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हैदराबाद पर नेहरू की जो नीति थी वही नीति कश्मीर के लिए सोनिया गांधी की रही है

Abhinav Kumar द्वारा Abhinav Kumar
19 September 2019
in समीक्षा
कांग्रेस

PC: deccanchronicle

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इतिहास के तजुर्बों से हम सबक नहीं लेते इसीलिए इतिहास अपने आप को दोहराता है। यह कथन भारतीय इतिहास और खास कर कांग्रेस के इतिहास के लिए सटीक बैठती है। कई ऐसे प्रत्यक्ष मौके आए हैं जिससे यह कथन सिद्ध भी हुआ है। अगर हम हाल की घटनाओं पर नजर डालें तो पता चलेगा कि कांग्रेस ने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा। ये पार्टी पुरानी गलतियों को बार-बार दोहरा रही है। ऐसी ही पुरानी आदत एक बार फिर चर्चा में है, 100 वर्षों से पुरानी इस पार्टी ने अनुच्छेद 370 हटाने पर केंद्र सरकार का खुलकर विरोध किया। ठीक इसीत तरह स्वतन्त्रता के बाद जब हैदराबाद रियासत के निजाम ने भारत में विलय करने से मना कर दिया था तब सरदार पटेल ने सैन्य कारवाई करने का फैसला लिया था लेकिन तब भी तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस फैसले का विरोध किया था। इन दोनों ही घटनाओं में कांग्रेस की देश विरोधी और देश को एक न होने देने की प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई पड़ती है। इन दोनों ही घटनाओं में बात देश के एकीकरण की थी लेकिन दोनों ही मौकों पर कांग्रेस ने विरोध कर अपनी अँग्रेजी मानसिकता का प्रदर्शन किया।

दरअसल, 15 अगस्त 1947, को जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ था, तब उसके साथ ही 565 रियासतें और रजवाड़े भी स्वतंत्र हुए थे। उन्हें एक देश में पिरोने का दायित्व तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल एवं उनके विश्वसनीय सेक्रेटरी और चर्चित आईसीएस ऑफिसर वीपी मेनन को सौंपा गया था। कुशल नेतृत्व और बेजोड़ रणनीति से सरदार पटेल और वीपी मेनन ने असंभव को संभव कर दिखाया, और साल भर के अंदर ही 562 रियासत भारत में विलय को तैयार हो गये। लेकिन यह इतना आसान नहीं था।

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परंतु जो क्षेत्र अभी भी भारत से नहीं जुड़े थे, उनमें प्रमुख थे, कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद। इनमें हैदराबाद जनसंख्या, क्षेत्रफल एवं सकल घरेलू उत्पादन की दृष्टि से सबसे बड़ी रियासत थी। हैदराबाद रियासत में आज के महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के कई क्षेत्र शामिल थे। उस समय हैदराबाद पर निज़ाम उस्मान अली खान का राज था। हालांकि, वे मात्र कठपुतली थे, क्योंकि असली शासन निज़ाम के सलाहकारों में से एक और मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (MIM) के कद्दावर नेता, कासिम रिजवी के पास था, वहीं कासिम रिजवी अपनी खुद की रजाकारों की फौज खड़ी कर रहे थे। सूत्रों के मुताबिक रजाकारों की संख्या 20,000 से 2 लाख के बीच थी। इन रजाकारों का मानना था कि या तो हैदराबाद को एक स्वतंत्र राज्य रहने दिया जाए जहां शरिया कानून लागू होता, या फिर उसे पाकिस्तान के साथ जोड़ दिया जाए। इसके लिए रजाकारों ने गावों को लूटना शुरू किया, यही नहीं कई क्षेत्रों में गैर मुस्लिमों पर हमले किये जाने लगे। इस दौरान न केवल निर्दोष लोगों को निशाना बनाया गया, अपितु महिलाओं और बच्चों के साथ दुर्व्यवहार भी किया गया। जो भी कोई हिन्दू अख़बार अथवा साप्ताहिक पत्र के माध्यम से निज़ाम के अत्याचारों को हैदराबाद से बाहर अवगत कराने की कोशिश करता था तो उस पर छापा डाल कर उसकी प्रेस जब्त कर ली जाती थी और जेल में डाल कर अमानवीय यातनाएँ दी जाती थी। भारत में होते हुए भी हैदराबाद भारत के लिए नासूर बनने लगा था। उस समय भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबैटन हुआ करते थे, जो हैदराबाद पर किसी प्रकार के बल प्रयोग के पक्ष में नहीं थे। वे चाहते थे कि सभी मुद्दे बातचीत से हल हो, और इसी बात का प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी अनुमोदन किया था।

