2 अक्टूबर का दिन पूरे भारत के लिए ख़ास होता है। हो भी क्यों न, आखिर इस दिन महात्मा गाँधी की जयंती जो होती है। मोहनदास करमचंद गाँधी, जिन्हें ‘राष्ट्रपिता’ कहा जाता है। हालाँकि, ये कोई आधिकारिक दर्जा नहीं है और न ही संविधान या किसी भी अन्य दस्तावेज में ऐसा कुछ नहीं लिखा है। 2 अक्टूबर को स्कूलों में बच्चों के बीच वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ होती हैं, दिल्ली में महात्मा गाँधी के समाधि स्थल राजघाट पर नेताओं का जमावड़ा लगता है, कहीं-कहीं तो हमें वीडियो में कुछ लोग रोते-बिलखते हुए भी दिख जाते हैं। बापू के आदर्शों पर चलने की बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं।
लेकिन, क्या आपको पता है कि 2 अक्टूबर का दिन एक और कारण से खास है। इस दिन भारत के एक और गुदड़ी के लाल का जन्म हुआ था। उनका नाम था – लाल बहादुर शास्त्री। भारत के वो प्रधानमंत्री, जिनकी लंबाई महज 5 फुट 2 इंच थी और वजन मात्र 45 किलो था, लेकिन इरादे चट्टान की तरह मजबूत थे और हौसले हिमालय की तरह आसमान चूमते थे। बीच में तो कई वर्ष ऐसे भी बीत गए जब 2 अक्टूबर के दिन किसी ने लाल बहादुर शास्त्री को याद ही नहीं किया। मैं ये नहीं कह रहा कि हमें महात्मा गाँधी को याद नहीं करना चाहिए, जिनके लिए वो आदर्श हैं वो उन्हें याद करें।
लेकिन, साथ-साथ हमें लाल बहादुर शास्त्री को भी नहीं भूलना चाहिए। अप्रैल 2019 में जब निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ रिलीज हुई, उसके बाद से लाल बहादुर शास्त्री को लेकर लोगों को उत्सुकता जगी, युवाओं ने उनके बारे में पढ़ना शुरू किया, उनके जीवन और योगदानों में रुचि लेना शुरू किया। लेकिन, अब एक नई समस्या आ गई है। दिक्कत ये है कि हमने लाल बहादुर शास्त्री को सिर्फ ताशकंद में ही समेट दिया है। जब भी उनकी बात होती है, उनकी मृत्यु से ही शुरू होती है और मृत्यु पर ही खत्म हो जाती है। हम स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान पर बात नहीं करते, भारत के रेल मंत्री रहते हुए उनके द्वारा किए गए कार्यों की बात नहीं करते, अंतरराष्ट्रीय दबाव के सामने कैसे वो सीना तान के खड़े रहते थे इस पर चर्चा नहीं करते।
लाल बहादुर शास्त्री और मैडम मेरी क्यूरी
आइए, उनकी जयंती के मौके पर कुछ ऐसी बातें करते हैं, जो ताशकंद तक ही सीमित न हो। असल में अंग्रेजों के समय में लाल बहादुर शास्त्री का जेल आना-जाना लगा रहता था। जेल में उन्होंने कई विदेशी विद्वानों को पढ़ा। इनमें से जिस एक शख्सियत से वो सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए – वो थीं मैडम मेरी क्युरी। जो विज्ञान के विद्यार्थी हैं, वो मैडम मेरी क्युरी को बहुत अच्छे से जानते हैं। जो नहीं जानते हैं, उन्हें बता दूँ कि रेडियोएक्टिव के क्षेत्र में रिसर्च करने वाली मेरी क्युरी नोबेल पुरस्कार जीतने वाली पहली महिला थीं, 2 बार नोबेल जीतने वाली पहली शख्सियत थीं और 2 अलग-अलग क्षेत्रों में नोबेल जीतने वाली भी पहली व्यक्ति थीं। ‘थ्योरी ऑफ रेडियोएक्टिविटी’ देने वाली मेरी क्युरी ने कभी अपनी खोज को पेटेंट नहीं कराया, जबकि ऐसा कर के वो मालामाल हो सकती थीं।
उन्होंने अपने करियर की शुरुआत में काफी आर्थिक दिक्कतों का सामना किया, लेकिन अपने उसूलों से समझौता नहीं किया। लाल बहादुर शास्त्री को उनके ये गुण पसंद आए और उन्होंने भी अपने जीवन में कुछ ऐसे ही त्याग का परिचय दिया। जब वो जेल में थे तो हुआ यूँ कि एक बार खबर आई कि उनकी बेटी काफी बीमार है, अंग्रेजों ने शर्त रखी कि उन्हें पेरोल तभी मिलेगा जब वो लिख कर दें कि जेल से बाहर निकलने के बाद वो आन्दोलनों में हिस्सा नहीं लेंगे। देशसेवा का जुनून ऐसा कि उन्होंने परिवार के ऊपर राष्ट्र को