Tilka Majhi: अंग्रेजों ने भारत पर 200 वर्षों तक शासन किया और आम जनता पर बहुत अत्याचार भी किए। परन्तु इन अत्याचारों के विरोध में भारत के लोगों ने समय-समय पर अंग्रेजों से न केवल अपनी असहमति दर्ज कराई बल्कि खुले रूप से अपने प्राणों की आहुति देकर विद्रोह भी किया। इसी कड़ी में जब अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की बात आती है तो हमें इतिहास में बताया जाता है कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम था।
क्रांतिकारी तिलका मांझी
हालांकि 1857 का विद्रोह भारत की एक बड़े स्तर पर होने वाली क्रांति तो थी परन्तु इस क्रांति से लगभग 80 साल पहले एक ऐसे क्रांतिकारी हुए जिन्होंने न केवल अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी बल्कि उनकी नाक में दम कर दिया था। आज लोग इन्हें तिलका मांझी (Tilka Majhi) के नाम से जानते हैं। तिलका मांझी आदिवासियों के बीच में एक इष्ट के रूप में जाने जाते हैं। इसीलिए आज इस लेख में हम इनके बारे में विस्तार से जानेंगे।
Tilka Majhi, एक ऐसा नाम जो न केवल क्रांति की ज्वाला जलाने के लिए जाने जाते हैं बल्कि कई लोग इन्हें भारत के पहले स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी जानते हैं। बंगाली लेखिका महाश्वेता देवी ने बांग्ला भाषा में ‘शालगिरर डाके’ और हिंदी उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ‘हुल पहाड़िया’ में तिलका मांझी के संघर्ष का विस्तार से वर्णन किया गया है।
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वास्तविक नाम ‘जबरा पहाड़िया’
तिलका मांझी (Tilka Majhi) का जन्म 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज में ‘तिलकपुर’ नामक गाँव में एक संथाल परिवार में हुआ था और इनका वास्तविक नाम ‘जबरा पहाड़िया’ हुआ करता था परन्तु लोगों ने इनकी गुस्सैल प्रवृत्ति और कार्यों को देखते हुए इन्हें तिलका मांझी नाम दे दिया। ये पहाड़िया समुदाय से संबंध रखते थे और पहाड़िया भाषा में तिलका का अर्थ होता है गुस्सैल प्रवृत्ति का व्यक्ति और मांझी का अर्थ होता है ग्राम प्रधान। तिलका मांझी कुछ समय तक अपने समुदाय के ग्राम प्रधाऩ भी रहे इसलिए इन्हें ‘जबरा पहाड़िया’ के स्थान पर तिलका मांझी नाम दे दिया।
तिलका मांझी ने शुरुआत से ही अपने जंगलों के संसाधनों को अंग्रेजों द्वारा लुटते हुए देखा और धीरे-धीरे इसके खिलाफ उन्होंने आवाज उठाना शुरू कर दिया। शुरुआती दौर में वे अकेले ही अंग्रेजों के विरुद्ध डटे रहते थे परन्तु राष्ट्रीय भावना जगाने हेतु वे भागलपुर के स्थानीय लोगों को सभाओं में संबोधित करते थे और उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने के लिए प्ररित करते थे। परन्तु तिलका मांझी (Tilka Majhi) का रौद्र रूप और अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रमण 1770 में भीषण अकाल के दौरान देखने के लिए मिलता है जब इन्होंने अंग्रेज़ी शासन का खज़ाना लूटकर गरीब लोगों में बांट दिया था। यही नहीं तिलका मांझी ने अंग्रेजों के चापलूस सामंतों पर भी आक्रमण किए और हर एक आक्रमण में उन्होंने जीत हासिल की।
तिलका मांझी के लिए महत्वपूर्ण साल था 1784
वर्ष 1784 तिलका मांझी (Tilka Majhi) के जीवन का एक ऐसा साल था जिसमें उन्होंने 13 जनवरी को ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोड़े पर सवार अंग्रेज़ी कलेक्टर ‘अगस्टस क्लीवलैंड’ को अपने जहरीले तीर का निशाना बनाया और मार गिराया। तिलका मांझी के ऐसा करने के बाद पूरी अंग्रेजी सरकार सदमे में थी और किसी भी प्रकार तिलका मांझी से बदला लेना चाहती थी। अंग्रेजों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कोई तीर चलाने वाला एक आदिवासी अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर देगा।
अंग्रेजों ने इस घटना के बाद तिलका मांझी को पकड़ने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया, परन्तु वे तिलका को नहीं पकड़ सके। ऐसे में अंग्रेजों ने अपनी पुरानी नीति ‘फूट डालो और राज करो’ को अपनाते हुए आदिवासी समुदायों में आपस में फूट डालना शुरू कर दिया। अंग्रेज अंत में इस नीति में सफल हुए और उन्हें तिलका मांझी के समुदाय के एक व्यक्ति ने ही ठिकाने के बारे में सूचना दी। अंग्रेजों ने इस सूचना के मिलते ही मांझी के ठिकाने पर धावा बोल दिया परन्तु वे वहां से किसी तरह बच निकले और बाद में अंग्रेजों पर छापा मार लड़ाई नीति से आक्रमण करते रहे।
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वीर क्रांतिकारी को फांसी
परन्तु अंग्रेजों ने उनके ठिकाने तक पहुंचने वाली सभी प्रकार की सहायता जैसे कि रसद पानी को रोक दिया जिसके बाद तिलका मांझी को अंत में अंग्रेजों से लड़ने के लिए बाहर आना पड़ा और अंत में वे पकड़े गए। बताया जाता है कि तिलका मांझी को पकड़ने के बाद चार घोड़ों से घसीटकर भागलपुर ले जाया गया और वहां पर 13 जनवरी 1785 को उन्हें एक बरगद के पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी गई थी।
तिलका मांझी को पकड़ने के बाद इस तरह से फांसी देने का अंग्रेजों का एक ही उद्देश्य था लोगों में भय पैदा करना पर उन्हें क्या पता था कि बिहार-झारखंड के पहाड़ों से शुरू हुआ यह आंदोलन अंग्रेजों की नींव में छाछ डालने का काम करेगा और उनके अत्याचारी साम्राज्य को उखाड़ फेंककर ही दम लेगा। ठीक ऐसा ही हुआ इस क्रांति के कुछ वर्ष पश्चात् साल 1857 में मंगल पांडे नाम के एक और क्रांतिकारी हुए जिन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी।
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