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अमित शाह के चेलों-चमचों…, तेजस्वी की धमकी और बिहार के ‘जंगलराज’ की यादें

तेजस्वी यादव जब मंच से अमित शाह के चेलों-चमचों कहकर प्रशासनिक अधिकारियों को धमकी देते हैं, तो यह केवल एक दल या व्यक्ति पर हमला नहीं होता, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ प्रशासनिक निष्पक्षता पर हमला होता है।

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
29 October 2025
in क्राइम, चर्चित, बिहार डायरी, मत, राजनीति, समीक्षा
अमित शाह के चेलों-चमचों…”, तेजस्वी की धमकी और बिहार के ‘जंगलराज’ की यादें

तेजस्वी यादव को समझना होगा कि लोकतंत्र में सत्ता का अधिकार नहीं, बल्कि दायित्व मिलता है।

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बिहार के राजनीतिक मंचों पर शब्दों की मर्यादा कब की टूट चुकी है। लेकिन जब कोई पूर्व उपमुख्यमंत्री, जो स्वयं को एक नये दौर का चेहरा बताता है, खुले मंच से चुनाव अधिकारियों को यह चेतावनी देता है कि जो अमित शाह से मिलकर गड़बड़ी करेगा, उसे सरकार आने पर ऐसी सजा मिलेगी जो सोच भी नहीं सकते, तब यह महज़ एक बयान नहीं रह जाता, यह उस राजनीति की वापसी का संकेत है जिसने कभी बिहार को अराजकता, भय और सत्ता-हिंसा का पर्याय बना दिया था। तेजस्वी यादव का यह बयान केवल चुनावी उत्तेजना का परिणाम नहीं है, यह बिहार के उस अतीत की छाया है जिसे देश ने कठिन संघर्ष के बाद पीछे छोड़ा था ‘जंगलराज’।

तेजस्वी यादव जब मंच से अमित शाह के चेलों-चमचों कहकर प्रशासनिक अधिकारियों को धमकी देते हैं, तो यह केवल एक दल या व्यक्ति पर हमला नहीं होता, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ प्रशासनिक निष्पक्षता पर हमला होता है। यह वही मानसिकता है, जिसने नब्बे के दशक में बिहार को ‘कानूनविहीन प्रदेश’ बना दिया था, जहां थाने, ब्लॉक और सचिवालय किसी दलाल या बाहुबली की चौपाल में बदल चुके थे। तेजस्वी के पिता लालू प्रसाद यादव उस दौर के प्रतीक थे, जब शासन का अर्थ कानून नहीं, बल्कि वफादारी और जातीय समीकरणों से तय होता था।

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सत्ता से अपराध और अपराध से सत्त का चक्र

बिहार का ‘जंगलराज’ शब्द कोई राजनीतिक आविष्कार नहीं था, यह जनता के अनुभव से उपजा शब्द था। 1990 से 2005 के बीच जब लालू प्रसाद और बाद में राबड़ी देवी का शासन चला, तब अपराध चरम पर था। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े बताते हैं कि 1990 के दशक के मध्य में बिहार हत्या और अपहरण की घटनाओं में देश में पहले स्थान पर था। 1995 से 2005 के बीच औसतन हर दिन 15 हत्याएं और 8 अपहरण दर्ज होते थे। व्यापारियों, डॉक्टरों, इंजीनियरों के अपहरण से लेकर गांवों में सामूहिक नरसंहारों तक बिहार भय का राज्य बन चुका था। प्रशासन पूरी तरह राजनीतिक संरक्षण में बंधक था। पुलिस अधिकारी यदि किसी बाहुबली पर कार्रवाई करने की हिम्मत जुटाते, तो अगले ही दिन उनका तबादला किसी दुर्गम इलाके में कर दिया जाता। यही वह दौर था जब अपराध और राजनीति का विलय हुआ ‘सत्ता से अपराध, और अपराध से सत्ता’ का चक्र।

ऐसे में तेजस्वी यादव का यह कहना कि जो अधिकारी अमित शाह से मिलकर बेईमानी करेगा, उसे सजा मिलेगी केवल चुनावी भाषण नहीं, बल्कि वही भय का तंत्र है जिसे बिहार ने 15 साल झेला है। यह एक नयी पीढ़ी के नेता की जुबान से पुरानी राजनीति की गंध है, जहां प्रशासनिक अधिकारी जनता के सेवक नहीं, किसी दल के सेवक बन जाने के लिए विवश कर दिए जाते हैं। लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि प्रशासनिक मशीनरी निष्पक्ष रहे। लेकिन तेजस्वी का यह बयान उस मूलभूत भावना को कुचलता है।

