भगवान परशुराम – योद्धा ब्राह्मण की कथा
बहुत समय पहले प्राचीन भारत में एक ऐसा नायक उभर कर सामने आया था, जिसने भ्रष्ट और अत्याचारी शासन की एक पूरी पीढ़ी का विनाश कर दिया था। ये कथा है भगवान परशुराम की, जिन्होंने अपने माता-पिता की हत्या करने वाले दुष्ट क्षत्रियों की एक पूरी पीढ़ी का विनाश करके ही चैन की सांस नहीं ली थी।
किसी भी प्रकार की सरकार या नौकरशाह तब तक नहीं थकते, जब तक वे अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए आम मनुष्य से सभी प्रकार के संसाधन नहीं निचोड़ लेते। ये तब भी एक कटु सत्य था और आज भी यह एक कटु सत्य ही है। ऐसे ही राजा अर्जुन कार्तवीर्य के पास किसी वस्तु या धन की कोई कमी नहीं थी। उनके पास साम्राज्य के सभी संसाधन उपलब्ध थे, पर यदि कुछ नहीं था तो वो थी महर्षि जमदग्नि के आश्रम में स्थित सुरभि नमक दिव्य गाय, जो आश्रम के लिए भोजन का इकलौता स्त्रोत हुआ करती थी।
जब महर्षि जमदग्नि ने राजा अर्जुन कार्तवीर्य को सुरभि को सौंपने से विनम्रतापूर्वक मना कर दिया, तो राजा अर्जुन ने अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करने की बजाय सुरभि को ज़बरदस्ती आश्रम से ले जाने का प्रयास किया। इस पर भगवान परशुराम ने क्रोध में आकर उनका संहार किया और सुरभि को वापिस आश्रम ले आए।
इसके बाद भगवान परशुराम को तीर्थयात्रा पर जाने का सुझाव दिया गया। परंतु किसी भी राज्य के राजा का वध हो तो भला उस राजवंश से जुड़े लोग कहां शांत बैठने वाले थे। भगवान परशुराम की अनुपस्थिति में राजा अर्जुन के रिश्तेदारों ने पूरे आश्रम को तहस नहस कर दिया और इसी बीच महर्षि जमदग्नि और उनकी धर्मपत्नी की हत्या भी कर दी। जब वापिस आने पर भगवान परशुराम को इस घटना के बारे में पता चला, तो उन्होंने उन दुष्ट क्षत्रियों के समूल विनाश की प्रतिज्ञा ले ली।
परशुराम जी की प्रतिज्ञा
एक आम मनुष्य नरसंहार को शायद सहन भी कर ले, पर एक धार्मिक व्यक्ति के लिए यह सदैव असहनीय होता है। ज्ञात हो कि दुष्टों के संहार से ही यह संसार रहने योग्य बनता है। ऐसी स्थिति में धन का अनुचित संचय नहीं होता, लोग सदैव किसी भय के साये में नहीं जीते और न ही वो शक्तिशाली लोगों के अत्याचारों का भागी बनते हैं।
वास्तव में किसी भी तरह का लालच जब सारी सीमाएं लांघ देती है, तब धर्म के चक्र से इनका पतन प्रारम्भ हो जाता है। खेती बाड़ी और वनों में उपयोग में लाये जाने वाले उपकरण जन विद्रोह के शास्त्रों में परिवर्तित हो जाते हैं। यह जनविद्रोह केवल इसलिए नहीं सफल होता क्योंकि ऐसे उपकरणों का उपयोग हुआ था, अपितु इसलिए सफल होता है क्योंकि जनमानस का संकल्प काफी सुदृढ़ था। ये जनविद्रोह तभी होता था, जब लोगों के पास कोई उपाय नहीं शेष नहीं रह जाता था बचता, और ये जनविद्रोह सत्ता प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि जीवित रहने के लिए होते थे।