A. G. Noorani ने लिखा है कि नेहरू बातचीत से मामला सुलझाना चाहते थे। तत्कालीन कांग्रेस के मुखिया और देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सैन्य प्रयोग का विरोध कर हैदराबाद को स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट कराने का फैसला किया था। इसका परिणाम यह हुआ कि कासिम रिजवी और राजकारों ने जनता पर अत्याचार जारी रखा और लोगों को लूटते रहे। इसके बाद सरदार पटेल ने हैदराबाद के खिलाफ सैन्य कार्रवाई को अंतिम रूप दिया। दो बार भारतीय सेना की हैदराबाद में घुसने की तारीख तय की गई लेकिन राजनीतिक दबाव के चलते इसे रद्द करना पड़ा। इससे सरदार पटेल का धैर्य टूट गया, उन्होंने सेना की टुकड़ी हैदराबाद में भेज दी। पटेल ने गुप्त तरीके से योजना को अंजाम देते हुए भारतीय सेना को हैदराबाद भेज दिया। पटेल ने घोषणा की कि भारतीय सेना हैदराबाद में घुस चुकी है। इसे रोकने के लिए अब कुछ नहीं किया जा सकता। सेना के पहुंचने के बाद 5 दिन तक जबरदस्त लड़ाई हुई। पुलिस एक्शन बताने के चलते दुनिया के किसी और देश ने हाथ नहीं डाला। 18 सितंबर तक पूरी रियासत पर भारत का नियंत्रण हो गया। निजाम ने सरेंडर करते हुए भारत के साथ विलय के समझौते पर हस्‍ताक्षर कर दिया। इस तरह हैदराबाद का भारत में विलय हो गया।

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि आखिर जवाहरलाल नेहरू ने सैन्य कारवाई का विरोध क्यों किया? क्या उन्हें यह पता नहीं था था कि हैदराबाद में रजाकारों ने किस तरह से लोगों की हत्या और महिलाओं का दुर्व्यवहार किया है? क्या उन्हें यह भी नहीं पता था कि हजारों हिन्दू बच्चों को पकड़ कर सुन्नत कर दिया गया था, और जो किसी काम के नहीं थे उन्हें जान से मार दिया गया था। लेकिन फिर भी जवाहर लाल नेहरू ने सरदार पटेल के सैन्य आक्रमण के प्रस्ताव को नकार दिया था। यहाँ तक कि उन्होंने सरदार पटेल को इस सैन्य कारवाई के प्रस्ताव के लिए सांप्रदायिक भी करार  दिया था। इस बात का उल्लेख पूर्व आइएएस अधिकारी एम.के.के नायर की पुस्तक ‘द स्टोरी ऑफ एन एरा विदाउट इल विल’ में मिलता है। लेकिन आखिर में जीत सरदार पटेल की ही हुई और आज हैदराबाद में किसी भी प्रकार की अराजकता नहीं है और यह तब से ही भारत का पूर्ण रूप से हिस्सा है।

