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‘मूर्ति पूजक है हिंदू धर्म, बाकी धर्मों में ये सब नहीं होता’, अबतक की सबसे बड़ी फेक न्यूज है

मूर्ति पूजा को लेकर आपने बहुत सारी बाते सुनी होंगी, अब यहां सच्चाई भी जान लीजिए!

Prashant Srivastava द्वारा Prashant Srivastava
22 September 2022
in संस्कृति
मूर्ति पूजा

Source- TFI

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हिंदू धर्म एक ऐसा धर्म है जो हजारों वर्षों से जीवित है। इसकी उत्पत्ति सनातन सभ्यता से मानी जाती है। यह एक ऐसा धर्म है जिसने भारतीय उपमहाद्वीप में जन्म लिया और भारतीय संस्कृति को आकार दिया। हिंदू धर्म न केवल एक धर्म है बल्कि बहुसंख्यक भारतीयों की एक अभिन्न पहचान भी है। लेकिन हिंदू धर्म एक ऐसी पवित्र अवधारणा है जिसे कई लोग, जिनमें खुद को ‘हिंदू’ कहने वाले भी शामिल हैं अक्सर इस शब्द का वास्तविक अर्थ नहीं समझते हैं। वे हिंदू धर्म को धर्म मानते हैं, उसमें विख्यात हो गई प्रथाओं के आधार पर उसे सही एवं ग़लत का प्रमाण देते हैं किंतु उन्हें न तो अपनी संस्कृति का ज्ञान है और न ही अपनी सभ्यता का।

बहुत से लोग आपको हिंदू धर्म के आडंबरों की बाते करते हुए मिल जाएंगे। मूलतः वह मूर्ति पूजा को लेकर भिन्न भिन्न बाते करते हैं किंतु मूर्खता के क्रम में वे ऐसे हास्यापद और नीच बातें करते हैं कि वह व्यक्ति जो हिंदू धर्म के बारे में जानकारी रखता है उसका क्रोधित होना स्वाभाविक लगता है। हिंदू अपने धर्म को सनातन धर्म (सनातन धर्म) कहते हैं। ईसाई और इस्लाम की तरह हिंदू धर्म का कोई एक संस्थापक नहीं है और इसकी उत्पत्ति दर्ज इतिहास से भी पुरानी मानी जाती है। सिंधु घाटी सभ्यता में कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जो या तो हिंदू धर्म का हिस्सा हैं या फिर इसे प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, प्रोटो शिव मुहर, देवी मां की टेराकोटा मूर्तियां, स्वास्तिक, जानवरों की पवित्र छवियां आदि जो आज हिंदू धर्म के अंग हैं। ऐसे में यह माना जाता है कि उस समय भी किसी न किसी रूप में हिंदू धर्म मौजूद था।

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ऐसा माना जाता है कि हिंदू धर्म की शुरुआत वैदिक संस्कृति से संगठित तरीके से हुई क्योंकि उसी समय हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथ वेदों की उत्पत्ति हुई। तात्पर्य है कि हिन्दू धर्म का प्रथम साहित्यिक प्रमाण हमें वैदिक काल में मिलता है। ऐसे में यह स्पष्ट है कि हिंदू धर्म का कोई एक संस्थापक नहीं है और इसकी उत्पत्ति की कोई विशिष्ट तिथि नहीं है।  इसी क्रम में हिंदू जीवन पद्धति में भक्ति की बहुत सी धारायें विकसित हुई। हमें वैष्णव, शैव , शक्ति, जैन, वेदांत इत्यादि धाराएं प्रमुख रूप से हमें देखने को मिलती है। हिंदू धर्म के प्रति अज्ञानता रखने वाले इसे मात्र मूर्ति पूजन से जोड़ते है और इसकी आड़ में हिंदू धर्म को बहुत भला बुरा कहते हैं, किंतु अपनी अज्ञानता में चूर वे मूर्ख यह नहीं जानते कि लोगों को ईश्वर से जुड़ने की जितनी स्वच्छंदता हिंदू धर्म देता है उतना कोई अन्य धर्म नहीं देता।

और पढ़ें: साम्यवादी, इस्लामी, रूपांतरण माफिया प्रभावित केरल में केवल आदि शंकराचार्य ही हिंदू धर्म की समीक्षा कर सकते हैं