यह भी गौर करने की बात है कि तेजस्वी ने जिस अमित शाह का नाम जोड़कर अपने विरोधियों पर निशाना साधा, वे न केवल केंद्रीय गृह मंत्री हैं बल्कि देश की कानून-व्यवस्था के संरक्षक भी हैं। जब कोई क्षेत्रीय नेता गृह मंत्री के नाम का उपयोग किसी प्रकार की धमकी या आरोप के रूप में करता है, तो यह न केवल संवैधानिक गरिमा का हनन है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श को निम्न स्तर पर ले जाने की कोशिश भी है। इसीलिए, यह विवाद केवल बिहार का नहीं, बल्कि उस भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने का है जो अपने संस्थानों की निष्पक्षता पर टिका है।

भाषण में मिलती है लालू युग की झलक

तेजस्वी यादव की राजनीति का विरोध करने वाले कहते हैं कि उनके हर भाषण में लालू युग की झलक मिलती है, चाहे वह जातीय गोलबंदी हो या प्रशासनिक अधिकारियों को हमारा-उनका में बांट देना। 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव ने ‘भूराबाल साफ करो’ का नारा दिया था, यानी भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला जो तब ऊंची जातियों के प्रतीक माने जाते थे। वह नारा सामाजिक न्याय के नाम पर आया, लेकिन व्यावहारिक रूप से उसने बिहार को जातीय द्वेष की आग में झोंक दिया। शासन-प्रशासन में पदस्थ अधिकारी अपनी जातीय पहचान के आधार पर देखे जाने लगे। अपराधी गिरोहों का गठन भी जातीय रेखाओं पर हुआ। नतीजा यह हुआ कि कानून, नैतिकता और शासन का बुनियादी ढांचा ही ध्वस्त हो गया।

तेजस्वी यादव, जो स्वयं लालू युग की राजनीतिक विरासत के उत्तराधिकारी हैं, बार-बार यह कहते हैं कि वह नये बिहार की राजनीति कर रहे हैं, विकास, रोजगार और आधुनिकता की। लेकिन उनके शब्दों में जब ‘अमित शाह के चेलों-चमचों’ जैसी अभिव्यक्तियां झलकती हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि मानसिकता अब भी वही है विरोधियों को शत्रु और प्रशासन को पार्टी का औजार मानने की। यह वही मानसिकता है जिससे बिहार को उबरने में डेढ़ दशक लगे। नीतीश कुमार और बाद में भाजपा के साथ गठबंधन के दौर में बिहार ने प्रशासनिक सुधार, कानून-व्यवस्था, सड़क और शिक्षा में जो स्थिरता पाई, वह इसी ‘राजनीतिक दादागीरी’ के अंत से शुरू हुई थी।

2005 के बाद के बिहार में सबसे बड़ा परिवर्तन यह था कि आम आदमी को पहली बार पुलिस थाने में अपनी शिकायत दर्ज कराने का साहस हुआ। महिला अपराधों में कमी, सड़क निर्माण, विद्यालयों में उपस्थिति, और बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं में सुधार ये सब एक ऐसे राज्य में संभव हुए जिसे कभी देश का ‘सिरदर्द’ कहा जाता था। लेकिन राजनीति की विडंबना यही है कि स्मृतियां छोटी और नारों का असर बड़ा होता है। तेजस्वी यादव उसी विस्मरण की राजनीति खेल रहे हैं। वे यह दिखाना चाहते हैं कि जैसे केंद्र सरकार या अमित शाह बिहार के चुनाव में किसी छिपे तरीके से दखल दे रहे हैं, ताकि वे स्वयं को पीड़ित नायक के रूप में प्रस्तुत कर सकें। यह वही रणनीति है, जिसे उनके पिता लालू प्रसाद यादव ने केंद्र की कांग्रेस सरकारों के विरुद्ध बार-बार अपनाया था ‘दिल्ली हमें दबा रही है’, ‘हम गरीबों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं’।

लेकिन असल सवाल यह है कि क्या यह बयानबाज़ी उस पीढ़ी को प्रभावित करेगी जिसने लालू-राज का भय नहीं झेला? बिहार का युवा आज रोज़गार, उद्योग और शिक्षा की बात करता है। 2024 के बाद का भारत राजनीतिक चेतना के एक नये दौर में प्रवेश कर चुका है, जहां लोग जाति से ऊपर उठकर स्थिर शासन, सुरक्षा और राष्ट्रहित को प्राथमिकता देते हैं। जब तेजस्वी यादव चुनावी मंच से बेईमानी की ‘ब’ भी दिमाग में मत लाना कहकर अधिकारियों को धमकाते हैं, तो यह नया मतदाता उस स्वर को वैसा नहीं सुनता जैसा 1990 के दशक में सुना जाता था। उसे यह बयान नयी उम्मीद नहीं, पुराने भय की याद दिलाता है।

