चीन और लोकतंत्र एक दूसरे के विपिरितार्थक हैं। एक की मौजूदगी में दूसरा नहीं रह सकता। चीन के सत्तावदी शासन को अगर किसी से सबसे अधिक डर है तो वो है लोकतंत्र। अब लोकतंत्र के इसी इसी डर को दुनिया भर के नेता चीन के खिलाफ हथियार की तरह प्रयोग करने की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं।
कुछ दिन पहले खबर आई थी कि UK ने चीन के 5 जी तकनीक को काउंटर करने के लिए दुनिया के 10 लोकतंत्र देशों को एक साथ एक मंच पर आने का आव्हान किया था। इस D10 क्लब में G7 राष्ट्रों जैसे कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, यूके और यूएस सहित ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और भारत भी आमंत्रित है। अगर ये देश 5 G के मुद्दे पर एक साथ आ सकते हैं तो फिर चीन के खिलाफ अन्य मामलों में भी साथ आने की पूरी संभावना है।
आज विश्व के अधिकतर लोकतंत्र देशों में दक्षिणपंथी नेताओं का शासन है, चाहे ब्रिटेन हो या अमेरिका या फिर ऑस्ट्रेलिया ही क्यों न हो। भारत और फ्रांस में भी राजनीति के राइट विंग नेता ही शासन में है। यानि देखा जाए तो ये सभी लोकतंत्र चीन की कम्युनिस्ट शासन को अब अपने निशाने पर ले चुकी है और चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी जिस चीज से सबसे अधिक डरती है उसे का प्रयोग किया जा रहा है।
यहाँ इन देशों को D10 इसीलिए कहा गया है क्योंकि ये सभी लोकतांत्रिक देश हैं और इसमें रूस शामिल नहीं है क्योंकि वो भी एक कम्युनिस्ट देश ही है। डेमोक्रेसी के नाम से दुनिया भर के देश इसे अपना समर्थन तो देंगे ही साथ में चीन के अंदर भी विद्रोह होने की संभावना बढ़ जाएगी।
चीन ने पिछले कुछ समय से पूरी दुनिया के नाक में दम कर रखा है। कोरोना को फैलाने से लेकर WHO से इस महामारी के बारे में झूठ बुलवाने तक, और फिर पूरी दुनिया में हुवावे के 5 G तकनीक को थोपने से लेकर हाँग-काँग की स्वायत्ता समाप्त करने और ब्रिटेन को धमकाने तक चीन ने हद पार कर रखी है। यही नहीं भारत के साथ बार्डर विवाद को भी अभी ही बढ़ा दिया है और ऑस्ट्रेलिया पर तो इस कम्युनिस्ट देश ने आर्थिक पाबंदी लगाने की धमकी दी और इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ा दी है। एक तो विश्व पहले ही कोरोना से त्रस्त है ऊपर से चीन की इन हरकतों को रोकने के लिए विश्व के नेताओं के पास एक ही उपाए था कि वो एक मंच पर आए और साथ मिलकर चीन को सबक सिखायें।
इसीलिए अब इन लोकतांत्रिक देशों ने चीन का मुकाबला करने के लिए D 10 का गठन किया है। डोनाल्ड ट्रम्प, बोरिस जॉनसन, स्कॉट मॉरिसन और इम्मानुएल मैक्रॉन जैसे नेताओं का चीन के खिलाफ एक साथ आना दिखाता है कि चीन की सत्ता अब पूरी दुनिया के लिए मुसीबत बन चुकी है।
अगर चीन को अब वैश्विक सप्लाइ चेन से बाहर नहीं किया गया तो चीन सभी देशों के लिए और भी बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकता है। सप्लाइ चेन से बाहर करने का अर्थ होगा, चीन में रोजगार, खाने और जरूरत के सामानों की भारी कमी। जैसे ही चीन में आम जनता के बीच खाने की कमी होगी, चीनी शासन के प्रति नागरिकों में एक उबाल आएगा। चीन के बहिष्कार से वहां की अर्थव्यवस्था तबाही का सामना करेगी, इससे चीन में आर्थिक खाई और बढ़ेगी, साथ ही चीन की आर्थिक तरक्की और कम्युनिस्ट विचारधारा की नीतियों की पोल खुल जाएगी। इसके बाद लोग लोकतंत्र की मांग करने के लिए सड़कों पर उतर सकते हैं।
इस क्रांति में सिर्फ जनता ही नहीं होगी, बल्कि इसमें चीन कम्युनिस्ट पार्टी के वे नेता भी शामिल हो सकते हैं जो जिनपिंग के खिलाफ बगावत का मौका तलाश रहे हैं। चीन लोकतंत्र की क्रांति से कितना डरता है यह, 4 जून 1989 को बीजिंग के थियानमेन चौक पर हजारों लोकतंत्र समर्थक छात्रों के टैंक से मरवाने की खबर से स्पष्ट पता चलता है। खैर, आज 1989 नहीं है और आज सभी देश चीन के खिलाफ हो चुके हैं।
यही मौका होगा जब सत्ता में बदलाव आए और इस देश में दशकों से चला आ रहे कम्युनिस्ट शासन का अंत हो। जैसे ही इस देश में लोकतंत्र की बहाली होगी दुनिया में शांति का माहौल आएगा।
विश्व के नेताओं को अब समझ आ गया है कि बिना लोकतंत्र के चीन में कुछ नहीं हो सकता है। इसलिए अब वे इसी लोकतंत्र को चीन के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं। ऑस्ट्रेलिया, भारत, अमेरिका और यूके जैसे लोकतान्त्रिक देशों के एक साथ आने से चीन की लंका लगनी तय है।