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वो युद्ध जब मराठाओं ने टीपू को बुरी तरह हराया, उसका किला जीता, और मोटी रकम वसूली

EX-EMPLOYEE द्वारा EX-EMPLOYEE
2 November 2017
in इतिहास
टीपू मराठाओं
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विन्द्य पर्वतमाला के दक्षिण में कभी भी किसी एक शक्ति का एकाधिकार नहीं रहा। अधिकांशतः इस क्षेत्र में विभिन्न शक्तियों के मध्य त्रिपक्षीय संघर्ष देखा गया है। इसमें से एक संघर्ष 10 वीं शताब्दी में चेरा, पांडिया या चोल राज्यों के मध्य हुआ और एक 18 वीं शताब्दी में निजाम, टीपू और मराठा राज्यों के मध्य हुआ। 1761 में, पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठाओं को पराजय का सामना करना पड़ा और इस युद्ध में हुई पराजय ने मराठाओं को कुछ समय के लिए शक्तिहीन कर दिया। इसी अवधि के दौरान मैसूर और हैदराबाद में दो नए शासकों के रुप में हैदर अली और निजाम उभरकर सामने आए। इसी दौरान मराठा साम्राज्य ने माधव राव को पेशवा की उपाधि से सम्मानित किया और पेशवा माधव राव ने यह सुनिश्चित भी किया कि अभी भी मराठाओं की शक्ति में बहुत अधिक ह्रास नहीं हुआ है, वे चाहे तो पुन: उस शक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।

इस प्रकार, मराठाओं ने सबसे पहले पानीपत के युद्ध में हुई अपनी पराजय और अपने नुकसान का बदला लेने के लिए हैदर अली और उसके बाद उसके पुत्र टीपू सुल्तान के संपूर्ण साम्राज्य को पूरी तरह से नष्ट करने का कार्य किया। 1764 से 1772 के मध्य, मराठाओं ने मुरारराव घोरपड़े के नेतृत्व में हुए युद्धों की एक श्रृंखला में हैदर अली को पराजित किया। हैदर अली, इस पराजय के बाद मराठा से बदला लेने के लिए बेताब हो उठा और उसने अपना बदला लेने के लिए एक ऐसे समय का चुनाव किया, जब 1775 से 1782 के मध्य मराठा साम्राज्य अपने आंतरिक विवादों को सुलझाने में व्यस्त था, इस अवधि में हुए युद्ध को प्रथम एंग्लो मराठा युद्ध के रुप में जाना जाता है। 1776 में, हैदर अली ने मुरारराव घोरपड़े के गृहनगर गूटी को चारों ओर से घेर लिया और उसे अपना बंदी बना लिया, आजीवन कारावास के तहत एक कैदी के रुप में ही उसकी मृत्यु हो गई, मुरारराव घोरपड़े को, हैदर अली की कैद से छुड़ाने में मराठाओं के हाथ कोई सफलता नहीं लगी।

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“वोट के लिए हमारे पूर्वजों को अपमानित किया जा रहा”, टीपू सुल्तान के कथित वंशज राजनेताओं के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेंगे

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इससे प्रोत्साहित होकर हैदर अली, निरन्तर आगे बढ़ता गया और उसने दत्तवाड़, गजेंद्रगढ़ जैसे राज्यों पर अपना कब्जा कर लिया और ऐसे राज्यों,  जिन पर हैदर अली ने अभी-अभी कब्जा किया था, उन्हें एक अलग प्रांत के रूप में नामित किया।

अब मराठाओं ने अंग्रेजो के खिलाफ अपने नए सेनापति के रुप में नाना फड़णवीस का चुनाव किया, जिनके नेतृत्व मे उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई, इसके पश्चात मराठाओं ने टीपू सुल्तान से बदला लेने का निर्णय लिया, जो उस समय मैसूर के सम्राट थे।

मराठाओं ने, टीपू सुल्तान के खिलाफ, युद्ध भूमि का नेतृत्व करने के लिए तुकोजी राव होलकर का चुनाव किया। जिन्हें हरिपंत फड़के और मलोजीराजे घोरपड़े जैसे महान सेनापतियों का समर्थन प्राप्त था। उस समय निजाम और हैदराबाद के शासक असफ जाह भी हैदर अली के अत्याचारों से परेशान हो चुके थे, उन्होंने भी हैदर अली और उसके पुत्र टीपू सुल्तान के खिलाफ, मराठाओं की मदद करने का निर्णय लिया और मराठाओं के साथ मिलकर एक संयुक्त सेना का निर्माण करके जून 1786 में, गजेंद्रगढ़ राज्य पर आक्रमण कर दिया।

