DMK की हिन्दू विरोधी प्रवृत्ति किसी से छुपी नहीं है। जिसके संस्थापक मुथुवेल करुणानिधि जैसा निकृष्ट हिन्दू विरोधी हो, जिन्होंने जीवन भर सनातन संस्कृति का अपमान किया और भारत का अहित चाहने वालों की स्तुति हो, ऐसे लोगों से हम और क्या आशा कर सकते हैं? लेकिन निर्लज्जता की सभी सीमाएँ लांघते हुए करुणानिधि के पुत्र और तमिलनाडू के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने घोषणा की है कि घोर हिन्दू विरोधी वामपंथी बुद्धिजीवी, ईवी पेरियार रामास्वामी के जन्मदिवस को सामाजिक न्याय दिवस के तौर पर मनाया जायेगा।
दरअसल, एमके स्टालिन के अनुसार, ‘पेरियार की विचारधारा सामाजिक न्याय, आत्मसम्मान, व्यवहारिकता एवं समानता के बारे में थी, और यही तमिल समाज के विकास का आधार स्तम्भ के रूप में भी सिद्ध हुआ है। यही तमिल समाज के भविष्य की नींव भी रखेगी। वामपंथियों के लिए ईवी पेरियार रामास्वामी एक आदर्श व्यक्तित्व है, जिन्होंने आयुपर्यंत एक स्वस्थ समाज के लिए अपना सर्वस्व अर्पण किया।’ इसी के मद्देनजर अब पेरियार रामास्वामी के जन्मदिवस को सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाए जाने का निर्णय लिया गया होगा।
परंतु जो दिखता है, जरूरी नहीं कि वही हो। पेरियार रामास्वामी वामपंथी थे, परंतु न तो वे समाज सुधारक थे, और न ही वे वात्सल्य से परिपूर्ण थे। वे एक निकृष्ट सनातन विरोधी थे, जिन्होंने तमिलनाडु में सनातन संस्कृति को हानि पहुंचाने में सर्वाधिक योगदान दिया है। इसी व्यक्ति ने ‘आर्यों के आक्रमण’ के फर्जी सिद्धांत को बढ़ावा देते हुए उत्तर और दक्षिण भारतीयों में वैमनस्य बढ़ाया, और इसी व्यक्ति के कारण अवैध धर्मांतरण को भी तमिलनाडु में बढ़ावा मिला।
पेरियार रामास्वामी का जन्म 17 सितंबर 1879 को हुआ था, यानि इनका और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिवस आश्चर्यजनक रूप से एक ही दिन पड़ता है। ये अपने आप को समाज सुधारक कहते थे, और तमिलनाडु को ‘धर्म’ के अंधकार से दूर ले जाना चाहते थे। अपने नास्तिक होने के पीछे वह अपनी काशी यात्रा का उदाहरण देते थे, जहां उन्होंने ‘गरीबी, भुखमरी और तैरती लाशें देखी।’ उनका मन तब उचट गया, जब उन्हें एक भोजनालय में सिर्फ इसलिए प्रवेश करने से मना किया गया, क्योंकि वे ब्राह्मण नहीं थे।
ये पूर्णतया असत्य है, क्योंकि काशी में उस समय भोजनालयों में जाति के आधार पर कोई आरक्षण का प्रावधान नहीं था। इसके अलावा पेरियार की मूल जाति नाइकर थी, जो शास्त्रों के अनुसार क्षत्रियों की श्रेणी में गिने जाते थे। ऐसे में उन्हें भोजन न दिए जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था।
ब्राह्मण विरोधी पेरियार
हालांकि, तब उस युग में सोशल मीडिया नहीं था जिससे पेरियार रामास्वामी के इन सफेद झूठों पर उँगलियाँ उठाई जा सकती थी। ऐसे में पेरियार रामास्वामी कुछ भी अनर्गल प्रलाप करते, उसे शाश्वत सत्य मान लिया जाता था। उसके अनुसार ब्राह्मणों का समाज में रहना इसलिए अस्वीकार्य है, क्योंकि वे ब्राह्मण के रूप में पैदा हुए थे। ब्राह्मण विदेशी थे, इसलिए उनका निष्कासित किया जाना आवश्यक है। इन्हीं खोखले दावों के आधार पर आज भी कई द्रविड़ राजनेता सनातन धर्म के अनुयाइयों, विशेषकर ब्राह्मणों को अपमानित करते रहते हैं।
