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वो कवि जिनकी कविता बन गई ‘लोकगीत’: हरिवंश राय ऐसे बन गए ‘बच्चन’, गांधी जिनसे हो गए थे नाराज

हरिवंश राय ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डब्ल्यू.बी. येट्स की कविताओं पर शोध करते हुए पीएचडी की उपाधि प्राप्त की

Shiv Chaudhary द्वारा Shiv Chaudhary
28 November 2024
in इतिहास
अपने बेटे और हिंदी सिनेमा के 'महानायक' अमिताभ के साथ हरिवंश राय बच्चन

अपने बेटे और हिंदी सिनेमा के 'महानायक' अमिताभ के साथ हरिवंश राय बच्चन

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हरिवंश राय बच्चन, साहित्य और राजनीति का एक जाना पहचाना नाम हैं। उनकी साहित्यिक रचनाओं ने उन्हें कालजयी बनाया तो राजनीति में उनकी सक्रियता ने उन्हें राज्यसभा तक पहुंचाया। हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को प्रयागराज के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके नाम में ‘बच्चन‘ जोड़ने का रोचक कारण यह था कि बचपन में घर पर सभी इन्हें ‘बच्चन‘ कहकर पुकारते थे। समय के साथ यह नाम उनके साहित्यिक व्यक्तित्व के साथ स्थायी रूप से जुड़ गया।

बचपन से ही बच्चन का लगाव साहित्य एवं शिक्षा की ओर था। उन्होंने शुरुआती शिक्षा इलाहाबाद में प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया। बाद में, उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डब्ल्यू.बी. येट्स की कविताओं पर शोध करते हुए पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।

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हरिवंश राय बच्चन का व्यक्तिगत जीवन बेहद उतार–चढ़ाव से भरा रहा। बच्चन की दो शादियाँ हुईं। 1926 में उन्होंने श्यामा बच्चन से शादी की किन्तु उनकी पहली पत्नी श्यामा की 1936 में असमय मृत्यु हो गई। बताया जाता है कि उनकी पहली पत्नी श्यामा टीबी से ग्रसित थीं। कहा जाता है कि श्यामा बच्चन के निधन के बाद हरिवंश राय बच्चन  काफी दुःखी हुए तथा अवसाद में भी चले गए। बाद में उनकी दूसरी शादी तेजी सूरी से हुई, जो उनके जीवन में एक बड़ा बदलाव लेकर आईं। तेजी बच्चन केवल एक जीवनसंगिनी ही नहीं थीं बल्कि उनके लेखन में प्रेरणा का स्रोत भी थीं।

हिंदी सिनेमा में सदी के नायक के रूप में विख्यात अमिताभ बच्चन, हरिवंश राय बच्चन और तेजी बच्चन के ही पुत्र हैं। अमिताभ बच्चन ने अपने पिता और माता की पहली मुलाकात कैसे हुई इस विषय में अपने रियलिटी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति‘ के दौरान बताया था। अमिताभ बच्चन ने मां तेजी से पिता की मुलाकात के बारे में बताया, ‘बरेली में उनके एक दोस्त थे और उन्हें उनसे मिलने के लिए इन्वाइट किया गया था। मेरे पिता उनसे मिलने गए। रात के खाने के दौरान, उनसे एक कविता सुनाने का अनुरोध किया गया। लेकिन इससे पहले कि मेरे पिता शुरू कर पाते, उनके दोस्त ने अपनी पत्नी से तेजी को बुलाने के लिए कहा। यहीं उनकी मुलाकात तेजी से हुई थी।‘ अमिताभ बच्चन ने बताया उस समय उनके पिता ने ‘क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी‘ कविता पढ़ी थी, जिसे सुनकर तेजी की आँखों में आँसू आ गए। यहीं से हरिवंश राय बच्चन ने निश्चय किया कि वह तेजी सूरी से शादी करेंगे।

ये तो हुईं इनके व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी कुछ बातें। लेकिन बच्चन का नाम आते ही इनकी ‘मधुशाला‘, ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर‘, ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ‘ जैसी रचनाएं स्वतः मस्तिष्क में आ जाती हैं। इन्होंने हिंदी साहित्य में रचना कर्म के द्वारा अमूल्य योगदान दिया। समय की दृष्टि से देखें तो हरिवंश राय बच्चन का साहित्यिक जीवन हिंदी साहित्य के छायावाद और प्रगतिवाद के बीच का सेतु था। बता दें छायावाद और प्रगतिवाद हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अंतर्गत आने वाले कालखंड हैं जिनमें लिखी गयी रचनाओं की विशेषताओं के आढ़ार पर ये नामकरण किया गया। बच्चन छायावादी काव्य की संवेदनशीलता और प्रगतिवादी यथार्थवाद का अद्भुत संगम प्रस्तुत करते थे। उनकी रचनाएँ जीवन की कठिनाइयों, संघर्षों और उत्सवों को समान भाव से अभिव्यक्त करती थीं।

1935 में प्रकाशित ‘मधुशाला‘ उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है। इसमें 135 रुबाइयाँ हैं, जो प्रतीकात्मक शैली में लिखी गई हैं। ‘मधुशाला‘ में शराब, साकी, प्याला और मधुशाला को जीवन के संघर्षों और अनुभवों के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ‘मधुशाला‘ की निम्नलिखित पंक्तियाँ आज भी लोग गुनगुनाते हुए देखे जाते हैं– 

“मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीनेवाला,
‘किस पथ से जाऊँ?’
असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग अलग पथ बतलाते सब

पर मैं यह बतलाता हूँ –
‘राह पकड़ तू एक चला चल,
पा जाएगा मधुशाला“

जब ‘मधुशाला‘ प्रकाशित हुई, तो इसने हिंदी साहित्य में तहलका मचा दिया। इसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि लोग इसे पढ़ते हुए गुनगुनाने लगे। कहा जाता है कि मदिरालय जैसे शब्दों का प्रयोग करने के कारण गांधी जी नाराज हुए थे। इसी संदर्भ में एक बार हरिवंश राय बच्चन ने बताया कि महात्मा गांधी ने उनसे पूछा कि उन्होंने शराब और मधुशाला जैसे प्रतीकों का इस्तेमाल क्यों किया। इस पर बच्चन ने उत्तर दिया कि “मधुशाला” प्रतीक है और इसके माध्यम से वे जीवन की गहराइयों को व्यक्त करना चाहते थे। चूँकि उस समय विभाजन का दंश एक दम नया था इसलिए बच्चन ने गाँधी से कहा कि मैंने हिन्दू–मुस्लिम एकता के लिए यह काव्य लिखा। उन्होंने इस काव्य संग्रह की निम्न पंक्तियाँ भी गाँधी को सुनायीं– “बैर कराते मंदिर–मस्जिद, मेल कराती मधुशाला।” कहा जाता है कि उनके तर्कों को सुनकर तथा उनकी स्पष्टता से प्रभावित होकर गाँधी जी ने भी मधुशाला की प्रसंशा की।

इसके अतिरिक्त बच्चन ने अपनी आत्मकथा भी लिखी। ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’ नामक शीर्षकों में अपनी आत्मकथा लिखी। आत्मकथा के इन चारों खंडों में उन्होंने अपने जीवन के हर पहलू को खुलकर साझा किया है, जिसमें उनके व्यक्तिगत संघर्ष, साहित्यिक यात्रा, और परिवारिक जीवन के महत्वपूर्ण क्षण शामिल हैं।

‘दो चट्टानें‘ नामक एक प्रसिद्ध कविता संग्रह भी इन्होंने लिखा। इसमें स्वतंत्रता के बाद के भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों को प्रतिबिंबित करती है। इस रचना के लिए इन्हें 1968 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बच्चन अपने समय के साहित्यकारों से भी अनेक कार्यक्रमों के दौरान मिला करते थे। उस समय के प्रमुख साहित्यकारों, जैसे कि सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, के साथ उनका काफी जुड़ाव था। वे अक्सर मिलकर साहित्य और जीवन पर चर्चा करते थे। कहा जाता है कि एक बार निराला ने मजाक में कहा, “बच्चन, तुम मधुशाला में खो गए हो, पर सच कहूँ, तुम्हारी शराब हमें नई दृष्टि देती है।“

बच्चन की ख्याति कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में भी खूब फैली थी। एक प्रसंग के अनुसार कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान, हरिवंश राय बच्चन ने भारतीय कविता को अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत किया। उन्होंने ‘मधुशाला‘ की कुछ पंक्तियाँ सुनाईं, जो विदेशी श्रोताओं को भी बेहद पसंद आईं। यह उनके लिए गर्व का क्षण था।

हरिवंश राय बच्चन का जीवन साहित्य तक ही सीमित नहीं रहा। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्रता के बाद के राजनीतिक जीवन से भी जुड़े रहे। वर्ष 1966 में बच्चन राज्यसभा के सदस्य बनाए गए। इस दौरान उन्होंने भारतीय संस्कृति और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए। वे भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) के भी सदस्य रहे, जहाँ उन्होंने भारतीय साहित्य को विश्व मंच पर प्रस्तुत करने में योगदान दिया।

इस तरह साहित्य और राजनीति में अपना योगदान देते हुए 18 जनवरी 2003 को बच्चन ने इस संसार से विदा ले ली। इनके कार्यों के लिए इन्हें अनेक पुरस्कार भी प्राप्त हुए। उन्हें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार‘ तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के ‘कमल पुरस्कार‘ से भी सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउंडेशन ने उनकी आत्मकथा के लिए उन्हें सरस्वती सम्मान दिया था। 1955 में इंदौर के ‘होल्कर कॉलेज‘ के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन ने हरिवंश राय बच्चन को कवि सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया था। हरिवंश राय बच्चन को भारत सरकार द्वारा सन् 1976 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। हरिवंश राय बच्चन का जीवन और उनकी कृतियाँ हमें यह सिखाती हैं कि जीवन के हर अनुभव को एक नई दृष्टि से देखना चाहिए। उनकी कविताएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी अपने समय में थीं। साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।

अंत में बच्चन की लिखी हुई ये पंक्तियाँ इस लेख को समाप्त करने के लिए उपयुक्त प्रतीत होती हैं– 

जो बीत गई सो बात गई,
जीवन में एक सितारा था,
माना वह बेहद प्यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया।

 

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