ध के काल में भारत के उत्तर–पूर्वी भाग में अनेक गणराज्य थे। उदाहरणार्थ इनमें वैशाली के लिच्छवी, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह आदि प्रमुख थे। इनमें से वैशाली का लिच्छवी सर्वाधिक प्रतिष्ठित था। इसके ऐतिहासिक प्रमाणों को नकारा नहीं जा सकता। जून 2018 में भारत रत्न पूर्व राष्ट्रपति ने भी आरएसएस मुख्यालय पर यह कहा था कि “भारत ही लोकतंत्र का मूल है और वैशाली का गणराज्य ही विश्व का पहला गणराज्य है“।

दक्षिण भारत में भी थी गणतांत्रिक व्यवस्था

द्वितीय शताब्दी ई. के बौद्ध ग्रंथ ‘अवदानशतक’ में भी दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में गणों के होने की जानकारी मिलती है तो जैन ग्रन्थ ‘आचरंगसूत्र‘ में भी गणतंत्र के शासन की बात कही गयी है। संविधान निर्माता कहे जाने वाले डॉ. अम्बेडकर ने भी बौद्ध संघों का उल्लेख करते हुए कहा कि “लोकतंत्र की अवधारणा भारत के लिए कोई बाहर की अवधारणा नहीं है। एक समय था जब भारत में कई गणराज्य हुआ करते थे“।

दसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में चोल साम्राज्य के दौरान उत्कीर्णित कांचीपुरम के उत्तरमेरूर के शिलालेखों से तत्कालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था के विभिन्न पक्षों एवं कार्य–प्रणालियों की व्यापक तथा प्रामाणिक जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। इनमें उम्मीदवारों की अर्हता हो या उनके चयन एवं मतदान की प्रक्रिया, कार्यों का निर्धारण तथा विभाजन हो या निर्वाचित उम्मीदवारों को वापस बुलाने के नियम आदि विस्तार से उल्लिखित हैं। तत्कालीन चुनाव–प्रक्रिया में यदि शुचिता की बात करें तो यह उल्लिखित है कि उम्मीदवारों की अनिवार्य अर्हताओं में से एक था उनका अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा करना। आज भी यह एक अनिवार्य अर्हता ही है।

यहाँ ध्यान देने की आवश्यकता है कि इंग्लैंड के मैग्ना कार्टा से भी कई वर्ष पूर्व कर्नाटक के प्रसिद्ध कवि, दार्शनिक, समाज–सुधारक एवं लिंगायत संप्रदाय के संस्थापक भगवान बसवन्ना ने अनुभव मंडप की स्थापना की। इसे भारत की पहली और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संसद के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह एक प्रकार का सार्वजनिक मंच था, जहाँ समाज के सभी वर्गों के लोग आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक मुद्दों पर विचार– विमर्श कर निष्कर्ष तथा समाधान तक पहुँचने का प्रयास करते थे।

चीन बताता था ‘स्वर्ग का केंद्र’, मेगस्थनीज ने भी किया गणतंत्र का वर्णन

इस तरह से अनेक ऐसे प्रमाण हमें मिलते हैं जो यह सत्यापित करते हैं कि भारत में प्राचीन काल से ही लोकतंत्र न सिर्फ मौजूद था बल्कि भारत भूमि ही लोकतंत्र की जननी है। भारत के बाहर भी भारतीय गणतांत्रिक व्यवस्था की प्राचीनता को स्वीकार किया जाता रहा है। प्राचीन चाइनीज में भारत को ‘Tian Zhou’ नाम से उल्लिखित किया गया है। चीनी भाषा के शब्दकोश में इस शब्द का अर्थ स्वर्ग का केंद्र बताया गया है। मध्य पूर्व में हुए आठवीं–दसवीं शताब्दी के बड़े–बड़े लेखक इब्न–ए–असीर, इब्न–ए–खल्दूम आदि ने भी भारत के विषय में इस बात को स्वीकार किया है। 

भारत की यात्रा करने वाले मेगस्थनीज ने भी अपने यात्रा–वृत्तांत में लिखा है कि उस समय भारत के अनेक प्रांतों–नगरों में गणतंत्रात्मक शासन प्रचलित था। भारत की संस्कृति ऐसी रही है कि यहाँ वाद-विवाद और शास्त्रार्थ की परंपरा थी, ऐसे में शासन में तानाशाही प्रवृत्ति के लिए कोई जगह रही होगी ये सोचना भी वास्तविकता से दूर होगा।

1999-2000 में फ्रीडम हाउस द्वारा राजनीतिक अधिकारों एवं नागरिक स्वतंत्रता का वार्षिक सर्वेक्षण प्रकाशित किया गया जिसमें विश्व में धार्मिक मान्यताओं का लोकतंत्र से सम्बन्ध बताते हुए पृष्ठ संख्या 10 व 11 पर उदधृत है कि “चुनावी लोकतंत्र और हिंदू धर्म (भारत, मॉरीशस और नेपाल) के बीच भी एक मजबूत संबंध है, इसमें आगे कहा गया है कि पारंपरिक रूप से बौद्ध समाजों और उन देशों में जहां बौद्ध धर्म में सबसे व्यापक आस्था है (जापान, मंगोलिया, ताइवान और थाईलैंड) में स्वतंत्र देशों की संख्या काफी अधिक है“।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि भारत में गणतांत्रिक व्यवस्था नई नहीं थी। आज विभिन्न धार्मिक मान्यताओं, अनेक भाषाओं तथा बोलियों वाले राष्ट्र में लोकतंत्र यदि सुदृढ़, जीवंत व गतिशील है तो उसका श्रेय निश्चित रूप भारत की प्राचीनतम गणतांत्रिक व्यवस्था को ही जाता है। भारतीय लोकतंत्र की जड़ें इतनी गहरी और व्यापक हैं कि भारत के बाहर भी यूरोप से लेकर पश्चिमी देशों ने भी इस बात को स्वीकार किया है, भले ही आज किसी खास प्रोपेगेंडा के तहत इन तथ्यों को अलग ढंग से पेश किया जाए। भारत के इतिहास में लोकतंत्र और गणतंत्र निहित है, ये हमारे DNA में है।

स्रोत: Ancient India, प्राचीन भारत, इतिहास, History, लोकतंत्र, Democracy, गणतंत्र, Republic
Tags: Ancient IndiaDemocracyHistoryRepublicइतिहासगणतंत्रप्राचीन भारतलोकतंत्र
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अरुणाचल प्रदेश के वनवासियों को धर्मांतरण से बचाने वाले तालोम रुकबो: एक भूले-बिसरे नायक की कहानी

1 December 2025

कुछ ऐसे राष्ट्रनायक हुए हैं, जिनके योगदान को सामने लाने में इतिहास ने हमेशा कोताही बरती है। अरुणाचल प्रदेश के तालोम रुकबो भी उन्ही में...

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