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धर्मध्वजा स्थापना और राम मंदिर की पूर्णता अर्थात् – भारत के स्वत्व जागरण की पुनर्यात्रा

Dr Alok Kumar Dwivedi द्वारा Dr Alok Kumar Dwivedi
25 November 2025
in धर्म, संस्कृति
पीएम मोदी, मोहन भागवत और योगी आदित्यनाथ ने राम मंदिर के शिखर पर धर्म ध्वजा की स्थापना की

धर्म ध्वजा की स्थापना के साथ ही राम मंदिर का निर्माण पूर्ण हो गया

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मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्तियां कि–

राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है !

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कोई कवि बन जाए सहज सम्भाव्य है !!

राम प्रतीक हैं भारत की अस्मिता के, राम प्रतीक हैं भारत के स्वर्णिम सांस्कृतिक अहर्निश यात्रा के और राम प्रतीक हैं भारत के जीवन प्राण के। अयोध्या, जो राम की पुण्य जन्मस्थली है, संघर्ष, शौर्य और धैर्य के साथ अपने प्राणतत्व की प्रतिष्ठा के लिए सतत प्रयासरत रही हिंदू जीवन शैली के उत्कृष्टता का अनुपम उद्धरण है। सनातन काल से ही कालगति से स्वयं को अक्षुण्ण रखने की प्रवृत्ति भारतीय ऋषि परंपरा का आत्मभाव से आत्मसात होने का यथार्थ प्रमाण है।

सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया की विचार दृष्टि और वसुधैव कुटुंबकम् की व्यवहारिकता से ओतप्रोत ऋषि परंपरा स्वयं को कालातीत अनुभूति की श्रेणी में रखता रही। सर्वकल्याण का यह भाव भारतीय जीवन दृष्टि की कोई कल्पना मात्र न होकर जीवन का प्राप्य पुरुषार्थ है। आत्मवत् सर्वभूतेषु के दर्शन को जीवन में उतारने के क्रम में ऋषि परंपरा न तो कोरी कल्पना का सहारा लेती है, न ही पलायनवाद की दृष्टि और न ही आक्रामकता अपनाती है वरन् व्यक्तिगत अनुभव और गहन साक्षात्कार के द्वारा आत्मभाव जागरण हेतु निरंतर तल्लीन रही जिसका प्रतिफल उस परम्परा के आत्मसाक्षात्कार के अनेकों सिद्धांत और मार्ग हमें दिखाई पड़ते हैं।
भारतीय साधना की विशिष्टता रही है कि इसने जीवन के हर स्तर पर आत्मभाव को ही अपना धर्म माना है और उसके स्थापित करने हेतु सदैव सर्जनवृत्ति को जागृत रखा। इसी परंपरा को आत्मसात कर राम ने कर्म की कुशलता को परिमार्जित कर अनासक्त भाव से धर्म स्थापन हेतु अपने जीवन यात्रा की आहुति कर दी जिसके फलस्वरूप वाल्मीकि जैसे ऋषि को कहना पड़ा– 

“रामो विग्रहवान धर्मः” अर्थात् राम साक्षात धर्म के मूर्त रूप हैं। राम का जीवन इस सिद्धांत का यथार्थ प्रकटन है कि यदि जीवन में अपने कार्य सिद्धि हेतु धर्म के मार्ग पर चलते हुए अपनी पूरी सामर्थ्य से आगे बढ़ा जाए तो निश्चित ही वह व्यक्ति उसी कार्यसाफल्य की एकाकारता की संज्ञा से अभिहित हो जाता है। उस व्यक्ति का व्यक्तित्व उसी सफल कार्य का स्वरूप हो जाता है। शायद इसी कारण राम के लिए किसी कवि ने कहा कि राम व्यक्ति को नहीं वृत्ति को प्राप्त संज्ञा है। जब किसी व्यक्ति का आचरण और दृष्टिकोण आने वाली मानवता के लिए पथप्रदर्शक बन जाती है तो वह व्यक्ति एक विचार और वृत्ति के रूप में स्थापित हो जाता है। 

                          भगवान श्रीराम का व्यक्तित्व भारतीय चिंतन का प्रकाशस्तंभ है। राम वह शक्ति हैं, जहाँ सामर्थ्य विनम्रता से मिलता है और नेतृत्व सेवा बन जाता है। उनका जीवन हमें बताता है कि आदर्श केवल उपदेशों में नहीं, बल्कि आचरण में उतरी सत्यनिष्ठा में जीवित रहते हैं। यही कारण है कि राम केवल एक ऐतिहासिक पुरुष नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति के ‘जीवित मूल्य’ हैं। राम के व्यक्तित्व में वीरता है, परंतु अहंकार नहीं,  निर्णय है, परंतु कठोरता नहीं। वे शक्ति का उपयोग रक्षा के लिए करते हैं और प्रेम का उपयोग समाज को जोड़ने के लिए। उनका नेतृत्व सत्य और करुणा से संचालित होता है। यही मर्यादा पुरुषोत्तम की पहचान है– जहाँ बाह्य शक्ति से अधिक महत्त्व भीतरी शुचिता को महत्व मिलता है।

राम की विजय केवल शस्त्रों से नहीं बनी। वह त्याग, सहनशीलता, न्याय और धर्मनिष्ठा से पवित्र हुई। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि धर्म का आधार न्याय है और न्याय का आधार संवेदनशीलता। राम में राजा का तेज है, ऋषि का संयम है, और साधक का धैर्य—और यही त्रिवेणी उन्हें कालजयी आदर्श बनाती है। राम का व्यक्तित्व हमें यह भी सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व ‘मैं’ से अधिक ‘हम’ में विश्वास करता है।