राष्ट्र की अखंडता पर हमला

राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से देखें तो यह बयान केवल बिहार की सीमा तक सीमित नहीं है। भारत में जब भी कोई क्षेत्रीय दल प्रशासनिक संस्थानों को धमकाने या उन पर आरोप लगाने की भाषा अपनाता है, तो वह सीधे राष्ट्र की संस्थागत अखंडता पर आघात करता है। अगर हर राज्य का नेता यह कहने लगे कि केंद्र के अधिकारी या नेता उसके राज्य के चुनाव में हस्तक्षेप कर रहे हैं, तो भारत का संघीय ढांचा अराजकता में बदल जाएगा। लोकतंत्र में मतदाताओं की अदालत सर्वोच्च होती है, लेकिन प्रशासनिक निष्पक्षता उस अदालत की नींव है।

राष्ट्रवादी सोच यह कहती है कि संस्थानों का सम्मान किसी भी दल या व्यक्ति से ऊपर होना चाहिए। भारत का संविधान इस सिद्धांत पर खड़ा है कि शासन बदल सकता है, लेकिन संस्थान स्थायी रहेंगे। बिहार के ‘जंगलराज’ में यही सिद्धांत टूटा था, वहां व्यक्ति संस्था से बड़ा हो गया था। आज जब तेजस्वी जैसे नेता वही पुरानी भाषा बोलते हैं, तो वे उसी इतिहास को पुनर्जीवित करने का प्रयास करते हैं जिसने बिहार को पिछड़ेपन की गर्त में धकेल दिया था।

इस संदर्भ में यह भी याद करना होगा कि लालू यादव के शासन में सिर्फ अपराध ही नहीं, बल्कि आर्थिक बर्बादी भी चरम पर थी। 1990 में बिहार का प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का लगभग 70 प्रतिशत था, जो 2005 तक घटकर 37 प्रतिशत रह गया। निवेश ठप था, उद्योग भाग चुके थे, और युवाओं का पलायन उत्तर भारत से लेकर मुंबई तक बढ़ गया था। प्रशासनिक भ्रष्टाचार इतना गहरा था कि सरकारी नौकरियों में रेट-कार्ड खुलेआम चलते थे। यही कारण था कि बिहार के लाखों परिवार रोज़ी-रोटी के लिए दिल्ली, पंजाब और गुजरात की फैक्ट्रियों में पहुंचे। क्या वही प्रणाली फिर लौटेगी, जहां अधिकारी अपने विवेक से नहीं, डर से काम करेंगे?

तेजस्वी यादव कहते हैं कि उन्होंने 17 महीने में युवाओं को नौकरी दी। लेकिन अगर किसी नेता की प्राथमिक नीति नौकरी से अधिक धमकी पर आधारित हो, तो वह युवाओं का भविष्य नहीं बना सकता। यह बयान इस बात का भी संकेत है कि जब विचार और दृष्टि कमज़ोर होती है, तो भाषा हिंसक हो जाती है। तेजस्वी को यह याद रखना चाहिए कि प्रशासनिक अधिकारियों को डराने से चुनाव नहीं जीते जाते, लोकतंत्र में मतदाता उस नेता को चुनता है जो कानून का सम्मान करे, न कि जो कानून को झुका दे।

बिहार का उदाहरण यह दिखाता है कि जब शासन व्यवस्था अपनी संस्थागत नैतिकता खो देती है, तो देश की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताना-बाना तक प्रभावित होता है। एक अस्थिर बिहार न केवल बिहार की समस्या है, बल्कि पूरे भारत की स्थिरता के लिए चुनौती है। केंद्र सरकार की नीति हमेशा यही रही है कि राज्यों में शासन स्थिर, पारदर्शी और अपराधमुक्त रहे। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह तक बार-बार प्रशासनिक निष्पक्षता और सुशासन को राष्ट्रीय प्राथमिकता बताते रहे हैं। तेजस्वी यादव का बयान इसी राष्ट्रीय नीति पर हमला है।

