सूबेदार तानाजी मालुसरे के शौर्य गाथा पर आधारित ‘तान्हाजी – द अनसंग वॉरियर’ ने सभी का दिल जीत लिया है। ओम राऊत द्वारा निर्देशित यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचाए हुई है, और वीएफ़एक्स से लेकर अभिनय तक लगभग हर पहलू पर दर्शक इसकी तारीफ करते नहीं थक रहे हैं। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर लगभग 91 करोड़ रुपये घरेलू बॉक्स ऑफिस से कमा लिए हैं, और इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यह फिल्म पहले हफ्ते में ही 100 करोड़ रुपये से ज़्यादा बॉक्स ऑफिस पर कमा लेगी। जहां एक ओर शीर्षक भूमिका के साथ न्याय करने पर अजय देवगन ने दर्शकों की वाहवाही बटोरी है, तो वहीं कई प्रशंसक सैफ अली खान द्वारा उदयभान राठौड़ के रूप में दिखाई गई बेहतरीन अदाकारी से काफी खुश हैं। कई लोग शरद केलकर द्वारा हिंदवी स्वराज्य के जनक और मराठा सम्राट छत्रपति शिवाजी महाराज की निभाई गयी भूमिका से भी काफी अभिभूत हैं। परंतु बहुत कम लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया है कि इस फिल्म में काजोल भी हैं, जिन्होंने सावित्रीबाई मालुसरे के रूप में अपनी सीमित भूमिका से भी एक गहरी छाप छोड़ी है।
अगर कुछ वामपंथी क्रिटिक्स के रिव्यूज़ पर आप ध्यान दे, तो उन्होने सावित्रीबाई मालुसरे की भूमिका के पीछे के भाव को अच्छी तरह से पहचाना, इसीलिए वे सावित्रीबाई की भूमिका करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बाहुबली की देवसेना के बाद सावित्री बाई मालुसरे भारतीय सिनेमा की दूसरी ऐसी चरित्र बन चुकी है, जिसे कोई भी मॉडर्न, ‘woke’ फेमिनिस्ट नहीं चाहेगी कि कोई भारतीय महिला उसका अनुसरण करे।
पर सावित्रीबाई है कौन? उनके व्यक्तित्व में ऐसा क्या था, जिसे काजोल ने पर्दे पर जीवंत कर दिया? सावित्री बाई मालुसरे सूबेदार तानाजी मालुसरे की धर्मपत्नी थी, जिन्होने तानाजी के वीरगति प्राप्त करने पर स्वयं अपने पुत्र रायबा का विवाह विधिपूर्वक कराया था। सावित्री बाई मालुसरे के बारे में ज़्यादा ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
स्वयं निर्देशक ओम राऊत ने स्वीकारा कि सावित्री बाई के किरदार को लिखना काफी मुश्किल था। पर पटकथा में जिस तरह से सावित्री बाई का किरदार उभर कर सामने आया है, उससे स्पष्ट होता है कि फिल्म के लेखकों ने किस तरह से वास्तविक महिला सशक्तिकरण पर ध्यान दिया है। आइये देखते हैं फिल्म में सावित्रीबाई मालुसरे के चरित्र के उन गुणों को, जिनके कारण काजोल के अभिनय की तारीफ करते लोग नहीं थक रहे हैं।
सावित्रीबाई मालुसरे को टिपिकल फेमिनिस्म के साँचे में नहीं ढाला जा सकता। वे शक्ति का जीता जागता स्वरूप है, जिसके बिना स्वयं शिवजी भी शव है। जैसा हमारे शास्त्रों में कहा गया है, एक स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक माने जाते हैं। वे दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे होते हैं। ठीक उसी प्रकार से सूबेदार तानाजी मालुसरे जितने ही निडर और गंभीर, वे अंदर से उतने ही सौम्य भी हैं, और उनका यह व्यक्तित्व सावित्रीबाई के सामने निखर कर सामने आता है।