हिंदू धर्म इतनी स्वतंत्रता किसी धर्म में नहीं है

हिंदू धर्म मानने वाले व्यक्ति के पास यह अधिकार होता है कि वह चाहे तो ईश्वर को माने या चाहे तो न माने। हिंदू धर्म स्वयं में आस्तिकता एवं नास्तिकता दोनों को समेटे हुए है। साथ ही साथ सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की भक्ति को स्वीकार भी करता है। वस्तुतः हिंदू धर्म कहता है कि कण कण में ईश्वर है, इस धर्म के अनुयायियों के ऊपर अन्य धर्म की भांति किसी भी प्रकार की बाध्यता नहीं होती है। वे चाहे तो शिव जी को माने, विष्णु जी को माने चाहे वेदांत को माने या चाहे तो उपनिषदों को माने। इन सब के अलावा हिंदू धर्म एक मात्र धर्म है, जो नास्तिकता को न सिर्फ़ स्वीकार करता है अपितु उनको बराबर का सम्मान भी देता है। अन्य किसी धर्म में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। यदि बात करें हम इस्लाम की तो इस्लाम के अंदर जो व्यक्ति इस्लाम को नहीं मानता उसे काफिर की श्रेणी में रखा जाता है। साथ ही साथ ईसाई धर्म के मूल में भी यही है कि जो ईश्वर को नहीं मानता वह शैतान है। कुछ इसी प्रकार का प्रावधान यहूदियों में भी है।

एक उदाहरण के रूप में यदि हम यह देखें कि एक व्यक्ति पश्चिमी एशियाई देश में स्वयं को नास्तिक बताता है तो उसे अक्सर गंभीर औपचारिक और कुछ मामलों में अनौपचारिक कानूनी और सामाजिक यातनाओं का सामना करना पड़ता है। यही कारण है कि नास्तिक व्यक्ति शायद ही कभी अपने विश्वास को सार्वजनिक करते हैं क्योंकि उन्हें सऊदी अरब सहित कई देशों में जमकर यातनाएं दी जाती है। इतना ही नहीं, उन्हें आतंकवादियों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकांश मध्य पूर्व देशों में इस्लाम सार्वजनिक और निजी जीवन पर हावी है। यह तो रही स्वयं को शांति प्रिय कहने वाले इस्लाम की बात।

जो लोग हिंदू धर्म को मूर्ति पूजा तक ही सीमित रखते हैं, उन्हें शायद यह ज्ञात नहीं है कि हिंदू कहीं भी उठकर किसी भी मूर्ति की पूजा नहीं करने लगते हैं। वस्तुतः जब कोई भी मूर्ति स्थापित होती है तो एक विशेष प्रकार का अनुष्ठान किया जाता है, जिसे विग्रह के रूप में वर्णित किया जाता है। विग्रह के अंतर्गत प्राण प्रतिष्ठान किया जाता है, जिसमें मूर्तियों को सजीव रूप में देखा जाता है, उन्हें दूध से नहलाया जाता है, पूरे विधि अनुसार भोग लगाया जाता है, उनका श्रृंगार किया जाता है, जिससे वह प्रतिमा जीवंत जान पड़ती है और यदि फिर भी कोई इसे बुत परस्ती कहता है तो उसे अन्य धर्मों को भी ठीक से देख लेना चाहिए।

वस्तुतः इस्लाम मूर्ति पूजा का विरोध करता है किंतु क्या आपने कभी यह ध्यान दिया है कि वे जब मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं तो उनका मुख किस दिशा की ओर रहता है। ध्यान देने वाली बात है कि वो मक्का के काबा की ओर देखकर नमाज़ पढ़ते हैं। अब आप स्वयं ही सोचिए, एक ओर जहां हिंदू धर्म में पूरे रीति-रिवाज एवं अनुष्ठान के साथ मूर्ति स्थापित की जाती है तत्पश्चात उसकी आराधना की जाती है तो वहीं दूसरी ओर वे लोग जिनके धर्म में ही मूर्ति पूजा हराम है, उनकी मस्जिदों की दिशा ही काबा की ओर होती है ताकि प्रत्येक मुस्लिम काबा की दिशा की ओर देखकर नमाज़ पढ़े। ऐसे में कौन मूर्ति पूजा कर रहा है यह बताने की ज़रूरत नहीं है।

