लगता है अति नारीवादियों को एक और ‘राष्ट्रीय महत्व’ के मुद्दे पर चिंता करने का अवसर मिल गया है। ‘अर्जुन रेड्डी’ के हाल ही में प्रदर्शित हिन्दी संस्करण ‘कबीर सिंह’ में उन्हें अपना नया पंचिंग बैग भी मिला है, और एक बार फिर अपने आप को बेशर्मी से पाखंडी सिद्ध करने का एक सुनहरा अवसर भी प्राप्त हुआ है।
मूल फिल्म के निर्देशक संदीप रेड्डी वंगा द्वारा ही निर्देशित ‘कबीर सिंह’ ने जबसे सिनेमाघरों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है, इसे हर क्षेत्र से मिश्रित प्रतिक्रियाएँ मिली है। जहां कुछ इस फिल्म के अपरम्परागत कंटैंट से अभिभूत है, तो वहीं कुछ लोग मूल फिल्म से इसकी तुलना में जुट गए हैं।
हालांकि हमारे अति नारीवादियों को इस फिल्म से सबसे ज़्यादा आघात पहुंचा है क्योंकि इनके अनुसार नायक ने इनके ‘आदर्श पुरुष’ की छवि को तार तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इनके अनुसार कबीर सिंह में ‘विषैले पुरुषत्व’ के महिमामंडन से उस लुप्त पितृसत्ता को बढ़ावा मिलेगा, जिसे सभ्य समाज बहुत पहले ही पीछे छोड़ चुका है।
अब होना क्या था, ‘कबीर सिंह’ के प्रदर्शित होते ही वामपंथी आलोचकों, विशेषकर अति नारीवादियों ने इस मूवी की चौतरफा आलोचना शुरू कर दी। इन्होंने इस मूवी को नारी द्वेष और विषैले पुरुषत्व को बढ़ावा देने के लिए आड़े हाथों लिया है। एनडीटीवी के विवादित फिल्म आलोचक साईबल चटर्जी, जिन्होंने कलंक, एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, वीरे दी वैडिंग जैसे औसत फिल्मों को काफी अच्छी रेटिंग दी, लेकिन उन्होंने ने इस फिल्म को महज 1.5 स्टार दिये।
हिंदुस्तान टाइम्स के विवादित आलोचक राजा सेन ने इस फिल्म को ‘सेहत के लिए हानिकारक‘ बताया, तो वहीं विवादित कलाकार सोना मोहपात्रा ने शाहिद कपूर को यह फिल्म करने के लिए आड़े हाथों लिया, और उनमें सामाजिक दायित्व बोध का अभाव दिखाने का प्रयास भी किया। शायद इन्होंने शाहिद के एक पत्रकार को दिये गए इन प्रश्नों के उचित उत्तर को कभी नहीं देखा होगा, जो फिल्म के प्रदर्शन से लगभग एक महीने पहले ही प्रचलित हो चुके थे।
यह तो कुछ भी नहीं है। फिल्म कोंपैनियन की विवादित आलोचक सुचारिता त्यागी ने तो सभी सीमाएं लांघते हुये इस फिल्म पर दुष्कर्म, अपहरण जैसे अपराधों को बढ़ावा देने के एकदम ही बचकाने और बेतुके आरोप लगाने शुरू कर दिये।
यूं तो यह निस्संदेह घृणास्पद व्यवहार है, लेकिन ये पूरी तरह से अप्रत्याशित नहीं था। कबीर सिंह में ऐसा नहीं है की कोई कमी नहीं है, परंतु जिस तरह से ये अति नारीवादी इस फिल्म के पीछे हाथ धोके पड़े हुये हैं, उससे साफ पता चलता है की इनके घमंड को इस फिल्म से कितना आघात पहुंचा है।
हालांकि कुछ सक्रिय सोशल मीडिया यूजर्स ने इनके ढोंग को उजागर करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। प्रचलित अखबार ‘द हिन्दू’ और ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने मूल फिल्म ‘अर्जुन रेड्डी’ के लिए तो तारीफ़ों के पुल बांध दिये, पर उसी के हिन्दी संस्करण ‘कबीर सिंह’, जिसमें और मूल फिल्म में ज़रा सा-भी अंतर नहीं है, उसके खिलाफ इन प्रतिष्ठित मीडिया समूहों ने एजेंडा चलाने में ज़रा सी भी कसर नहीं छोड़ी।
Kabir Singh is a Hindi remake of the Telugu movie Arjun Reddy. Same content but two different reviews from @the_hindu . Why you ask? That's how media works. 'Demand and supply'. @the_hindu produces a demand for hatred and then will supply hatred with a pen. #KabirSingh pic.twitter.com/wGX1j0bpku
— Sam (@TheRealSam_02) June 22, 2019
कुछ लोग इसके पीछे अलग अलग आलोचकों के होने का बहाना दे सकते हैं, परंतु सत्य ये भी है की मूल फिल्म और इसके हिन्दी संस्करण में ज़रा भी अंतर नहीं है, और न ही अलग अलग भाषाओं के लिए अलग अलग संपादकीय मानक तय होते हैं। एक ही कंटेन्ट को अलग-अलग रेटिंग देकर ‘द हिन्दू’ और ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने अपने दोहरे मापदण्डों का सबसे बड़ा उदाहरण पेश किया है।
Man! It's 2019 girls are no more as dumb as #KabirSingh wants to portray.. I mean seriously Preeti Chunni theek kro.. and Preeti goes with a sorry look.. and you are talking about two Medical students. #KabirSinghReview
— Daman Sachdeva (@damansachdeva01) June 21, 2019
#KabirSingh glorifies & normalises stalking abusive relationships , rape & violence.
