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एक युवा बांसुरी वादक जिन्होंने अंग्रेजों को नाकों चने चबवाए, बिरसा मुंडा के ‘धरती आबा’ बनने की कहानी

दिल्ली के सराय काले खां चौक का नाम बदलकर बिरसा मुंडा चौक किया गया है

Shiv Chaudhary द्वारा Shiv Chaudhary
15 November 2024
in इतिहास
बिरसा मुंडा के करीब 20 वर्ष का होने तक लोग उन्हें मसीहा की तरह देखने लगे थे

बिरसा मुंडा के करीब 20 वर्ष का होने तक लोग उन्हें मसीहा की तरह देखने लगे थे

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केंद्र सरकार ने शुक्रवार को बिरसा मुंडा की जयंती के मौके पर दिल्ली के सराय काले खां चौक का नाम बदलकर बिरसा मुंडा चौक कर दिया है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और केंद्रीय शहरी विकास मंत्री मनोहर लाल खट्टर ने इस चौक के पास ही बिरसा मुंडा की भव्य प्रतिमा का भी अनावरण किया है। खट्टर ने प्रतिमा अनावरण के इस कार्यक्रम के दौरान कहा, “मैं आज घोषणा कर रहा हूं कि आईएसबीटी बस स्टैंड के बाहर बड़े चौक का नाम भगवान बिरसा मुंडा के नाम से जाना जाएगा। इससे न केवल दिल्ली के नागरिक बल्कि बस स्टैंड पर आने वाले लोग भी निश्चित रूप से उनके जीवन से प्रेरित होंगे।”

राष्ट्रपति और PM ने बिरसा मुंडा को याद किया

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई केंद्रीय मंत्रियों ने देशवासियों को शुभकामनाएं देते हुए बिरसा मुंडा को याद किया है। राष्ट्रपति मुर्मु ने कहा, “भगवान बिरसा मुंडा के आदर्श न केवल जनजातीय समुदायों के युवाओं के लिए बल्कि देश के हर हिस्से में सभी समुदायों के युवाओं के लिए गर्व और प्रेरणा का स्रोत हैं। स्वतंत्रता, न्याय, पहचान और सम्मान के लिए भगवान बिरसा मुंडा की आकांक्षाएं, देश के हर युवा की आकांक्षाएं हैं।” वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “भगवान बिरसा मुंडा जी ने मातृभूमि की आन-बान और शान की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। उनकी जन्म-जयंती ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के पावन अवसर पर उन्हें मेरा कोटि-कोटि नमन।”

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बिरसा मुंडा: नायक जो ‘भगवान’ बन गए

15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के उलिहातू गांव जन्मे बिरसा मुंडा जनजातीय समाज के ऐसे नायक रहे हैं जिन्हें आज भी विश्वभर में सम्मान के साथ याद किया जाता है। उनकी शुरुआती शिक्षा चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में हुई थी। कहा जाता है कि बिरसा मुंडा को बांसुरी बजाने का शौक था और वे मंत्रमुग्ध कर देने वाली बांसुरी बजाया करते थे। बिरसा मुंडा के परिवार में उनके पिता, चाचा और छोटे भाई ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। उनके पिता धर्म प्रचारक बन गए थे और उनका नाम मसीह दास हो गया था। वे अपनी मौसी के साथ शादी के बाद उनके ससुराल खटंगा गांव चले गए थे और यहां एक मुंडाओं की पुरानी परंपराओं की आलोचना करने वाले ईसाई धर्म प्रचारक से उनका विवाद हो गया था।

1891 में उनका परिवार बंदगांव आ गया जहां वे वैष्णव धर्मगुरु आनंद पांडे के संपर्क में आए और कई वर्षों तक वैष्णव धर्म में रहे, इस दौरान वे जनेऊ धारण करते थे और उन्होंने गौकशी पर प्रतिबंध लगवा दिया था। बिरसा मुंडा के करीब 20 वर्ष का होने तक लोग उन्हें मसीहा की तरह देखने लगे थे, वे बीमार लोगों को ठीक कर सकते हैं और दूर-दूर से लोग उनके पास अपनी बीमारी के इलाज के लिए आते थे। उन्होंने धार्मिक उपदेश देना शुरु कर दिया और एक अलग धार्मिक पद्धति की शुरुआत की जिसे आजकल बिरसाइत कहा जाता है।

माना जाता है कि उन्होंने 1894-95 के बीच इस धर्म की शुरुआत की थी। कुमार सुरेश सिंह ने अपनी पुस्तक ‘बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन’ में लिखा है, “1895 में बिरसा मुंडा ने अपने धर्म के प्रचार के लिए 12 शिष्यों को नियुक्त किया। जलमई (चाईबासा) के रहने वाले सोमा मुंडा को प्रमुख शिष्य घोषित किया और उन्हें धर्म-पुस्तक सौंपी।” 19वीं सदी के अंत में अंग्रेजों ने जनजातियों की पुरानी भूमि व्यवस्था को नष्ट कर दिया था साहूकार उनकी जमीन पर कब्जा करने लगे थे और जनजातियों को जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल करने से रोक दिया था। इसे लेकर अंग्रेजों के खिलाफ जनजातीय आंदोलन की शुरुआत हो गई थी इस आंदोलन के दौरान बिरसा मुंडा ने एक नारा था, “अबूया राज एते जाना…महारानी राज टुडू जाना (यानी अब मुंडा राज शुरू हो गया है और महारानी का राज खत्म हो गया है)”