मतलब स्पष्ट है, जहां तुम, वहाँ मैं की भावना को सावित्रीबाई ने पूरी तरह आत्मसात किया है। जैसे शिवजी को पार्वती देवी ने सती के वियोग के भाव से बाहर निकलवाया था, ठीक वैसे ही सूबेदार तानाजी मालुसरे को सावित्रीबाई न सिर्फ दृढ़ निश्चयी बनने में सहायता करती है, अपितु पार्वती की भांति हर स्थिति में उनके साथ रहने का वचन भी देती है, जिसे फिल्म के एक सीन में शिव पार्वती के उदाहरण से बेहद खूबसूरती से दिखाया भी गया है। ऐसी निष्ठा भारतीय संस्कृति के गुणों में अक्सर गिनी जाती है।
इसी प्रकार से जब कोंढाणा दुर्ग को पुनः प्राप्त करने के लिए सूबेदार तानाजी निकलने की तैयारी करते हैं, तो सावित्री बाई को आभास होता है कि यह उनकी अंतिम लड़ाई भी हो सकती है, परंतु अपनी असहजता को वो अपने चेहरे पर नहीं आने देती, क्योंकि वे जानती है कि यह युद्ध धर्मयुद्ध से कम नहीं, जहां पर सूबेदार तानाजी किसी भी स्थिति में दुर्बल नहीं पड़ सकते।
ऐसे संवेदनशील स्थिति में कोई भी मानसिक रूप से टूट कर बिखर सकता है, पर सावित्रीबाई का धैर्य और उनका साहस यह सिद्ध करता है कि आखिर क्यों भारतीय नारियों की बात ही कुछ और है। तभी तो कहते हैं, ‘यत्र नार्यस्तु पूजन्ते रमन्ते तत्र: देवता”, अर्थात जहां स्त्री को सम्मान और प्रेम दिया जाता है, वहाँ देवता भी वास करते हैं।
हमारे कथित नारीवादी अक्सर इस बात का रोना रोते हैं कि कैसे हमारे देश में महिलाओं को सदियों से दबा कर रखा गया है, और उनकी कोई आवाज़ नहीं होती। परंतु इस धारणा की धज्जियां उड़ाते हुए तान्हाजी में दिखाया गया है कि कैसे हमारी महिलाएं न केवल निर्णय लेने में सक्षम थी, अपितु जब वे स्वयं एक परिपक्व निर्णय लेती है, तो उन्हे कोई भी ऐसा निर्णय लेने से नहीं रोक सकता।
जैसा ट्रेलर में दिखाया गया है, रायबा के विवाह में होने वाली संभावित देरी से रायबा के होने वाले ससुर नाराज़ होते हैं, और वे नहीं चाहते कि विवाह में तनिक भी देरी हो। ऐसे में सावित्री बाई मालुसरे स्वयं निर्णय लेते हुए वचन देती है कि अभियान का परिणाम कुछ भी हो, उसके अगले ही दिन रायबा का विवाह होगा। इस निर्णय पर तानाजी के शुभचिंतक शेलार मामा और उनके अनुज सूर्याजी मालुसरे भी उपस्थित थे, पर दोनों में से कोई भी उनके इस निर्णय का विरोध नहीं करता। यदि भारत के सनातनी वास्तव में नारी विरोधी होते, तो क्या सावित्री बाई ऐसे निर्णय ले पाती?
तान्हाजी में न सिर्फ भारतीय इतिहास के अंछुए पहलुओं को बेबाकी से सामने रखा गया है, अपितु नारी शक्ति को भी उनका उचित सम्मान दिया है। काजोल ने सावित्री बाई मालुसरे ने सिद्ध किया कि एक सशक्त महिला बनने के लिए आपको अपनी संस्कृति का उपहास उड़ाना आवश्यक नहीं है, और वे इसके लिए निस्संदेह प्रशंसा की पात्र रहेंगी।