भारत एक कृषि प्रधान राष्ट्र है और यह देश के 50 प्रतिशत रोजगार का सृजनकर्ता है। देश के सकल घरेलू आय में लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा कृषि का है। ये तथ्य कितने अच्छे व लुभावने लगते हैं! परंतु, जब आप इन तथ्यों को एक तार्किक और जिम्मेदार नागरिक की तरह परखेंगे, तो पाएंगे कि कृषि अर्थात राष्ट्र अर्थव्यवस्था की रीढ़ पूर्णतः टूट चुकी है।
नए तथ्यों के मुताबिक भारत में 86 प्रतिशत लघु किसान है। रोजगार और कृषि आय में अत्यन्त आनुपातिक विषमता है। 50 प्रतिशत रोजगार का सृजन करनेवाली कृषि से उस अनुपात में आय नहीं होती। उदाहरण के तौर पर समझे तो, किसी भी परिवार के 5 लोग मिलकर पहले 1 बीघे में 50 किलो गेंहू उगाते थे। एक साल बाद उसी घर के 10 लोग मिलकर उसी खेत से उतना ही अनाज़ पैदा करते है। अंग्रेज़ी में इसे “Disguise Unemployment” कहते है। जो कुछ नहीं करता वो कृषि करता है, परंतु आय उतना ही रहता है। इस चक्कर में किसान मरता रहता है!
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अब दुखदायी तथ्य देखिए, इनमें से करीब 16 प्रतिशत किसान मंडी व्यवस्था का व्यूह रचते है। उस मंडी व्यवस्था पर अपना एकाधिकार स्थापित करते हैं, अपनी दलाली निश्चित करते हैं! वही अनाज बेचना अनिवार्य करते है और 86 फीसदी लघु किसानों का कथित तौर पर शोषण करते हैं। ज़रा सोचिए वो लघु किसान परिवार जो एक साल में सिर्फ 50 किलो उगा पाता है, ऊपर से अगर वो परिवहन खर्च कर अनाज़ को मंडी ले जाए, वहां पहुंच कर बड़े किसानों (जमींदारों) के आगे गिड़गिड़ाए, ताकि उसकी उपज बिक जाए। इसके लिए दलालों को दलाली दे, फिर 6 महीने तक खाते में उपज के पैसे की प्रतीक्षा करे। तो सोचिए क्या होगा उस छोटे किसान का?
छोटे किसानों के लिए यह आंदोलन था ही नहीं!
इन छोटे किसानों के दर्द को समझा देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने। उन्होंने वादा किया कि किसानों की आए को दोगुनी कर देंगे, किसानों को कहीं भी, कभी भी और किसी को भी फसल बेचने का अधिकार होगा, ऐसा उन्होंने उद्घोष किया। इसके लिए वादानुसार मोदी सरकार तीन कृषि कानून भी लेकर आई। लेकिन सरकार के इस कदम से तथाकथित जमींदारों और सामंतों को लगा कि मंडी व्यवस्था, दलाली, एकाधिकार और वर्चस्व सब कुछ खत्म हो जाएगा।
तब उद्भव हुआ भारतीय इतिहास के सबसे विकृत आंदोलन का, एक ऐसा आंदोलन जो किसानों की आड़ में दूसरे उद्देश्य के लिए लड़ा जानेवाला था। कथित तौर पर बड़े किसान जमींदारी बचाने के लिए लड़ें, सामंत और दलाल मंडी व्यवस्था बचाने के लिए, टिकैत और उसके लठैत अपनी राजनीतिक पैठ बनाने के लिए, विपक्ष अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए, कट्टरपंथी CAA और शाहीन बाग के बदले के लिए, जाट भाजपा विरोध तो कुछ पथभ्रष्ट जट्ट खलिस्तान के लिए लड़ें।
इस आंदोलन में जिस चीज़ के लिए नहीं लड़ा गया, वो था आम, छोटा और गरीब किसान। पिज्जा बने, ट्रैक्टर चले, ट्वीट हुए, ध्वज गिरे और जो नहीं हुआ, वो था किसान आंदोलन पर एक सार्थक चर्चा कर मार्ग निकालना। जब दिल्ली को बंधक बनाया गया और भारत को विदेश में बेइज़्ज़त किया गया, तब लोकतन्त्र और लाज बचाने के लिए प्रधानमंत्री नें कृषि कानून वापस लेने की घोषणा कर दी! जीता कौन? सड़क के गुंडे, जमींदार, दलाल, सामंत और तथाकथित प्रदर्शनकारी!
बंद हो गई है टिकैत की दुकान
अब केंद्र सरकार द्वारा किसान कानून वापस लेने से टिकैत और लठैत जैसे लोगों की दुकान बंद हो गयी है। अब ये नए रोजगार की तलाश में हैं और इनके लिए वो रोजगार है- राजनीति! गौरतलब है कि टिकैत करोड़ो की संपत्ति के मालिक हैं। जमींदार उनकी मदद करेंगे, क्योंकि इस आंदोलन ने उनके वर्चस्व को बनाये रखा। विपक्ष भी मदद करेगा, क्योंकि वो मोदी को कमजोर करने का स्वप्न देख रहे हैं! राष्ट्र विरोधी ताकत भी इनके पीछे खड़ी है, क्योंकि पूरे आंदोलन में टिकैत उनके ढाल बने रहें! इसीलिए, टिकैत कभी यूपी जा रहे हैं, तो कभी हैदराबाद। कभी अल्लाह-हु-अकबर चिल्ला रहे हैं, तो कभी दीन इस्लाम! पाठकों को लग रहा होगा यह लेख कृषि कानून पर आधारित है। इसी तरीके से टिकैत और उनके लठैत आपको समझा कर, झूठा सपना दिखा कर मत पा लेंगे! जब आप उन्हें नहीं समझ पाएं, तो आम किसान उनको क्या ही समझेगा! इन देश विरोधी भेड़ियों को पहचानिए!
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