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असम के ‘शिवाजी’ वीर लचित बोरफुकन के शौर्य को राष्ट्रीय स्तर पर ला रहे हैं हिमंता बिस्वा सरमा

लचित बोरफुकन जैसे योद्धा को दरबारी इतिहासकारों ने इतिहास की पुस्तक में स्थान नहीं दिया!

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
27 October 2022
in प्रीमियम
लचित बोरफुकन

Source- TFI

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मुगल दरबार, आगरा, 17 वीं शताब्दी

उस सिपाही ने कंपकँपाते हुए स्वर में कहा, “हम में से किसी ने भी उसकी सूरत या सीरत (रूप -रंग) नहीं देखा है, हम नहीं जानते कि वह इंसान है या कोई रूह, पर कई लोगों से जाना है कि उसके हेंगडांग की सोने जैसी चमक से सभी परिचित हुए हैं!”

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“ये हेंगडांग किस बला का नाम है?” क्रोध से तमतमाए बादशाह आलमगीर यानी औरंगजेब ने पूछा।

“यह नायाब शमशीर (उत्कृष्ट तलवार) है आलीजाह, जिसका स्वामी है लचित और जिसे प्रदान किया राजा चक्रध्वज सिंघा ने” दबे स्वर में उस सिपाही ने उत्तर दिया।

“तो है क्या वो? इंसान है, भूत है, या वो भगवान है जिनमें ये कुफ्र (हिन्दू) यकीन रखते हैं, जो इंसानी भेस में अजीबोगरीब शस्त्र लेकर हाथों में घूमते हैं?”

“जनाब वो इंसान ही हैं, अहोम वंश का सिपहसालार है!”

“अगर इंसान है, तो हमारे हाथों से ही मरेगा!”    

यह कथा है उस वीर नायक की, जिसके पराक्रम से औरंगजेब जैसे क्रूर आक्रांता की भी बत्ती गुल हो जाती थी। जिसके एक वार से बड़े से बड़े आक्रांता उन्नीस सिद्ध हुए, अब उनके पराक्रम को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित करने का बेड़ा असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने उठाया है। हाल ही में हिमंत बिस्वा सरमा ने ट्विटर पर अपने हैंडल के माध्यम से लचित बोरफुकन की 400वीं जयंती पर एक वेब पोर्टल एवं एप के लॉन्च की घोषणा की, जहां उन्होंने असम से लेकर सम्पूर्ण राष्ट्र के युवाओं को वीर लचित बोरफुकन पर अपने विचार साझा करने हेतु आमंत्रित किया।

और पढ़ें: गुमनाम नायक: रानी दुर्गावती की कहानी, जिन्होंने मुगलों की गिरफ्त की बजाय स्वयं का बलिदान कर दिया

The celebrated valour of Lachit Barphukan, who stood like Himalayas between Assam & Mughal invaders, is eternally inspirational.

To relive his ideals on his 400th birth anniversary, we've launched an app/portal for you all to write about the great General.

Here's a guide: pic.twitter.com/diMDtHujgk

— Himanta Biswa Sarma (Modi Ka Parivar) (@himantabiswa) October 27, 2022

अब बात भी खरी है क्योंकि वीर लचित बोरफुकन उस राष्ट्रीय मोर्चे का भाग थे, जिन्होंने औरंगजेब को मार मार कर भूत बना दिया था। लोग कहते हैं भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम 1857 में लड़ा गया था। वे गलत नहीं है परंतु 1857 अंग्रेजों के विरुद्ध भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम तो था ही किन्तु इससे पहले भी विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध भारत में विद्रोह की ज्वाला उमड़ी थी। एक 1336 में, तुर्की सल्तनत के विरुद्ध, तो दूसरी 1659 में मुगलिया सल्तनत के विरुद्ध। दोनों में एक बात समान थी- विदोह का प्रारंभ राजपूताना क्षेत्र से हुआ और इसे आगे बढ़ने का काम किया दक्षिण भारत के महान योद्धाओं ने, चाहे वे तुर्क के विरुद्ध विजयनगर के योद्धा हो या फिर मुगल के विरुद्ध मर्द मराठा और उनके महान शासक, छत्रपति शिवाजी महाराज।