अब सवाल ये कि क्या यह गौरक्षा के अति का उदाहरण था ? पश्चिमी दार्शनिक रीतियों के अनुसार एक गाय केवल गाय है। जबकि सनातन धर्म में गो माता स्वयं पृथ्वी के समान मानी जाती है। जैसे गाय परिवार के दिये वात्सल्य के बदले पूरे परिवार का ख्याल रखती है, वैसे ही पृथ्वी बीज बोने पर उसके उपहार सभी के साथ बांटती है। सुरभि कामधेनु थी – यानि वो जो सभी सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करती थी। यदि कोई अपने आसपास देखे, तो उसे समझ में आएगा कि कैसे सभी सांसारिक वस्तुवें, चाहे वो कम्प्युटर की स्क्रीन हो [जिससे आप पढ़ रहे हैं] या लैपटाप, सभी इस धरती की देन है। अधिकतर पुराणों में कहा गया है कि पृथ्वी गाय के स्वरूप के समान है और जिसकी गोद में जीव-जंतु शरण लेते हैं।
ऐसे में भगवान परशुराम केवल एक पौराणिक गाय के लिए ही नहीं, अपितु पृथ्वी के संरक्षण के लिए ही लड़ रहे थे। ये दो विचारधाराओं के बीच की लड़ाई थी – एक जो समूचे पृथ्वी को अपनी जागीर बना उसे वंश दर वंश अपनी लालसा की पूर्ति के लिए दुरुपयोग कर रहे थे, और दूसरे वो जो उसे सभी पीढ़ियों के लिए यहां के सभी संसाधनों को दुरूपयोग से बचाना चाहते थे ताकि सभी अपनी आवश्यकता अनुसार पृथ्वी के संसाधनों का उपयोग कर सके।
कितनी विचित्र बात है न, कि हम आज उसी परिस्थिति में अपने आप को पाते हैं जिससे कई सदियों पहले भगवान परशुराम को जूझना पड़ा था। हमारी भूमि विभाजित कर दी गयी थी और लाखों लोगों के मारे जाने के बावजूद कोई विशेष विरोध नहीं हुआ था। धीरे-धीरे समूचे सनातन समुदाय को समझ में आने लगा कि वे वही गया हैं जिन्हें अपने मंदिर चलाने की पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं है, उन्हें अशोक स्तंभ के तौर पर एक ग्वाले की आवश्यकता है, और उनके नागरिक अधिकारों में बाकी नागरिकों के समावेश का कोई औचित्य नहीं दिखता है।
इन्हीं सनातनियों द्वारा दिया गया कर उस दूध के समान होता है, जिसपर बोफोर्स से कॉमनवेल्थ घोटालों पोषित होते हैं। हमारे वृद्धजन उन्हीं जमदग्नि ऋषि के समान थे जो सैद्धान्तिक विरोध कर सकते थे, परंतु प्रणाली का विरोध नहीं। परंतु हमारे शासक वर्ग के लिए मानो किसी प्रकार का बंधन नहीं है। इनका मुख्य ध्येय अब अपने बच्चों को ‘सभ्य पंथों’ के अंतर्गत और भी ‘सभ्य’ बनाना है, और साथ ही साथ इनका लक्ष्य शिक्षा की ओर स्थानांतरित कर सनातनियों को निजी शिक्षा के क्षेत्र से दूर भगाना है।
आज भी हम ऐसा युद्ध लड़ने को विवश हैं, जहां एक तरफ हमारे शत्रुओं के पास सभी प्रकार के संसाधन हैं, जो लगभग सभी संस्थानों पर कब्जा जमाये बैठे हैं, कई दबंग हैं जो राजनीतिक विरोधियों की हत्या करने से ज़रा भी नहीं हिचकते। जबकि हमारे साथ केवल धर्म है। ऐसे युद्ध में हमें प्रण लेना चाहिए कि हम भगवान परशुराम के आशीर्वाद से ऐसे दमनकारी और विशाल व्यवस्था का विध्वंस कर सके और हम स्वतंत्र होकर अपने समुदाय, अपने देश और धर्म की हर स्थिति में रक्षा कर सके।
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