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PoK वापस लेने के लिए अमेरिका भारत का साथ दे: अमेरिकी प्रतिनिधि मार्क ग्रीन

Aniket Raj द्वारा Aniket Raj
19 August 2021
in चर्चित
PoK वापस लेने के लिए अमेरिका भारत का साथ दे: अमेरिकी प्रतिनिधि मार्क ग्रीन
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अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता परिवर्तन के बाद जियोपॉलिटिक्स में एक भूचाल आ चुका है। एक तरफ अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के वापस जाने का कई लोग विरोध कर रहे हैं तो वहीं कई लोग अब भविष्य के लिए अपनी चिंता जता रहे हैं। इसी क्रम में 17 अगस्त 2021 को अमेरिकी डिजिटल मीडिया ‘द हिल’ में अमेरिकी प्रतिनिधि मार्क ग्रीन का एक लेख छपा। इस लेख में यह बताया गया था कि आखिर कैसे अमेरिका भारत के साथ मिलकर तालिबान के निरंकुश शासन को नियंत्रित कर सकता है। इस लेख के जरीय उन्होंने तालिबान को नियंत्रित करने के लिए जम्मू-कश्मीर की महत्ता पर ज़ोर दिया है। उन्होंने बाइडन प्रशासन से भारत के उत्तर-पश्चिम में अमेरिकी सेना को तैनात करने का आह्वान किया है, जिसका अर्थ अफगानिस्तान की सीमा से लगे क्षेत्रों है – जैसे गिलगिट बाल्टिस्तान, तथा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके)।

उन्होंने बताया है कि, ‘भारत के 15 अगस्त 2021 को अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से घर वापसी कर ली, जिसने भी तालिबान के खिलाफ इस जंग मे अमेरिका या अमेरिका समर्थित सरकार का प्रत्यक्ष रूप से समर्थन किया वो पलायन कर गया। तालिबान की मदद से अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत संघ को उखाड़ फेंका था परंतु, कालचक्र का पहिया घूमा और आज उसी तालिबान ने अमेरिका और समर्थित सरकार को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया। अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से निकलने के कारण जो भी रहें हो लेकिन पैदा हुए इस नीति निर्वात से अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने वाला अमेरिका बहुत व्यथित और आशंकित है। सबसे बड़ी आशंका तो इस बात को लेकर है कि आखिर अफ़ग़ानिस्तान मे लोकतान्त्रिक मूल्यों और मानवाधिकार का क्या होगा? अमेरिकी नीति और वर्चस्व का क्या होगा? कही अफ़ग़ानिस्तान आज के ‘सोवियत संघ’ (चीन)के जकड़ में तो नहीं फंस जाएगा?’

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और पढ़ें: 1996 में, UAE और सऊदी तालिबान का समर्थन करने वाले पहले देश थे, इस बार ऐसा नहीं होगा

‘द हिल’ में मार्क ग्रीन के द्वारा लिखी गयी इस लेख में इन्हीं आशंकाओं का समाधान तलाशने की कोशिश की गयी है।‘द हिल’ एक अमेरिकी डिजिटल मीडिया कंपनी है,जिसकी शुरुआत 1994 में एक समाचार पत्र प्रकाशक के रूप में हुई थी। मार्क ग्रीन के अनुसार भारत में एक त्वरित प्रतिक्रिया बल अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन के सबसे खराब स्तर को रोक सकता है। पाकिस्तान और चीन के अनुचित कब्ज़े के कारण वास्तविक रूप से अफ़ग़ानिस्तान और हिंदुस्तान कि सीमा आपस में नहीं मिलती। दुर्भाग्यवश, जिन देशों के साथ अफ़ग़ानिस्तान की सीमा मिलती है, उनमें से कोई अमेरिका का सहयोगी नहीं है। चीन और रूस तो धुरविरोधी है तथा पाक भी कभी सच्चे मन से अमेरिका का साथ नहीं दे सका है। वर्षों से पाकिस्तान के अफगान तालिबान के साथ घनिष्ठ लेकिन जटिल संबंध रहे हैं। वास्तव में, यह पाकिस्तान के समर्थन के कारण था कि तालिबान 1994 में अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता पर कब्जा करने में सक्षम था। इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि पाकिस्तान की इंटर-सर्विस इंटेलिजेंस ने तालिबान का गुप्त समर्थन जारी रखा है। एक पूर्व पाकिस्तानी सीनेटर ने हाल ही में आरोप लगाया था कि उनके देश के जनरलों ने तालिबान को पूरी तरह से समर्थन दिया और कई पाकिस्तान में तालिबान के लिए सार्वजनिक रूप से जयकार कर रहे हैं। अतः अब अमेरिका अफगान में खुद के हितों को बनाए रखने के लिए भारत पर निर्भर है।

और पढ़ें: राष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह: अफ़ग़ानिस्तान के नए राष्ट्रपति और तालिबान के खिलाफ अंतिम उम्मीद