वीर लचित बोरफुकन ने मानविकी, शास्त्र और सैन्य कौशल की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्हें अहोम स्वर्गदेव के ध्वज वाहक (सोलधर बरुआ) का पद (निज-सहायक के समतुल्य एक पद) सौंपा गया था, जो कि किसी महत्वाकांक्षी कूटनीतिज्ञ या राजनेता के लिए पहला महत्वपूर्ण कदम माना जाता था। अपनी नियुक्ति से पूर्व बोरफुकन अहोम राजा चक्रध्वज सिंघा की शाही घुड़साल के अधीक्षक (घोड़ बरुआ), रणनैतिक रूप से महत्वपूर्ण सिमुलगढ़ किले के प्रमुख और शाही घुड़सवार रक्षक दल के अधीक्षक (या दोलकक्षारिया बरुआ) के पदों पर आसीन रहे।

वीर लचित ने मुगलों के नाक में कर दिया था दम

राजा चक्रध्वज ने गुवाहाटी पर कब्जा कर चुके मुग़लों के विरुद्ध अभियान में सेना का नेतृत्व करने के लिए लचित बोरफुकन का चयन किया। राजा ने उपहार स्वरूप लचित को सोने की मूठ वाली एक तलवार (हेंगडांग) और विशिष्टता के प्रतीक पारंपरिक वस्त्र प्रदान किए। लचित ने सेना एकत्रित की और 1667 की गर्मियों तक तैयारियां पूरी कर ली गईं। उन्होंने मुग़लों के कब्ज़े से गुवाहाटी पुनः प्राप्त कर लिया और सराईघाट की लड़ाई में वो इसकी रक्षा करने में सफल रहे।

सराईघाट का युद्ध इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण कि मुगलों का शौर्य केवल नाम का था, असल में वे केवल कागजी शेर थे। लचित बोरफुकन की युद्ध-कला एवं दूरदर्शिता का दिग्दर्शन मात्र अंतिम युद्ध में ही नहीं हुआ अपितु उन्होंने 1667 में गुवाहाटी के ईटाकुली किले को मुगलों से स्वतंत्र कराने में भी कुशल युद्धनीति का परिचय दिया। मुगलों ने फिरोज खान को फौजदार नियुक्त किया, जो बहुत ही भोग-विलासी व्यक्ति था। उसने चक्रध्वज सिंघा को सीधे-सीधे असमिया हिंदू कन्याओं को भोग-विलास के लिए अपने पास भेजने का आदेश दिया। इससे लोगों में मुगलों के खिलाफ आक्रोश बढ़ने लगा।

वीर लचित ने लोगों के इस आक्रोश का सही प्रयोग करते हुए इसी समय गुवाहाटी के किले को मुगलों से छीनने का निर्णय लिया। लचित बोरफुकन के पास एक शक्तिशाली और निपुण जल सेना के साथ समर्पित और दक्ष जासूसों का संजाल था। उन्होंने योजना बनाई,जिसके अनुसार 10-12 सिपाहियों ने रात के अंधेरे का फायदा उठाते हुए चुपके से किले में प्रवेश कर लिया और मुगल सेना की तोपों में पानी डाल दिया। अगली सुबह ही लचित ने ईटाकुली किले पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।

जब औरंगजेब को इस विजय के बारे में पता चला तब वह गुस्से से तिलमिला उठा। उसने मिर्जा राजा जयसिंह के बेटे रामसिंह को 70,000 सैनिकों की बड़ी सेना के साथ अहोम से लड़ने के लिए असम भेजा। उधर वीर लचित ने बिना एक पल व्यर्थ किए किलों की सुरक्षा मजबूत करने के लिए सभी आवश्यक तैयारियां प्रारंभ कर दी। लचित ने अपनी मौलिक युद्ध नीति के तहत रातोंरात अपनी सेना की सुरक्षा हेतु मिट्टी से मजबूत तटबंधों का निर्माण कराया, जिसका उत्तरदायित्व उन्होंने अपने मामा को दिया था। उन्होंने इस निर्माण-कार्य में अपने मामा की लापरवाही को अक्षम्य मानकर उनका वध कर दिया और कहा, “मेरे मामा मेरी मातृभूमि से बढ़कर नहीं हो सकते।”

लचित बोरफुकन जैसे योद्धा के रहते मुगल आक्रांता पूर्वोत्तर भारत को अपने अधीन नहीं कर सके। 1671 में सरायघाट, ब्रह्मपुत्र नदी में अहोम सेना और मुगलों के बीच ऐतिहासिक लड़ाई हुई। रामसिंह को अपने गुप्तचरों से पता चला कि अन्दुराबली के किनारे पर रक्षा इंतजामों को भेदा जा सकता है और गुवाहाटी को फिर से हथियाया जा सकता है। उसने इस अवसर का फायदा उठाने के उद्देश्य से मुगल नौसेना खड़ी कर दी। उसके पास 40 जहाज थे, जो 16 तोपों और छोटी नौकाओं को ले जाने में समर्थ थे। यह युद्ध उस यात्रा का चरमोत्कर्ष था, जो यात्रा आठ वर्ष पहले मीर जुमला के आक्रमण से आरंभ हुई थी।

