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भारत में मुगलों का हिंदुओं पर सांस्कृतिक प्रभाव- अध्याय 1: हिंदी का उर्दूकरण

हिंदी का उर्दूकरण नहीं सहेगा हिंदुस्तान!

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
29 January 2022
in ज्ञान
उर्दू

Source- Google

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क्या आपको पता है कि भारत पर सबसे अधिक सांस्कृतिक रूप से प्रभाव किसने डाला है? हिंदुओं ने? सिखों ने? तुर्कों ने या अफ़गान निवासियों ने? बिल्कुल नहीं! सबसे अधिक प्रभाव किसी ने भारत पर अगर डाला है, चाहे सांस्कृतिक रूप से हो या फिर लोकतांत्रिक रूप से, तो वे मुगल हैं। आज हम बात करेंगे मुगलों द्वारा हिंदी भाषा के उर्दूकरण की, जिसके कारण आज हमारे देश में कोई भी अपनी मातृभाषा का शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाता।

यह कैसे संभव है? इस कथा की उत्पत्ति होती है 1556 से, जब जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर ने पानीपत के द्वितीय युद्ध में सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य यानि हेमू को धोखे से परास्त कर दिल्ली पर पुनः कब्ज़ा जमा लिया था। मात्र 13 वर्षीय अकबर अब भारत के एक बहुत बड़े भाग का अधिकारी बन चुका था और उसका संरक्षक था बैरम खान, जो अकबर की देखरेख का कार्यभार संभालता था। यहीं से अकबर के उदय का प्रारंभ हुआ और यहीं से भारत के उर्दूकरण की प्रक्रिया भी प्रारंभ हुई।

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उर्दू का नहीं है मूल अस्तित्व

अब ये उर्दू किस चिड़िया का नाम है? इस भाषा का मूल स्त्रोत, इसका अस्तित्व क्या है? कहने को एक भाषा का अपना मूल अस्तित्व होना चाहिए, उसकी स्पष्ट व्यवस्था, नियमावली, शब्दकोश, पांडुलिपि इत्यादि। हिन्दी में हमें ये सभी तत्व प्राप्त हैं, चाहे वो व्यवस्था हो, नियमावली हो, शब्दकोश हो अथवा पांडुलिपि। हिन्दी एक प्रकार से देवभाषा संस्कृत का सरल उच्चारण ही है, जिसे अगर ध्यान से पढ़ा जाए, तो कई क्षेत्रीय भाषाएं, जैसे- तेलुगु, मलयालम, मराठी इत्यादि को समझने, उनका पाठ करने और उनका अनुसरण करने में भी सरलता प्राप्त होगी। जितनी सरलता से आप हिन्दी पढ़ सकते हैं, क्या उतनी सरलता से आप उर्दू पढ़ सकते हैं? शायद नहीं!

इसकी तुलना में उर्दू का न अपना कोई अस्तित्व है, न कोई नियमावली, न कोई स्पष्ट पांडुलिपि और न ही कोई शब्दकोश। वैसे चोरी के मामले में अंग्रेजी भी उर्दू से भिन्न नहीं है, लेकिन अंग्रेजी ने फिर भी अपनी एक विशिष्ट प्रणाली स्थापित की है, अपने व्याकरण की अलग पद्धति स्थापित की, परंतु उर्दू तो ये भी करने में असफल रही। ‘उर्दू’ का मूल अर्थ जानते हैं क्या है? ‘छावनी की भाषा’, यानी वो भाषा, जो अधिकतम उस समय के (तुर्की आक्रांता) सैनिक बोलते थे। अरबी, फारसी, खड़ी बोली और हिन्दुस्तानी की अधपकी खिचड़ी का परिणाम है उर्दू। इसे भाषा बोलना ही भाषा शब्द का घोर अपमान होगा, क्योंकि भाषा की सबसे मूल आवश्यकता है मौलिकता यानी Originality, जो उर्दू में दूर-दूर तक नहीं है!

और पढ़ें: उर्दू बनाम हिन्दी: वो युद्ध जिसे उर्दू कभी नहीं जीत सकती

औरंगजेब ने उर्दू को सर्वाधिक बढ़ावा दिया

जैसे अंग्रेज़ी भाषी अपनी संस्कृति दूसरे लोगों पर थोपने का प्रयास करते रहे हैं, वैसे ही उर्दूभाषी भी अपनी संस्कृति और अपनी बोली लोगों पर बलपूर्वक थोपते आए हैं। ये आज से नहीं, मुगल काल से चला आ रहा है, जब सर्वप्रथम उर्दू को सर्वाधिक बढ़ावा दिया गया था। ये तो कुछ भी नहीं है, उर्दू का जितना बढ़ावा शायद अकबर या शाहजहां के काल में नहीं दिया जाता होगा, उससे कहीं अधिक बढ़ावा औरंगजेब के कार्यकाल में बेधड़क रूप से दिया गया था। उर्दू तो जैसे शहंशाह औरंगजेब के लिए जीवन और मरण का प्रश्न बन चुका था और उसके लिए तो उसने विशेष रूप से ‘फतवा आलमगिरी’ भी निकाली, जो उसके राज में शरीयत समान था। उसके लिए उर्दू केवल एक विकल्प नहीं था, उर्दू कानून था, जिसके बिना उसका जिना असंभव था!

यदि प्रत्यक्ष रूप से नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से सब हिन्दी से किसी न किसी प्रकार अवश्य जुड़े थे, लेकिन निज़ाम शाही उन पर जबरदस्ती उर्दू थोपती थी, जिनका उनकी संस्कृति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। आज ‘Stop Hindi Imposition’ के नारे लगाने वाले वामपंथियों को इन घटनाओं के उल्लेख मात्र पर ही सांप सूंघ जाता है। आज इस उर्दूकरण के कारण हिंदी के दो शब्द भी बिना उर्दू के बोलना अटपटा प्रतीत होता है। लेकिन एक लंबी लड़ाई में उर्दू में शायद ही इतनी शक्ति होगी कि वह हिंदी के समक्ष टिक पाएगी। अगले अध्याय में हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि कैसे मुगलों ने देश के परिधानों में बदलाव किया था, जिसका परिणाम निस्संदेह सकारात्मक तो नहीं था!

Tags: उर्दूउर्दूकरणहिंदी
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