                   इन्हीं मूल्यों ने भारत की आत्मा को सींचा और पीढ़ियों को प्रेरित किया कि ‘राम केवल राजाओं के नहीं, जन–जन के हैं’। इसी भावना से सदियों का एक आंदोलन जन्मा – राममंदिर आंदोलन। यह केवल एक मंदिर का संघर्ष नहीं था, बल्कि सांस्कृतिक स्मृति की पुनर्स्थापना, अस्मिता की जागृति और न्याय के प्रति सामूहिक आग्रह था। यह उन मूल्यों के पुनरुत्थान की यात्रा थी, जिन पर राम का व्यक्तित्व खड़ा है: सत्य, साहस, करुणा, मर्यादा और सामूहिकता। राममंदिर आंदोलन की पूर्णता इसलिए केवल राजनीतिक या न्यायिक प्रक्रिया का अंत नहीं है। यह करोड़ों भारतीयों के भीतर बसे उस भाव का चरम है, जो कहता है कि “विजय का मार्ग बाहरी नहीं, भीतरी शुचिता से होकर गुजरता है।” जैसे राम ने अपने जीवन में कठिनाइयों, अन्याय और संघर्षों को आंतरिक धैर्य और धर्म की शक्ति से जीता; उसी प्रकार यह आंदोलन भी धैर्य, संवेदनशीलता और न्यायिक मर्यादा के मार्ग से सम्पन्न हुआ।

                     जब अयोध्या में रामलला अपने भव्य और दिव्य मंदिर में प्रतिष्ठित हुए, तो यह केवल एक स्थापत्य की पूर्णता नहीं थी—यह उस सुगंध की वापसी थी जो राम के व्यक्तित्व में बसती है और आज भी जीवित है क्योंकि वह मूल्यों की भूमि में पनपी है, सत्ता की नहीं। राममंदिर इस बात का प्रतीक बन गया कि भारतीय समाज किसी भी संघर्ष को संस्कृति, सत्य और धैर्य की शक्ति से पूरा कर सकता है। राम केवल अतीत का गौरव नहीं, वर्तमान का मार्गदर्शक और भविष्य का प्रकाश हैं। उनका व्यक्तित्व हमें बताता है कि सभ्यताएँ केवल इमारतें खड़ी करके नहीं, बल्कि अपने आदर्शों को पुनर्जीवित करके महान बनती हैं। राममंदिर आंदोलन की पूर्णता इसी आत्मविश्वास, इसी जागृति और इसी सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रमाण है।


                राम जन्मभूमि विवाद भारत के इतिहास में स्वर्णिम और कलंक दोनों ही दृष्टि से देखा जायेगा। कलंक इस बात का कि जिस व्यक्ति की चेतना से भारत का रोम रोम आप्लावित है, जिसके नाम से कमोबेश जनमानस अपने दैन्दिन की शुरुआत करता है, जिनके आदर्श पर चलकर भारत की संस्कृति अक्षुणता को उद्घोषित किया जाता है, ऐसे व्यक्ति के जन्मस्थान का विवाद भारत में 500 वर्षों से अधिक समय तक चलता रहा और ऐसी विभूति को बिना छत के वीरान तरीक़े से रहना पड़ा। इसके उलट स्वर्णिम और गौरव की बात यह है कि राम जन्मभूमि आंदोलन और इसकी सफलता ने हिंदू जनमानस में सुप्त पड़ी उनकी चेतना का उद्गार किया, उनके सामर्थ्य को पहचानने का मार्ग दिया और अपने स्वत्व से लक्ष्य सिद्धि के सनातन दृष्टि का प्रमाण भी प्रस्तुत किया।
2019
में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा सर्वसम्मति से रामजन्मभूमि निर्माण का निर्णय सत्य की विजय का संदेश थी। यह हिंदू जीवन दृष्टि के इस भाव का भी प्रतीक था कि हिंदू अपने राष्ट्र के प्रतीकों, और संस्थाओं का सम्मान करता है और उसे राष्ट्र की जीवंत इकाई मानता है। राम मंदिर निर्माण के पश्चात 25 नवंबर 2025 को धर्मध्वजा आरोहण के साथ ही मंदिर निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ और यह ध्वजा भारतीय जनमानस के गौरव गाथा को अनंत काल तक उत्तुंग शिखर पर उर्ध्वगामी दृष्टि को पोषित करती रहेगी। यह विजय है धैर्य की, सामर्थ्य की, जीवन राष्ट्र के प्राण को पुनर्स्थापित करने की और हिंदू जीवन दृष्टि की। 

भारत महिमा में जयशंकर प्रसाद लिखते हैं– 

विजय केवल लोहे की नहीं, 

धर्म की रही धरा पर धूम। 

भिक्षु होकर रहते सम्राट, 

दया दिखलाते घर–घर घूम ।।

यवन को दिया दया का दान, 

चीन को मिली धर्म की दृष्टि । 

मिला था स्वर्ण–भूमि को रत्न, 

शील की सिंहल को भी सृष्टि ।। 

(डा. आलोक कुमार द्विवेदी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्ञ में पीएचडी हैं। वर्तमान में वह KSAS, लखनऊ में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। यह संस्थान अमेरिका स्थित INADS, USA का भारत स्थित शोध केंद्र है। डा. आलोक की रुचि दर्शन, संस्कृति, समाज और राजनीति के विषयों में हैं।)

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