और पढ़ें: गुमनायक नायक: बंगाल के ‘वास्तविक टाइगर’ बाघा जतिन की कहानी

4000 मुगल सैनिकों को अकेले काट डाला

भारतवर्ष के इतिहास में कदाचित् यह पहला महत्वपूर्ण युद्ध था, जो पूर्णतया नदी में लड़ा गया तथा जिसमें लचित ने पानी में लड़ाई (नौसैनिक युद्ध) की सर्वथा नई तकनीक आजमाते हुए मुगलों को पराजित किया। ब्रह्मपुत्र नदी का सरायघाट इस ऐतिहासिक युद्ध का साक्षी बना। इस युद्ध में ब्रह्मपुत्र नदी में एक प्रकार का त्रिभुज बन गया था, जिसमें एक ओर कामख्या मंदिर, दूसरी ओर अश्वक्लान्ता का विष्णु मंदिर और तीसरी ओर ईटाकुली किले की दीवारे थीं। दुर्भाग्यवश लचित इस समय इतने अस्वस्थ हो गए कि उनका चलना-फिरना भी अत्यंत कठिन हो गया था परंतु उन्होंने बीमार होते हुए भी भीषण युद्ध किया और अपनी असाधारण नेतृत्व क्षमता और अदम्य साहस से सरायघाट की प्रसिद्ध लड़ाई में लगभग 4,000 मुगल सैनिकों को अकेले मार गिराया।

इस युद्ध में अहोम सेना ने अनेक आधुनिक युक्तियों का उपयोग किया। यथा- पनगढ़ बनाने की युक्ति। युद्ध के दौरान ही बनाया गया नौका-पुल छोटे किले की तरह काम आया। अहोम की बच्छारिना (जो अपने आकार में मुगलों की नाव से छोटी थी) अत्यंत तीव्र और घातक सिद्ध हुई। इन सभी आधुनिक युक्तियों ने लचित की अहोम सेना को मुगल सेना से अधिक सबल और प्रभावी बना दिया। दो दिशाओं से हुए प्रहार से मुगल सेना में हड़कंप मच गया और सायंकाल तक उसके तीन बड़े योद्धा और 4,000 सैनिक मारे गए। इसके बाद मुगल सेना मानस नदी के पार भाग खड़ी हुई। दुर्भाग्यवश इस युद्ध में घायल वीर लचित ने कुछ दिन बाद प्राण त्याग दिए।

सरायघाट की इस अभूतपूर्व विजय ने असम के आर्थिक विकास और सांस्कृतिक समृद्धि की आधारशिला रखी। आगे चलकर असम में अनेक भव्य मंदिरों आदि का निर्माण हुआ। यदि सरायघाट के युद्ध में मुगलों की विजय होती तो वह असमवासी हिंदुओं के लिए सांस्कृतिक विनाश और पराधीनता लेकर आती। मरणोपरांत भी लचित असम के लोगों और अहोम सेना के ह्रदय में अग्नि की ज्वाला बनकर धधकते रहे और उनके प्राणों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। लचित द्वारा संगठित सेना ने 1682 में मुगलों से एक और निर्णायक युद्ध लड़ा। इसमें उसने अपने ईटाकुली किले से मुगलों को खदेड़ दिया। इसके बाद मुगल फिर कभी असम की ओर नहीं आए।

लचित बोरफुकन के शौर्य का ही परिणाम है कि आज भी खड़कवासला में स्थित राष्ट्रीय डिफेंस अकादमी में सर्वश्रेष्ठ कैडेट को जो स्वर्ण पदक दिया जाता है, उसका नाम लचित मैडल ही है। परंतु स्वतंत्र भारत में जो सम्मान इन्हें मिलना चाहिए था, वो नेहरुवादी विचारधारा के कारण नहीं मिल पाया। परंतु अब और नहीं। अब वीर लचित बोरफुकन का नाम पूरे भारत में चहुंओर गूंजेगा, जिसमें असम के ओजस्वी मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की विशेष भूमिका रहेगी।

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