इसके खिलाफ मुंडाओं ने ‘उलगुलान’ नाम के एक आंदोलन की शुरुआत की थी। बिरसा मुंडा उस समय लोगों को जोश से भरे भाषण देते थे। बिरसा कहते थे कि सरकार का राज समाप्त हो चुका है और उनकी बंदूकें लकड़ी में बदल जाएंगी। इससे प्रेरित होकर लोगों ने पुलिस स्टेशनों पर हमले करने शुरु कर दिए और यूनियन जैक को उतारकर उसकी जगह मुंडा राज का प्रतीक सफेद झंडा लगाना शुरू कर दिया था। अंग्रेजों की सरकार बिरसा मुंडा से इस कदर खौफ खाने लगी थी कि उनके ऊपर 500 रुपए का इनाम रखा गया जो उस वक्त में एक बहुत बड़ी रकम होती थी।

अगस्त 1895 में बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 2 वर्षों की सजा हुई थी। नवंबर 1897 में उन्हें उनके दो साथियों के साथ जेल से रिहा किया गया। जब वे जेल से बाहर आए तो कई लोग उनके स्वागत में खड़े थे और उन्होंने ‘बिरसा भगवान की जय’ का नारा लगाया। बिरसा के एक साथी ने कहा कि हमने आपको ‘धरती आबा’ नाम दिया है और अब हम आपको इसी नाम से बुलाएंगे। इसके बाद भी उनका संघर्ष चलता रहा, वे बहुत समय तक भूमिगत भी रहे। 1900 आते-आते बिरसा का संघर्ष छोटानागपुर के 550 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैल चुका था। उससे एक वर्ष पहले करीब 90 जमीदारों के घरों में आग लगा दी गई थी और यह विद्रोह इतना बढ़ गया था कि रांची के जिला कलेक्टर को सेना की मदद मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

केएस सिंह ने डोम्बारी पहाड़ी पर हुई अंग्रेज सेना और जनजातियों की भिड़ंत को लेकर अपनी किताब ‘बिरसा मुंडा ऐंड हिज मूवमेंट’ में लिखा है, “जनजातियों ने सैनिकों को देखकर तीर-कमान चलाने शुरू कर दिए थे। अंग्रेजों ने हथियार डालने को कहा और 3 राउंड गोली भी चलाई गई जिनका कोई असर नहीं हुआ। आदिवासियों को लगा कि बिरसा की भविष्यवाणी सच साबित हुई है कि अंग्रेजों की बंदूकें लकड़ी में बदल गई हैं।” उन्होंने लिखा है, “इस मुठभेड़ में सैकड़ों आदिवासियों की मौत हुई थी और पहाड़ी पर शवों का ढेर लग गया था। गोलीबारी के बाद सुरक्षाबलों ने आदिवासियों के शव खाइयों में फेंक दिए थे और कई घायलों को जिंदा गाड़ दिया गया था।”

अंग्रेजों को बिरसा का अता-पता नहीं था वे उनकी तलाश में जुटे हुए थे। उसी बीच पुलिस को एक झोंपड़ी के भीतर वे बिरसा मुंडा पालथी मार कर बैठे हुए मिले और वे खुद ही हथकड़ी पहनने को तैयार हो गए थे। बिरसा को जब रांची ले जाया गया तो वहां हजारों लोग उनकी एक झलक पाने को बेताब थे। बिरसा को बेड़ियों में बांध कर अदालत लाया जाएगा जिससे अंग्रेज लोगों के मन में भय पैदा करना चाहते थे। बिरसा मुंडा पर 15 मामलों में आरोप तय किए थे।

बिरसा को जेल में एकांत जगह पर रखा गया और उन्हें दिन में सिर्फ एक घंटे ही बाहर निकाला जाता था। वे जेल में बीमार रहने लगे और गला खराब हो गया, खून की उल्टियां होने लगीं और 9 जून 1900 में सुबह करीब 9 बजे उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मौत की वजह हैजा बताई गई लेकिन माना जाता है कि अंग्रेजों ने बिरसा को जहर दिया था। बिरसा मुंडा की मृत्यु के बाद आंदोलन की गति मंद पड़ गई लेकिन उनके संघर्ष के कारण ही 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम पारित किया गया जिसके तहत जनजातीय लोगों की जमीन को गैर-जनजातीय लोगों द्वारा खरीदे जाने पर रोक लगा दी गई थी। केवल 25 वर्ष की उम्र में एक युग के अंत होने जैसा था, उन्होंने लोगों के जीवन पर ऐसी अमिट छाप छोड़ी है कि लोगों के एक बड़े वर्ग ने उन्हें भगवान का दर्जा दे दिया है।

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