
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में शुरू हुई ‘प्रभुबाड़ी’ की दुर्गा पूजा वैष्णव परंपराओं के अनुसार संपन्न होती है और त्रिपुरा की सबसे प्राचीन धार्मिक परंपराओं में से एक मानी जाती है। इस ऐतिहासिक पूजा में अब भी त्रिपुरा के प्राचीन राजसी गौरव व इतिहास की झलक दिखाई देती है। पूजा का मौजूदा स्वरूप दर्शाता है कि त्रिपुरा के राजाओं ने गौड़ीय वैष्णव धर्म को किस प्रकार सिर्फ संरक्षण दिया, बल्कि उसके मूल स्वरूप और मूल भावना को भी जीवंत रखने में सहयोग दिया।
‘प्रभुबाड़ी’ का अर्थ है राजवंश के आध्यात्मिक गुरु (गुरु घराना) का निवास स्थान। त्रिपुरा के भारत संघ में विलय होने तक ये पूजा राजपरिवार के साथ गहराई से जुड़ी रही। पिछले लगभग 170 वर्षों से यह पूजा राजपरिवार के लिए अत्यधिक आध्यात्मिक और धार्मिक महत्व रखती है। यहाँ की दुर्गा प्रतिमा को पूरे राजकीय सम्मान के साथ विसर्जित किया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे राजपरिवार के दुर्गाबाड़ी मंदिर की प्रतिमा का विसर्जन होता है। परंपरा के अनुसार, सबसे पहले ‘प्रभुबाड़ी’ की प्रतिमा का विसर्जन होता है, उसके बाद ‘दुर्गाबाड़ी’ की प्रतिमा और फिर सामुदायिक तथा गृह पूजा की प्रतिमाएँ विसर्जन स्थल की ओर जाती हैं।
ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार, ‘प्रभुबाड़ी’ की पूजा महाराजा ईशनचंद्र माणिक्य के शासनकाल में शुरू हुई थी। उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु प्रभुपाद बिपिन बिहारी गोस्वामी और उनके पूरे परिवार के लिए अगरतला के लक्ष्मीनारायण बाड़ी के पास स्थायी निवास की व्यवस्था की थी।
गोस्वामी को महाराजा ने अपना प्रधानमंत्री भी नियुक्त किया क्योंकि राजा का मानना था कि शासन में न्याय और व्यवस्था के लिए संत का आध्यात्मिक मार्गदर्शन आवश्यक है।
बिपिन बिहारी गोस्वामी, नित्यानंद महाप्रभु के वंशज थे, जिनका संबंध चैतन्य महाप्रभु से भी माना जाता है। चैतन्य महाप्रभु बंगाल में भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक थे। वैष्णव परंपरा के अनुसार, नित्यानंद महाप्रभु को ‘बलराम’ (भगवान श्रीकृष्ण के अग्रज) का अवतार माना जाता है।
माधवबांदा गोस्वामी, जो उस समय के आध्यात्मिक गुरु के वंशज हैं, बताते हैं, “प्रभु बिपिन बिहारी गोस्वामी का माणिक्य राजवंश से संबंध एक चमत्कारिक घटना के बाद जुड़ा। उस समय राजकुमार गंभीर रूप से बीमार थे। प्रभु अगरतला में अपने धार्मिक भ्रमण पर पहुँचे थे। वहाँ उन्हें राजकुमार की हालत के बारे में पता चला और उन्होंने महल जाकर उनका उपचार करने की इच्छा जताई। तीन दिनों तक उन्होंने लक्ष्मीनारायण बाड़ी में ध्यान किया और तीसरे दिन जब वे राजकुमार के पास पहुँचे, तो एक चमत्कार घटित हुआ- राजकुमार उनके सानिध्य में आते ही पूरी तरह स्वस्थ हो गए। इससे प्रभावित होकर महाराजा ईशनचंद्र माणिक्य ने उनसे ‘दीक्षा ग्रहण’ की, साथ ही उन्हें प्रधानमंत्री पद संभालने की विनती की।
शुरुआत में प्रभु ने यह कहते हुए पद स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि उनका परिवार बंगाल में है। लेकिन राजा के आग्रह पर उनके पूरे परिवार को अगरतला लाकर बसाया गया। साथ ही प्रभु अपने साथ पूजनीय शालिग्राम शिला भी लाए जिसे राधा नीलकंठ मणि जिउ देवता मंदिर में प्रतिष्ठित किया गया।
गोस्वामी बताते हैं, “महाराजा के आदेश पर उस शिला के लिए हाथीदांत का एक सिंहासन तैयार कराया गया जो राजसिंहासन की तरह था। लेकिन उसकी ऊँचाई राजसिंहासन के कम निकली- तो इसके नीचे एक और सिंहासन लगाया गया, ताकि ईश्वर की सत्ता राजसत्ता से ऊपर रहे। वह शिला आज भी मंदिर में प्रतिष्ठित है।”
तब से परंपरा यह रही है कि दशमी के दिन राजमहल में सबसे पहले प्रभुबाड़ी की प्रतिमा को धार्मिक रीति-रिवाजों से ग्रहण किया जाता है और उसके बाद दुर्गाबाड़ी की प्रतिमा आती है। फिर दोनों को एक साथ विसर्जन स्थल ले जाया जाता है।
महाराजा ईशनचंद्र माणिक्य 1849 से 1862 तक गद्दी पर रहे। इस पूजा की विशेषता के बारे में गोस्वामी कहते हैं, “इस पूजा की सारी विधियाँ मत्स्य पुराण के अनुसार होती हैं। मत्स्य पुराण अठारह महापुराणों में से एक है और संस्कृत साहित्य की सबसे प्राचीन और संरक्षित कृतियों में इसकी गिनती होती है। ये पूरा आयोजन शुद्ध वैष्णव रीति से किया जाता है।”
माधवबांदा गोस्वामी बताते हैं कि राजशाही काल में चकला रोशनाबाद (अब बांग्लादेश में) की रियासत से वसूले जाने वाले राजस्व का एक हिस्सा पहले उनके परिवार और मंदिर के लिए तय था। परंतु राजशाही के खत्म होने के बाद ये पूजा और अन्य धार्मिक गतिविधियां निजी स्तर पर आयोजित होने लगीं। हालांकि अब त्रिपुरा सरकार मंदिर और पूजा का पूरा खर्च उठाती है।
आज भी ये पूजा न सिर्फ त्रिपुरा की सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों का प्रतीक है, बल्कि त्रिपुरा के सनातन धर्म के साथ गहन जुड़ाव को भी प्रदर्शित करती है।
ये लेख टीएफआई के लिए मृणाल कांति बानिक ने लिखा है। त्रिपुरा में रहने वाले मृणाल पूर्वोत्तर भारत के जाने-माने पत्रकार हैं, व पूर्वोत्तर भारत के इतिहास, संस्कृति और समाजिक मुद्दों पर लगातार लेखन करते हैं।