और पढ़ें: कम्युनिस्टों के बहिष्कार से ही संभव है हिंदू धर्म का विस्तार, नेपाल है इसका सशक्त उदाहरण

ईसाई भी वैसे ही आराधना करते हैं

इसी क्रम में हम ईसाई धर्म को देखें तो यदि आप गिरिजाघर गए हैं तो वहां आपने ईसा मसीह को पवित्र क्रॉस पर टंगे हुए ज़रूर देखा होगा। साथ ही मदर मैरी (मरियम) को भी देखा होगा। वस्तुतः जब ईसाई लोग प्रार्थना के क्रम में गिरिजाघर जाते हैं तो वे पवित्र क्रॉस एवं ईसा मसीह की ओर देखकर अपनी उपासना करते हैं। अब दिमाग़ पर ज़ोर डालिए और सोचिए यदि एक हिंदू जब मंदिर में जाकर अपने आराध्य की प्रतिमा की ओर देखकर प्रार्थना करता है, उसकी वंदना करता है तो उस पर कई प्रकार की टिप्पणी की जाती हैं किंतु वही अन्य धर्म के लोग उनके धर्म में बुत परस्ती निषेध होने के बावजूद इस प्रकार का कृत्य करते हैं, फिर भी उनपर किसी भी प्रकार की टिप्पणी नहीं की जाती है?

वस्तुतः इस प्रश्न का उत्तर भी आपको हिंदू धर्म में ही मिलेगा। हिंदू धर्म में जो सहिष्णुता विद्यमान है यह इसका मूल कारण है। हिंदू धर्म किसी भी अन्य धर्म को स्वयं से छोटा या बड़ा नहीं मानता, सनातनी कण-कण में ईश्वर के वास को मानते हैं। किंतु अन्य धर्म जैसे इस्लाम एवं ईसाईयत, इनका मूल विश्वास ही अलग है। वस्तुतः इनका मानना है कि सबसे ऊपर हमारा ईश्वर है और सबसे ऊपर हमारा धर्म है, अन्य सभी हमसे निम्न हैं और इस प्रकार का विश्वास टकराव पैदा करता है। अब यदि कोई इनके धर्म पर सवाल उठाए तो उसका “सर तन से जुदा” हो जाता है। अब ऐसे में उनके बारे में बोलकर कौन अपने प्राण संकट में डाले किंतु हिंदू धर्म के बारे में उन्हें बोलना है!

ध्यान देने वाली बात है कि हिंदू धर्म में इतनी सहिष्णुता है कि लोग एक ही ईश्वर को कई अलग रूप में पूजते हैं, कुछ अनुयायी स्वयं विष्णु जी को पूजते हैं, कुछ उन्हीं के अवतार भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम जी की पूजा करते हैं। इतना ही नहीं, कुछ क्षेत्र जैसे मथुरा के लोग कृष्ण के बालरूप को पूजते हैं और उन्हें कान्हा कहकर सम्बोधित करते हैं तो वहीं जगन्नाथ पुरी में कृष्ण जी, बलराम जी और सुभद्रा जी की पूजा भाई बहन के रूप में की जाती है। अब यदि आप द्वारका जाएं तो भगवान श्रीकृष्ण को द्वारकाधीश के रूप में पूजा जाता है। सहिष्णुता हिंदू धर्म का मूल है और यही इसकी अच्छाई भी है किंतु कुछ लोग जो बिना सोचे समझे इसपर सवाल खड़ा करते हैं उन्हें इस दुःसाहस से बचना चाहिए। वस्तुतः धर्म का मूल ही अस्तित्व को स्वीकार करना, मानवता, प्राणियों पर दया करना इत्यादि है। पूरे अनुष्ठान के साथ स्थापित मूर्ति तो मात्र ईश्वर से जुड़ने का एक साधन है और हिंदू धर्म प्रत्येक कसौटियों पर खरा उतरता है, जो इंसान को जानवर से सभ्य बनाने के क्रम में सहायक होता है।

और पढ़ें: निचली जाति के ईसाई, दलित सिख और निचली जाति के मुस्लिम: जानें गैर हिंदू धर्मों में क्या है जाति व्यवस्था का हाल

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Tags: इस्लामईसाईमूर्ति पूजाहिंदू धर्म
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