भारत एक ऐसा देश है जिसने समय समय पर अमेरिका की मदद कर खुद को अच्छा सहयोगी साबित किया है। भारत अफ़ग़ानिस्तान सीमा के सबसे नजदीक होने के साथ साथ चीन को रोकने का माद्दा भी रखता है। मार्क ग्रीन अपने लेख में उद्धृत करते हुए लिखतें है- ‘’हम अफ़ग़ानिस्तान में एक पूर्ण खुफिया ब्लैकआउट बर्दाश्त नहीं कर सकते। हम जानते हैं कि तालिबान ने अल-कायदा के साथ अपने संबंध बनाए रखे हैं और अफ़ग़ानिस्तान को फिर से आतंकवादी नेटवर्क के लिए पनाहगाह बनने से रोकने के लिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। हमें अफ़ग़ानिस्तान में जमीन पर अपने कान रखने और इस क्षेत्र में क्या हो रहा है, इस पर नजर रखने के तरीके खोजने चाहिए।‘’ उनके इस कथन के पीछे ठोस कारण हैं। उन्होंने बताया है कि अमेरिका जानता है कि अफ़ग़ानिस्तान में यूएस का पूर्ण खुफिया ब्लैकआउट राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक है। चीन के ‘वन बेल्ट, वन रोड’ कि नीति साकार हो जाएगी और हिन्द महासागर पर उसकी निर्भरता भी कम हो जाएगी, जिससे भारत के लिए उसे रोकना बहुत मुश्किल हो जाएगा खासकर दक्षिणी चीन सागर में।ईरान और तुर्कमेनिस्तान के साथ भी उसके संबंध जगजाहिर है।

और पढ़ें: ‘जांच तो होकर रहेगी, चाहे जितना रो लो’, ऑस्ट्रेलिया ने ड्रैगन को उसी की भाषा में मजा चखा दिया

भारत अगर अमेरिका को सहयोग करने का फैसला करता है तो बात बन सकती है। यह कदम भारत के सुरक्षा, अफ़ग़ानिस्तान मे उसके निवेश और चीन के महत्वाकांक्षी ‘वन बेल्ट, वन रोड’ परियोजना पर भी अंकुश लगाएगी। यह नीति ‘एक तीर से दो काज’ के समान है। नई दिल्ली से काबुल की दूरी लगभग 1860 किमी है। अगर भारत के उत्तर-पश्चिम के सुदूर सीमाओं के परिपेक्ष्य से देखें तो अफ़ग़ानिस्तान का दक्षिण-पूर्वी सीमा काफी नजदीक है। महज कुछ सौ मील। लेकिन अगर इस भौगोलिक स्थिति में POK को जोड़ लें तो स्थिति एकदम साफ हो जाती है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर 13,297 वर्ग किमी का क्षेत्रफल है। 1963 में, एक समझौते के माध्यम से पाकिस्तान ने काराकोरम से परे, उत्तरी कश्मीर में शक्सगाम क्षेत्र में, अपने नियंत्रण वाले जम्मू-कश्मीर की 5,000 वर्ग किमी से अधिक भूमि चीन को सौंप दी जिससे मामला थोड़ा जटिल हो गया है।

उधर गिलगित-बाल्टिस्तान, जो कि POK के उत्तर में और खैबर पख्तूनख्वा के पाकिस्तानी प्रांत के पूर्व में एक सुरम्य, पहाड़ी क्षेत्र है, वह भी रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। अगर भारत अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान तक कि पहुँच देना चाहता है तो इन दोनों क्षेत्रों को अपने कब्ज़े मे लेना अनिवार्य है। अगर अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में अपना वर्चस्व चाहता है, तो उसे भारत को यह जगह जीतने में कूटनीतिक और सामरिक रूप से मदद करनी पड़ेगी। आनेवाले समय मे इसकी प्रबल संभावना है।

अगर भारत चाहे तो क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के सैन्य अड्डे और उपकरण स्थापित कर सकता है,तो महज कुछ सौ मील दूर अफ़ग़ानिस्तान पर नज़र रख सकता है। अफ़ग़ानिस्तान पर नज़र जितनी साफ होगी और वह तक पहुँचने में समय जितना कम लगेगा तालिबान पर और उसके साथ-साथ चीन और पाकिस्तान पर भी नियंत्रण उतना ही मजबूत होगा और खतरा उतना ही कम होगा। आतंकी अड्डो पर उतनी ही सुगमता से कारवाई की है। भारत और अमेरिका निगरानी और लंबी दूरी के स्टील्थ ड्रोन और ग्राउंड सेंसर का उपयोग कर सकते हैं, जिससे भारत और यू.एस. की संपत्ति और कर्मियों के लिए जोखिम बहुत कम हो जाएगा। परंतु, भारत को थोड़ा सतर्क रहने कि ज़रूरत है। अमेरिका और रूस के हश्र से भी सीखना होगा वरना इस निर्णय के दूरगामी परिणाम होंगे।

 

Tags: अफ़ग़ानिस्तानअमेरिका
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