सत्यशोधक समाज सिद्धांत, उद्देश्य एवं प्रचार प्रसार
स्वागत है आपका आज के इस लेख में हम जानेंगे की सत्यशोधक समाज के बारे में साथ ही इससे जुड़े कुछ तथ्यों के बारें में भी चर्चा की जाएगी अतः आपसे निवेदन है कि यह लेख अंत तक जरूर पढ़ें.
सत्यशोधक समाज की स्थापना ज्योतिबा फुले ने 24 सितंबर 1873 को पुणे, महाराष्ट्र में की थी। यह एक सुधारवादी समाज था जिसने वंचित वर्गों में शिक्षा, सामाजिक अधिकारों, न्याय और राजनीतिक पहुंच को बढ़ावा दिया। इसका प्राथमिक उपदेश महाराष्ट्र में दलितों, शूद्रों और महिलाओं का उत्थान और समर्थन करना था। ज्योतिबा फुले की पत्नी सावित्रीबाई महिला वर्ग के लिए सामाजिक गतिविधियों का संचालन भी करती थीं।
सत्यशोधक समाज के सिद्धांत
किसी भी संगठन की प्रकृति उसके सिद्धांतों को मजबूती देती है। सत्यशोधक समाज की प्रकृति गैर-अभिजात्य और जनवादी थी। इसका प्रचार-प्रसार स्थानीय भाषा में किया जा रहा था ताकि लोग खुद को समाज से जोड़कर देख पाएं। हर संगठन के अपने उद्देश्य होते हैं जिन्हें पूरा करने के लिए लोग एक साथ आते हैं। सत्यशोधक समाज के भी अपने उद्देश्य थे, और यह सब उस समय में हो रहा था जब जाति व्यवस्था के खिलाफ़ किसी भी वर्ग से कोई व्यक्ति आवाज़ नहीं उठा रहा था बल्कि ब्राह्मणवाद के आगे नतमस्तक था। सत्यशोधक का समाज का सर्वोच्च उद्देश्य शोषित जातियों को शिक्षा दिलवाना था। शुद्र और अति शुद्रों को ब्राह्मणों के चंगुल से निकालकर उनमें चेतना पैदा करनी थी ताकि ब्राह्मण शूद्रों और अति शूद्रों को अपने अनुसार इस्तेमाल न कर पाएं।
महामना फुले का जीवन –
ज्योतिबा फुले का जन्म एक साधारण माली परिवार में पेशवाई का गढ़ कहे जाने वाले पुणे में हुआ था. पेशवाई शासक जातीय दंभ तथा अस्पृश्यों पर अत्याचार के लिए जाने जाते थे. शूद्रों और अतिशूद्रों को जातीय उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने के लिए फुले ने उन्हें संगठित होने और आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने की सलाह दी. अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले तथा अन्य सहयोगियों की मदद से उन्होंने कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की. लड़कियों का पहला स्कूल खोलने का श्रेय उन्हें ही है.
सत्यशोधक समाज की ऐतिहासिक भूमिका –
ज्योतिबा फुले के इस आंदोलन में उनके द्वारा स्थापित सत्य शोधक समाज की बड़ी भूमिका थी ज्योतिबा फुले के मरने के बाद उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने सत्य शोधक समाज के काम को आगे बढ़ाया वर्तमान समय में समाजशास्त्री गेल ऑम्वेट और रोजालिंड ओ हैनलॉन ने इस बारे में काफी विस्तार से लिखा है
जाति व्यवस्था को धार्मिक और आध्यात्मिक आधार देने वाले हिंदू धर्म से टकराए बगैर समाज में व्याप्त तरह-तरह की कुरीतियों का समाधान असंभव है, ज्योतिबा फुले ने हिंदू धर्म को सीधी चुनौती पेश की. हजारों वर्षों से मिथक एवं पुराकथाएं जनसाधारण के लिए शास्त्र का काम करती आई हैं. इसे देखते हुए फुले ने ‘गुलामगिरी’ पुस्तक के माध्यम से, लोक प्रचलित मिथकों की पड़ताल की. इसके फलस्वरूप एक ऐसी चेतना का विस्तार हुआ हुआ, जो आगे चलकर देश के विभिन्न भागों में जातिवाद विरोधी आंदोलनों की प्रेरणा बना.