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हालांकि, ये तो कुछ भी नहीं है। आज जो वामपंथी बड़े चाव से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी देशभक्ति पर उँगलियाँ उठाते फिरते हैं, वे पेरियार और अंग्रेज़ों के प्रति उनकी चाटुकारिता पर मौन व्रत साध लेते हैं। पेरियार ने 1919 में कांग्रेस जॉइन की थी, और असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया था, परंतु 1925 में जातिवाद का बहाना करके महोदय ने कांग्रेस छोड़ दी थी। 1929 से 1935 के बीच जब संसार आर्थिक तंगी से जूझ रहा था, तब पेरियार सोवियत संघ की सैर कर रहे थे। ये पेरियार ही थे, जिन्होंने द्रविड़ अभियान के नाम पर हिन्दी विरोध अभियान, सनातन संस्कृति को अपमानित करना और सनातनियों को खुलेआम धर्मांतरण के लिए भड़काने का काम करते थे। इसी पेरियार रामास्वामी ने खुलेआम मुहम्मद अली जिन्ना और उसके अलगाववादी विचारों का समर्थन किया, परंतु इन्हीं वामपंथियों को इसके बारे में उल्लेख करने पड़े, तो वे बगलें झाँकने लगते हैं। पेरियार रामास्वामी का यह भी कहना था कि वह हिंदू नहीं हैं। यही नहीं उन्होंने जनगणना (1980) में, तमिलनाडु के लोगों से यह अपील की कि जनगणना के दौरान वे अपने आप को हिंदू न कहे।
पेरियार का सामाजिक न्याय से दूर-दूर तक नाता नहीं
जिस पेरियार को एमके स्टालिन ‘समाज सुधारक’ के रूप में पेश कर रहे हैं, उन्हें हिंदुओं को अपमानित में विशेष आनंद मिलता था। वह सार्वजनिक तौर पर भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के चित्रों को जूतों से मारते थे, और श्रीराम के पुतले जलाने के लिए उन्हें एक बार हिरासत में भी लिया गया था। जिस पेरियार रामास्वामी को DMK ‘सामाजिक न्याय के पुरोधा’ के तौर पर पेश करना चाहती है, वास्तव में उससे दूर-दूर तक उनका कोई नाता नहीं था। कहने को पेरियार रामास्वामी महिला सशक्तिकरण पर लंबे चौड़े भाषण देते थे, लेकिन वेंकटप्पा मणिअम्माई से विवाह करने में ये सारा ज्ञान हवा में उड़ गया था। वेंकटप्पा उनकी दूसरी पत्नी थी, जो मात्र 31 की थी और पेरियार स्वयं 73 वर्ष के, जब दोनों का विवाह हुआ। यही नहीं, वेंकटप्पा पार्टी में उनकी पुत्री जैसी मानी जाती थी । अपनी ही दत्तक पुत्री से विवाह कैसा सामाजिक न्याय है, क्या DMK बताने का कष्ट करेगी?
द्रविड़ आंदोलन एक समुदाय और एक धर्म के खिलाफ नफरत पर आधारित है। शुरू में, यह कट्टरपंथी भारत के विभाजन और दक्षिण के राज्यों के लिए अलग देश की मांग भी कर चुके थे। सत्य तो यह है कि पेरियार एक अलगाववादी थे, जिसने सदैव भारत का अहित चाहा, और अपने सफेद झूठ के बल पर उसने एक ऐसी संस्कृति को बढ़ावा दिया, जो आज तक तमिलनाडु का शोषण कर रही है। ऐसे व्यक्ति पेरियार रामास्वामी के जन्मदिवस को ‘सामाजिक न्याय दिवस’ के तौर पर मनाना ही सामाजिक न्याय के अपमान के समान है।