चीन की औपनिवेशिक मानसिकता किसी से नहीं छुपी है। इसी का एक उदाहरण है ताजिकिस्तान, जिसे अपने कर्ज जाल में फंसाकर चीन उसका एक तिहाई हिस्सा अपने अधिकार में लेना चाहता है। परंतु यही नीति उसके लिए घातक भी सिद्ध हो सकती है, क्योंकि ताजिकिस्तान रणनीतिक रूप से भारत और रूस के लिए बेहद अहम है, ऐसे में ये दोनों देश ताजिकिस्तान को चीन के हाथों में जाने नहीं देंगे।
यह सर्वविदित है कि अपने आप को वैश्विक महाशक्ति के रूप में स्थापित करने के लिए चीन हर प्रपंच को अपनाने के लिए तैयार है। चीन अपने लगभग हर पड़ोसी की भूमि पर कब्जा कर और दुनिया भर में छोटे-छोटे देशों को अपने कर्ज के जाल में फंसाकर एक अभेद्य साम्राज्य स्थापित करना चाहता है। इसी परिप्रेक्ष्य में उसने ताजिकिस्तान को भी अपने अधीन करने के लिए एक मजबूत जाल बुना है, जिसके खिलाफ रूस ने अपनी नाराजगी जाहिर की थी परन्तु आने वाले वक़्त में वो कोई बड़ा एक्शन ले तो किसी को हैरानी नहीं होगी।
दरअसल, अपनी विस्तारवादी आदतों के लिए मशहूर चीन की नजरें अब ताजिकिस्तान पर हैं और इस देश के पामीर (Pamir) क्षेत्र पर अपना हक जता रहा है। इससे पहले 2011 में चीन ने कर्ज जाल में फंसाकर तजाकिस्तान को मजबूर कर दिया कि जिसके कारण पामीर की 1000 वर्ग किमी भूमि पर चीन का कब्जा है।
बता दें कि ताजिकिस्तान का आधे से ज्यादा कर्ज बीजिंग द्वारा ही दिया गया है। इससे पहले ताजिकिस्तान ने चीन को खनन अधिकार देकर कर्ज का भुगतान किया था और अब चीन पामीर पर नजर गड़ाये हुए है। चीन ने पामीर से जुड़े लेख प्रकाशित करना भी शुरू कर दिये हें। अगस्त माह में कई चीनी मीडिया पोर्टल्स ने चीनी इतिहासकार चो याओ लू द्वारा लिखित एक लेख को प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक है “Tajikistan (ताजाकिस्तान) को अब चीन को उसकी खोई भूमि वापिस लौटानी चाहिए”। इस लेख में दावा किया गया है कि पूरा पामीर क्षेत्र पहले चीन का हिस्सा हुआ करता था, परंतु यूके और रूस के दबाव में उसे 19वीं सदी में इस क्षेत्र पर अपना दावा छोड़ना पड़ा।
अब चूंकि USA और EU मध्य एशिया में विशेष दिलचस्पी नहीं दिखाते थे, इसलिए मध्य एशिया को न चाहते हुए भी चीन पर निर्भर रहना पड़ता है। स्वयं ताजिकिस्तान भी चीन के कर्जे के बोझ तले दबा रहा है, और इस देश पर चीन का करीब 1.2 मिलियन अमेरिकी डॉलर का कर्जा बकाया है, जिसका फायदा उठाकर चीन ताजिकिस्तान का उपयोग रूस और भारत के विरुद्ध करना चाहता है।
पर ये संभव कैसे है? दरअसल, ताजिकिस्तान मध्य एशिया में रणनीतिक रूप से बेहद अहम स्थान पर स्थित है, जो अफगानिस्तान, पाक अधिकृत कश्मीर और चीन अधिकृत लद्दाख यानि गोस्थान (अक्साई चिन) के बेहद निकट है। ताजिकिस्तान पर बढ़त बनाने के लिए चीन ने एक अहम मिलिटरी बेस के निर्माण को बढ़ावा दिया है, जिसका प्रमुख निशाना भारत ही है।
2019 में प्रकाशित द प्रिंट की रिपोर्ट के अनुसार रणनीतिक रूप से अहम वाखन कॉरिडोर से कुछ ही दूरी पर ताजिकिस्तान में जिबूती के पश्चात चीन ने अपना दूसरा विदेशी सैन्य बेस तैयार किया है। वाखन कॉरिडोर इसलिए काफी अहम है क्योंकि यहाँ पर स्थित Farkhor एयरबेस से तालिबान के विरुद्ध आतंक विरोधी ऑपरेशन को अंजाम देने में आसानी होती है, और भारत भी इस कॉरिडोर का उपयोग कर पाकिस्तान के नापाक इरादों को काफी हद तक विफल करता आया है।
ऐसे में ये अत्यंत आवश्यक है कि भारत और रूस ताजिकिस्तान के मुद्दे पर चीन के नापाक इरादों को मुंह तोड़ जवाब दे। चीन के दावों से पहले ही रूस चिढ़ा हुआ था और अब ताजिकिस्तान संबंधी नीति के विरुद्ध और अधिक आक्रामक हो चुका है। मॉस्को के लिए आज भी मध्य एशिया उसका अपना गढ़ माना जाता है, क्योंकि यहाँ के अधिकतम देश कभी सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करते थे। इसीलिए रूस को चीन के बढ़ते प्रभाव से सबसे अधिक खतरा प्रतीत होता है। इसीलिए रूस ने चीन को खरी खोटी सुनाते हुए चेतावनी दी है कि यदि चीनी प्रशासन की गुंडई नहीं थमी, तो इसका परिणाम आगे चलकर चीन के लिए बहुत ही हानिकारक हो सकता है।
इसके अलावा मध्य एशिया में चीन के विरुद्ध एक अलग कारण से भी आक्रोश उत्पन्न हो रहा है, और वह है चीन में हो रहे उइगर मुसलमानों पर अत्याचार। ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान जैसे देश इस्लाम बहुल हैं, और ऐसे में जिस प्रकार से चीन उइगर मुसलमानों पर अत्याचार ढा रहा है, उसे वह कतई हल्के में नहीं ले रहे हैे। दिलचस्प बात तो यह है कि कजाकिस्तान और उज़्बेकिस्तान के साथ भारत के मधुर संबंध भी है और वह चीन के धुर विरोधी भी हैं। ऐसे में हो सकता है कि भारत और रूस चीन के विरुद्ध एक मध्य एशिया एशिया आधारित मोर्चा भी सफलतापूर्वक खोलें।
व्लादिवोस्टोक हो या लद्दाख का मुद्दा, रूस और भारत एक दूसरे का सहयोग कर रहे हैं, ऐसे में ताजीकिस्तान के मुद्दे में इन दोनों का साथ आना चीन के लिए किसी दुःस्वप्न से नहीं होगा।