ठीक इसी तरह जवाहर लाल नेहरू ने इस सफलता से सीख नहीं ली और खुद को घर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए जम्मू-कश्मीर को भी भारत से अलग रखने वाला अनुच्छेद 370 को बिना सदन से पास किए बिना ही राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से लागू करवा दिया। इसी अनुच्छेद का सहारा लेकर पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी में “ऑपरेशन टोपक” से अलगाववाद की आग भड़काना शुरू किया जिससे पूरा कश्मीर जल उठा और कश्मीरी पंडितों पर इतने अत्याचार हुए कि उन्हें अपने घर और राज्य से पलायन कर दूसरे राज्य में जाना पड़ा। कांग्रेस आज भी ये मानने से भी डरती हैं कि अनुच्छेद 370 के कारण ही कश्मीरी पंडितों के साथ बुरा हुआ। कांग्रेस वो दिन भूल जाना चाहती है जब 19 जनवरी 1990 को कश्मीर के पंडितों को अपना घर छोड़ने का फरमान जारी हुआ था।

1989 में जिहाद के लिए गठित जमात-ए-इस्लामी ने कश्मीर में इस्लामिक ड्रेस कोड लागू कर दिया। उसने नारा दिया- हम सब एक, तुम भागो या मरो। उस दौर के अधिकतर हिंदू नेताओं की हत्या कर दी गई। उसके बाद 300 से अधिक हिंदू-महिलाओँ और पुरुषों की आतंकियों ने हत्या की। घाटी में कई कश्मीरी पंडितों की बस्तियों में सामूहिक बलात्कार और लड़कियों के अपहरण किए गए। एक स्थानीय उर्दू अखबार, हिज्ब-उल-मुजाहिदीन की तरफ से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई और लिखा, ‘सभी हिंदू अपना सामान बांधें और कश्मीर छोड़ कर चले जाएं’। कश्मीरी पंडितों के घर के दरवाजों पर नोट लगा दिया गया, जिसमें लिखा था ‘या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ दो। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 60 हजार परिवार कश्मीर छोड़कर जाने को मजबूर हुए और उन्हें आस-पास के राज्यों में पनाह लेना पड़ा। 19 जनवरी 1990 को सबसे ज्यादा लोगों ने कश्मीर छोड़ा था। लगभग 4 लाख लोग विस्थापित हुए थे। इतना ही नहीं आज भी जम्मू-कश्मीर में जो आतंकवाद जारी है यह अनुच्छेद 370 का ही परिणाम है फिर भी कांग्रेस पार्टी ने कभी उन परिवारों के बारे में नहीं सोचा और जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 को निरस्त किया और जम्मू-कश्मीर को पूर्ण रूप से भारत में विलय किया तब कांग्रेस ने इस फैसले का पुरजोर विरोध किया और जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने वाले अनुच्छेद 370 का समर्थन किया। साथ ही में थोड़े दिन के कर्फ़्यू पर तो सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस इतना हँगामा करने लगी जैसे उनकी सांसें रोक दी गयी हों। यह ठीक उसी प्रकार था जैसे नेहरू ने हैदराबाद पर सैन्य कारवाई के फैसले पर बौखला गए थे। कांग्रेस ने अपने इतिहास से जरा भी सीख नहीं लिया कि कैसे आखिर सैन्य कारवाई ही सफल रही थी जिसके कारण आज हैदराबाद में शांति है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का अनुच्छेद 370 हटाने का फैसला दूरगामी परिणाम देने वाला है। इससे जम्मू-कश्मीर के लोगों का न सिर्फ देश के अन्य लोगों के साथ जुड़ाव बढ़ेगा बल्कि कश्मीर में बढ़ा हुआ अलगाववाद भी समाप्त होगा। इस फैसले का विरोध कर कांग्रेस ने अपनी पुरानी आदतों को ही उजागर किया है। अगर अब भी यह पार्टी सीख नहीं लेती है तो निश्चित ही कांग्रेस का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

Tags: जम्मू-कश्मीरपं. नेहरूसरदार वल्लभ भाई पटेलहैदराबाद
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