चुना, ऐसा कोई भी लिखित आश्वासन देने से साफ़ इनकार कर दिया। उनकी जिद के आगे अंग्रेज अधिकारियों को भी झुकना पड़ा और उन्हें 15 दिनों के पेरोल पर रिहा कर दिया गया। दुःख की बात ये रही कि जब वो घर पहुँचे तब तक उनकी पुत्री की मृत्यु हो चुकी थी। आप जानते हैं लाल बहादुर शास्त्री ने इसके बाद क्या किया? वो तुरंत ही जेल लौट गए। उनका कहना था कि वो जिस कार्य के लिए जेल से बाहर निकले थे वो कार्य समाप्त हो गया तो उनका बाहर रहना उनके कर्तव्यपरायणता के विरुद्ध है। सिर्फ एक बार नहीं, इस उन्होंने देश के लिए कई बार त्याग किया।
एक बार वो जेल में थे तो खबर आई कि उनके बेटे को भारी बुखार है। फिर से वही लिखित आश्वासन वाली बात, उन्होंने फिर मना कर दिया। फिर से अंग्रेजों को झुकना पड़ा और उन्हें एक सप्ताह के लिए जेल से बाहर निकाला गया। बेटे की तबीयत ठीक नहीं हुई तो अंग्रेजों ने साफ़-साफ़ कह दिया कि अबकी लिख कर देना ही होगा कि वो किसी आंदोलन में भाग नहीं लेंगे, तभी कुछ हो पाएगा। एक तरफ बेटे को 106 डिग्री बुखार, एक तरफ अनुनय-विनय करते परिजन और एक तरफ उन्हें जेल ले जाने के लिए बेचैन अंग्रेज। लाल बहादुर शास्त्री ने एक बार फिर से इन सबके बीच देश को चुना।
परिवार से ऊपर देश को रखा
भारत माता के शरीर में बँधी जंजीरों की आवाज़ के आगे उन्हें अपने बेटे की चीख भी सुनाई नहीं दी। बेटे से उन्हें बहुत स्नेह था, लेकिन उनके लिए राष्ट्र के प्रति उनके कर्तव्यों की राह में कुछ नहीं आ सकता था। उन्हें भारत माता के अनगिनत गुलाम बेटे-बेटियों की चिंता थी, सिर्फ अपने बेटे की नहीं। ये कुछ ऐसा ही था, जैसे मेरो क्युरी ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मानवता की सेवा की थी। उन्होंने कई छोटे-छोटे मोबाइल रेडियोग्राफी यूनिट्स बनाए, जिन्हें ‘लिटिल क्यूरी’ कहा गया।
युद्धक्षेत्र में सैनिकों का इलाज कर रहे सर्जनों को इससे बहुत सहायता मिली। फिजिक्स और केमिस्ट्री दोनों में नोबेल पुरस्कार जीतने वाली मेरी क्युरी का जीवन भी काफी संघर्षों में बीता था। यही कारण है कि लाल बहादुर शास्त्री ने उनकी जीवनी को न सिर्फ पढ़ा और इससे प्रभावित हुए, बल्कि इसका हिंदी में अनुवाद भी किया ताकि भारत के आम लोग भी इसे पढ़ सकें, सीख सकें।
आइए, लाल बहादुर शास्त्री के शब्दों में ही समझते हैं। लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था, “साधन बहुत क्षीण, और मार्ग कंटककिरण होते हुए भी इस बालिका ने स्वतः प्रयास से जितनी सफलता प्राप्त की, वो प्रत्येक नर-नारी के लिए अनुकरणीय है। मेरी क्युरी ने उच्चतम शिक्षा प्राप्त की और धनोपार्जन किया, परन्तु अपने हाथ से काम करना बंद नहीं किया।” ध्यान दीजिए, ये लाल बहादुर शास्त्री के शब्द हैं। मैडम मेरी क्युरी को लेकर उन्होंने आगे कहा था, “उनका जीवन तप और त्याग का था। महान वैज्ञानिक होते हुए भी वह देश और समाज को नहीं भूलीं। बड़े से बड़े निर्णय करने में भी उन्हें विलम्ब नहीं होता था। विश्व युद्ध के समय उन्होंने नोबेल पुरस्कार की पाई-पाई अपने देश फ़्रांस को अर्पित कर दी।” ये थे लाल बहादुर शास्त्री के शब्द। मेरी क्यूरी की तरह ही उन्होंने भी वही फैसले लिए, जो देशहित में हो। पाकिस्तान के साथ युद्ध हो या फिर उस दौरान अमेरिका की मिली धमकी, लाल बहादुर शास्त्री ने वही किया जो भारत के लिए अच्छा था।
तो आइए, हम सिर्फ लाल बहादुर शास्त्री को ताशकंद तक ही सीमित कर के न रखें। ये भी बात करें कि कैसे उन्होंने अपने बेटे और बेटी के स्वास्थ्य से भी देशसेवा से ऊपर रखा। ये भी बात करें कि जैसे मेरी क्युरी ने अपनी खोज का पेटेंट नहीं कराया, लाल बहादुर शास्त्री भी कभी श्रेय के लिए नहीं भागे। यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।