Violence isn't love. Toxic domination is not cool.#KabirSinghReview— subhoshree (@ravishingtwikle) June 21, 2019
#Kabirsingh The kind of movie that shouldn’t have been made in the first place, let alone remade. How could a movie be allowed to not just normalise but celebrate misogyny and sexism to this extent? Appalling. Easily one of the worst movies I have ever watched. #KabirSinghReview
— Giridhar Sreenivasan (@giridhar_sreeni) June 21, 2019
इसी से सिद्ध होता है, की यह अति नारीवादी और वामपंथी बुद्धिजीवी किस स्तर तक पाखंड करने में विश्वास करते हैं। जब हैदर जैसी फिल्म खुलेआम कश्मीर के नरसंहार का मखौल उड़ा रही थी और भारतीय सेना को तानाशाही भारत सरकार के रक्तपिपासु सिपाहियों के रूप में दर्शा रहे थे, तो हमें बताया गया की इस पर किसी को इतना ध्यान नहीं देना चाहिए, ये केवल एक फिल्म ही तो है। जब पीके में खुलेआम सनातन धर्म को अपमानित किया गिया, तब भी इन्होंने हमें मुफ्त में ज्ञान बाँचा कि कैसे हमें इसे दिल पर नहीं लेना चाहिए, ये एक फिल्म ही तो है। जब पद्मावत में भारतीय इतिहास को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया, और तुर्की सल्तनत को महिमामण्डित करने का प्रयास किया गया, तब भी इन वामपंथियों ने कहा, ये एक फिल्म ही तो है।
पर जब आदित्य धर ने भारतीय सैनिकों के शौर्य को नमन करते हुये ‘उरी – द सर्जिकल स्ट्राइक’ बनाई, तो इन्ही अति नारीवादियों और वामपंथियों को इससे सबसे ज़्यादा पीड़ा हुई। फिल्म के प्रदर्शित होने से पहले इसके खिलाफ बड़े-बड़े अखबारों में लेख लिखे गए। द वायर ने तो इसे खुलेआम 2019 के चुनावों के पहले भाजपा के ‘विषैले राष्ट्रवाद’ को बढ़ावा देने वाली फिल्म घोषित कर दी थी।
विडम्बना तो यह है, की यह वही अति नारीवादी है, जो संजु के खुलेआम नारी विरोधी होने पर भी उसके पक्ष में सीटियां और तालियां बजाते हैं। जब शाहिद ने कबीर सिंह से भी निकृष्ट चरित्र ‘उड़ता पंजाब’ में अपना रोल निभाया था, तब क्या इन्हे साँप सूंघ गया था? शायद यह अभी भी इस ख्याल में जीते हैं की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता केवल इनके लिए ही बनी है।
इसी कारण ‘उरी – द सर्जिकल स्ट्राइक’ भारत भर में ब्लॉकबस्टर सिद्ध हुई, और यही कारण है की कबीर सिंह इतनी निंदा के बावजूद दो दिनों में 42.20 करोड़ रुपये बॉक्स ऑफिस पर अर्जित करने में सफल रही है। ऐसे में इन अति नारीवादियों और वामपंथी आलोचक को अब आत्ममंथन करने की सख्त आवश्यकता है।