सत्यशोधक समाज का प्रचार-प्रसार –
सत्यशोधक समाज को कोल्हापुर के राजा शाहू जी महाराज का पूर्ण समर्थन मिला जिनका मानना था कि पिछड़े लोगों का उत्थान राजनीतिक शक्ति से ही संभव है। शाहू जी महाराज ने ही पिछड़ों के लिए अपने राज में आरक्षण की व्यवस्था लागू की थी और महिला शिक्षा में योगदान दिया था। सत्यशोधक समाज को कृषि जातियों जैसे मराठा कुनबी, माली, कोली से पुरजोर समर्थन मिला था जिसने समाज को जन-जन तक पहुंचाया।
सत्य शोधक समाज का फैलाव –
शूद्रों और अतिशूद्रों का ज्योतिबा फुले पर भरोसा था इसकी सबसे बड़ी वजह शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके काम थे. इसलिए सत्य शोधक समाज को उन्होंने हाथों-हाथ लिया. कुछ ही वर्षों में उसकी शाखाएं मुंबई और पुणे के शहरी, कस्बाई एवं ग्रामीण क्षेत्रों में खुलने लगीं एक दशक के भीतर वह संपूर्ण महाराष्ट्र में पैठ जमा चुका था. समाज की सदस्यता सभी के लिए खुली थी, फिर भी मांग, महार, मातंग, कुनबी, माली जैसी अस्पृश्य एवं अतिपिछड़ी जातियां तेजी से उससे जुड़ने लगीं.
लोगों ने शादी-विवाह, नामकरण आदि अवसरों पर पुरोहितों को बुलाना छोड़ दिया. इससे ब्राह्मण पुजारियों ने निचली जातियों को यह कहकर भड़काना शुरू कर दिया कि बिना पुरोहित के उनकी प्रार्थनाएं ईश्वर तक नहीं पहुंच पाएंगी |
ज्योतिबा फूले द्वारा महिला शिक्षा की दिशा में किये गए प्रयास
- महिलाओं और लड़कियों को शिक्षा का अधिकार प्रदान करने की ज्योतिबा की खोज को उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने समर्थन दिया। उस समय की कुछ साक्षर महिलाओं में से एक, सावित्रीबाई ( जो शादी के समय बिलकुल अनपढ़ थीं ) शादी के पश्चात् ज्योतिबा राव फूले ने उन्हें पढ़ना और लिखना सिखाया था।
- 1851 में, ज्योतिबा ने लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना की और अपनी पत्नी से लड़कियों को स्कूल में पढ़ाने के लिए कहा। बाद में, उन्होंने लड़कियों के लिए दो और स्कूल और निचली जातियों के लिए, विशेष रूप से महारों और मांगों के लिए एक स्वदेशी स्कूल खोला।
- ज्योतिबा ने विधवाओं की दयनीय स्थिति को महसूस किया और युवा विधवाओं के लिए एक आश्रम की स्थापना की और अंततः विधवा पुनर्विवाह के विचार के पैरोकार बन गए।
ज्योतिबा फूले की मृत्यु –
ज्योतिबा फुले ने अपना पूरा जीवन अछूतों को ब्राह्मणों के शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए समर्पित कर दिया। वे एक सामाजिक कार्यकर्ता और सुधारक होने के साथ-साथ एक व्यवसायी भी थे। वह नगर निगम के किसान और ठेकेदार भी थे। उन्होंने 1876 और 1883 के बीच पूना नगर पालिका के आयुक्त के रूप में कार्य किया।
1888 में ज्योतिबा को आघात लगा और वे लकवाग्रस्त हो गए। 28 नवंबर 1890 को महान समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले का निधन हो गया।
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