मराठाओं की घुड़सवार सेना के सामने, टीपू सुल्तान की पैदल सेना, किसी भी रूप से मुकाबला करने योग्य नहीं थी, इसके साथ-साथ मराठाओं की सेना के सेनापति गणेश व्यंकजी के तहत मराठा तोपखाने भी निरन्तर टीपू सुल्तान की सेना पर कहर बरसा रहे थे। मराठाओं द्वारा युद्ध भूमि में तोप का प्रयोग करने से  मराठाओं की घुड़सवार सेना की ताक़त और अधिक बढ़ गयी। मराठा ने मैसूर की पैदल सेना को वहीं का वहीं रोक दिया और मराठाओं की घुड़सवार सेना ने, टीपू सुल्तान की पैदल सेना को दो फाड़ कर के रख दिया।

जिसका परिणाम टीपू सुल्तान के लिए अत्यधिक विनाशकारी सिद्ध हुआ। युद्ध में टीपू सुल्तान की सेना को से मराठाओं की सेना द्वारा घोर पराजय का सामना करना पड़ा।

मराठाओं ने, टीपू सुल्तान को न केवल गजेंद्रगढ़ के किले का आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर किया, बल्कि मराठाओं ने टीपू सुल्तान से युद्ध क्षतिपूर्ति के रुप में 48 लाख रुपये और वार्षिक कर के रुप में 12 लाख रुपये देने के लिए कहा और साथ ही मराठाओं ने टीपू सुल्तान को उन 4 बकाया राशियों का भुगतान करने के लिए भी कहा जो कि उनके पिता हैदर अली पर बकाया थीं।

गजेंद्रगढ़ का युद्ध, दक्कन के इतिहास की एक सबसे बड़ी ऐतिहासिक घटना थी क्योंकि इस युद्ध में दो-दो क्षेत्रीय महाशक्तियाँ शामिल थीं, अर्थात टीपू सुल्तान और मराठा दोनों यह भलीभाँति जानते थे कि वे एक दूसरे पर केवल अपनी शक्ति बर्बाद कर रहे हैं जोकि पूर्णतः व्यर्थ थी। उन्हें एहसास हुआ कि इस साधारण प्रतिशोध की जगह, उनके लिए अपना ध्यान ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर केंद्रित करना अधिक बेहतर होगा।

मराठा और मैसूर साम्राज्यों के बीच व्याप्त शत्रुता तब समाप्त हुई, जब पूर्व  मान्यता के आधार पर, मैसूर के नवाब का पद एक नये उत्तराधिकारी ने संभाला। ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनमें से किसी का भी साथ नहीं दिया, संकट के समय तटस्थ रहकर मराठाओं और टीपू सुल्तान दोनों को अत्यधिक क्रोधित कर दिया और ।

मराठाओं के आक्रामक युद्ध की वजह से, टीपू सुल्तान के साम्राज्य का विस्तार उत्तर और कृष्णा नदी के पूर्व दोनों ओर से बंद हो गया। टीपू सुल्तान की सैन्य प्रतिभा को लेकर उनकी अत्यधिक बढ़ा-चढ़ा कर प्रशंसा की जाती है परन्तु सच ये है कि मराठाओं, निजाम और आखिरकार अंग्रेजों ने भी टीपू सुल्तान को आसानी से पराजित किया था। टीपू सुल्तान रॉकेट साइंस में अग्रणी हो सकते थे, लेकिन उनकी तथाकथित प्रतिभा शायद ही कभी किसी युद्ध के क्षेत्र में दिखाई दी हो, उन्होंने कभी भी किसी शत्रु के खिलाफ कोई निर्णायक विजय हासिल नहीं की। सच कहे तो टीपू सुलतान के अंत की शुरुआत गजेंद्रगढ़ के युद्ध से ही प्रारम्भ हुआ।

Tags: टीपू सुल्तानमराठा
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