आखिर क्या संदेश देना चाह रहे तेजस्वी

बिहार आज उस मोड़ पर खड़ा है, जहां जनता के सामने दो तस्वीरें हैं, एक वह जो विकास, कानून और स्थिरता की है, और दूसरी वह जो अराजकता, जातीय राजनीति और भय की है। तेजस्वी यादव ने जिस भाषा में अधिकारियों को धमकाया, उसने यह स्पष्ट कर दिया कि अगर ‘महागठबंधन’ सत्ता में आया, तो प्रशासनिक भय फिर लौटेगा। लेकिन इस बार देश और बिहार की जनता पहले से कहीं अधिक सजग है। उन्हें यह समझ है कि लोकतंत्र का अर्थ केवल वोट डालना नहीं, बल्कि उन संस्थाओं की रक्षा करना भी है जो उस वोट की पवित्रता सुनिश्चित करती हैं।

बिहार के जंगलराज के दौरान देश ने यह देखा था कि जब शासन अपराधियों के हाथों में चला जाता है तो सिर्फ बिहार नहीं, पूरा भारत उसकी कीमत चुकाता है। आतंकवाद और नक्सलवाद को जिस तरह का आश्रय उस दौर में मिला, वह आज भी सुरक्षा एजेंसियों की स्मृति में दर्ज है। राष्ट्रवादी सोच इसलिए कहती है कि राज्य का शासन राष्ट्र के अनुशासन से जुड़ा होता है। जब कोई नेता प्रशासन को धमकाता है, तो वह राष्ट्र के अनुशासन को चुनौती देता है।

तेजस्वी यादव को समझना होगा कि लोकतंत्र में सत्ता का अधिकार नहीं, बल्कि दायित्व मिलता है। उस दायित्व की पहली शर्त है, संस्थाओं का सम्मान। अगर वह सचमुच नये बिहार की राजनीति करना चाहते हैं, तो उन्हें उसी मंच से यह कहना चाहिए था कि जो अधिकारी निष्पक्षता से काम करेंगे, उनका सम्मान होगा। लेकिन उन्होंने उल्टा कहा कि जो अमित शाह से मिलकर गड़बड़ी करेगा, उसे सजा मिलेगी। यही अंतर है राजनीति और राष्ट्रनीति में।

राष्ट्रनीति कहती है कि अधिकारी चाहे किसी भी सरकार में हों, वे भारत के संविधान के प्रति जवाबदेह हैं, किसी दल के प्रति नहीं। बिहार ने इस सिद्धांत को भूला तो ‘जंगलराज’ आया था, और जब याद किया तो सुशासन लौटा। आज का बिहार उसी मोड़ पर खड़ा है, जहां उसे तय करना है कि वह फिर अराजकता की ओर लौटेगा या राष्ट्र के अनुशासन के साथ आगे बढ़ेगा।

तेजस्वी यादव के बयान ने बिहार के अतीत के घावों को फिर से कुरेद दिया है। यह हमें याद दिलाता है कि सत्ता की राजनीति कितनी जल्दी लोकतंत्र की मर्यादाओं को निगल सकती है। लेकिन यह भी सत्य है कि अब भारत वही 1990 का भारत नहीं रहा। यह वह भारत है जो किसी नेता की धमकी से नहीं, अपने संविधान की शक्ति से चलता है। बिहार की जनता ने जंगलराज को भुगता है, और अब उसके पास इतना अनुभव है कि वह यह पहचान सके कौन नेता लोकतंत्र को मजबूत करेगा और कौन फिर से उसे अपने डर की राजनीति में बांधना चाहता है।

राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से देखें तो यह घटना केवल एक भाषण नहीं, बल्कि एक चेतावनी है, उस मानसिकता के खिलाफ जिसने कभी बिहार को अंधकार में धकेला था। लोकतंत्र की रक्षा तभी होगी जब जनता उस हर विचारधारा को अस्वीकार करे जो अधिकारी को गुलाम, और शासन को अपनी जागीर समझती है। तेजस्वी यादव का यह बयान शायद क्षणिक लोकप्रियता दिला दे, लेकिन यह बिहार की आत्मा को चोट पहुंचाता है, वह आत्मा जिसने कानून, व्यवस्था और विकास के लिए वर्षों संघर्ष किया है।

इसलिए, आज बिहार को फिर से यह तय करना है कि वह किस ओर जाएगा, संस्थागत अनुशासन की दिशा में या जंगलराज की वापसी की ओर। और यह निर्णय सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि राष्ट्र का निर्णय होगा। क्योंकि राष्ट्र की परिभाषा सिर्फ सीमा या झंडे से नहीं, बल्कि उसके कानून के सम्मान से होती है। जो नेता उस सम्मान को ठुकराता है, वह चाहे कितना भी युवा हो, नयी सोच का दावेदार नहीं हो सकता, वह बस पुराने अराजक अध्याय की पुनरावृत्ति है।

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