नेपाल, भारत का एक ऐसा पड़ोसी, जो आए दिन चीन के बनाए जाल में फंसता चला जा रहा है। नेपाल एक ऐसा देश है जो भारत के बिलकुल दरवाजे पर स्थित है, और सुरक्षा की दृष्टि से भारत के लिए अति महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि चीन अब इस देश पर अपना प्रभुत्व जमाने पर फोकस कर रहा है। अभी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग नेपाल के दौरे पर गए थे, जहां उन्होंने नेपाल को 56 अरब नेपाली रुपयों की सहायता देने का ऐलान किया। इसके साथ ही फिर से यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या नेपाल की हालत वैसे ही होने वाली है जैसा चीन ने मालदीव और श्रीलंका के साथ किया। चीन ने इन देशों को बड़े पैमाने पर कर्ज़ दिया और जब ये देश उस कर्ज़ को लौटा पाने में असफ़ल हुए, तो चीन ने उनकी ज़मीन पर कब्जा कर लिया। अगर नेपाल के साथ भी ऐसा होता हैं तो यह भारत के लिए किसी भी सूरत में अच्छा नहीं होगा।
वर्ष 2017 में जब से नेपाल में कम्युनिस्ट सरकार सत्ता में आई है, तभी से नेपाली सरकार का रुख चीन की तरफ कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। चीन भी नेपाल को अपनी ओर आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है, और नेपाल में बड़ी मात्रा में निवेश करने की बात कर रहा है। नेपाल चीन के महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट BRI का भी एक अहम हिस्सा है और इसके तहत चीन और नेपाल के बीच लगभग 2.75 अरब डॉलर के प्रोजेक्ट पर बात चल रही है। दोनों देश एक दूसरे के साथ अपनी कनेक्टिविटी को बढ़ाना चाहते हैं, और यही कारण है कि आने वाले दिनों में नेपाल काफी हद तक चीन के ‘डैट ट्रैप’ में फंस सकता है।
चीन की यह अघोषित कूटनीतिक रणनीति रही है कि वह धीर-धीरे भारत के सभी पड़ोसियों पर अपना प्रभाव जमाना चाहता है। ऐसे ही उसने भारत के अन्य पड़ोसी देशों जैसे मालदीव, श्रीलंका के साथ भी करने की कोशिश की। चीन ने इन दोनों देशों को आर्थिक तौर पर हाईजैक करने की कोशिश की थी। उदाहरण के तौर पर चीन ने श्रीलंका को हंबनटोटा पोर्ट को विकसित करने के लिए पहले तो भारी-भरकम लोन दिया, और बाद में जब श्रीलंका उस लोन को चुका पाने में असफल हुआ तो चीन ने उसी पोर्ट को 99 वर्षों के लिए लीज़ पर ले लिया। जब तक श्रीलंका चीन के इस जाल को समझ पाता, तब तक काफी देर हो चुकी थी।
यही उसने भारत के अन्य पड़ोसी मालदीव के साथ भी किया। चीन ने मालदीव के साथ इतने बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी की, कि मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति को चीन की तुलना ईस्ट इंडिया कंपनी से करनी पड़ी थी। मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने पिछले महीने एक थिंक टैंक की बैठक में कहा था कि चीनी परियोजनाओं की लागत बहुत अधिक है और 2020 के बाद से देश के बजट का 15 फीसदी विभिन्न चीन की कंपनियों का बकाया कर्ज चुकाने पर खर्च होगा। इसके अलावा उन्होंने कहा था ‘उन्होंने (चीन) काम किया और हमें बिल भेज दिया। यह कर्ज की ब्याज दरों के रूप में नहीं है, बल्कि लागत ही है। उन्होंने (चीऩ) हमें अधिक बिल दिया और हमसे वह वसूला जा रहा है। और अब हमें ब्याज दर और मूल राशि चुकानी होगी।’
और सिर्फ मालदीव और श्रीलंका ही नहीं, आर्थिक तौर पर कमजोर दुनिया के कई ऐसे देश हैं, जिन्हें चीऩ अपने कर्ज़ जाल में फंसाकर उनपर अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करता रहा है। ऐसे देशों का नाम हैं जिबुती, किर्गिस्तान, लाओस, मालदीव, मंगोलिया, मोंटेनेग्रो, पाकिस्तान और कजाकिस्तान। इन देशों ने यह अनुमान तक नहीं लगाया कि कर्ज से उनकी प्रगति किस हद तक प्रभावित होगी। कर्ज नहीं चुकाने की स्थिति में ही कर्ज लेने वाले देशों को पूरा प्रोजेक्ट उस देश के हवाले करना पड़ता है। अब नेपाल भी धीरे-धीरे चीन के इस जाल में फंसता नज़र आ रहा है। चीन पहले तो छोटे देशों को भारी-भरकम ब्याज दरों पर लोन देता है और जब वे छोटे देश उस लोन को चुका पाने में असमर्थ हो जाते हैं तो चीन वहाँ पर जमीन लीज़ पर ले लेता है और इसी तरह वह अपनी सीमाओं को बढ़ाने के एजेंडे को आगे बढ़ाता है। ऐसे में नेपाल इस एजेंडे को जितनी जल्दी समझता है, उतना ही उसके लिए फायदेमंद होगा।