हाल ही में ओलंपिक में भारतीय हॉकी के सफल प्रदर्शन के बाद से शाहरुख खान की फिल्म चक दे इंडिया फिर से चर्चा में आ गई है। भारतीय हॉकी को दोबारा जीवन देने में फिल्म चक दे इंडिया की कितनी भूमिका रही है, इस पर लंबी चर्चा होती रही है, परंतु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यह दिखने में एक अच्छी फिल्म थी।
इस फिल्म में सभी कलाकारों ने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया था और इसके कई संवाद आज भी लोगों को याद हैं। जब भारतीय हॉकी, विशेषकर महिला हॉकी टीम ने टोक्यो ओलंपिक में बेहतरीन प्रदर्शन किया तो फिल्म चक दे इंडिया एक बार फिर से लोगों की चर्चा में शामिल हो गई, परंतु क्या आपको पता है कि खेलों का प्रचार करना अथवा हॉकी को उसका खोया गौरव दिलाना शाहरुख खान की फिल्म चक दे इंडिया का मूल एजेंडा था ही नहीं?
टोक्यो ओलंपिक में ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए भारतीय महिला हॉकी टीम ने ऑस्ट्रेलिया को 1-0 से परास्त करके पहली बार सेमीफाइनल में जगह बनाई। पुरुष हॉकी टीम ने भी सेमीफाइनल में अपनी जगह बनाई थी। जब दोनों टीमें सेमीफाइनल में पहुंची तो सोशल मीडिया पर भारतीय टीम को बधाई देने वालों का तांता लग गया।
इसी बधाई के सिलसिले में फिल्म चक दे इंडिया की भी चर्चा होने लगी। 2007 में प्रदर्शित इस फिल्म में महिला हॉकी को केंद्र में रखा गया था। लीक से हटकर होने के बावजूद फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर ख़ूब कमाई की थी। बतौर महिला हॉकी टीम के कोच, शाहरुख खान के रोल को काफी सराहा गया, और उन्हे अनेक पुरस्कार भी मिले।
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फिल्म की आज भी ख़ूब चर्चा होती है लेकिन क्या आपको ज्ञात है कि इस फिल्म का प्रमुख एजेंडा क्या था? क्या वो क्रिकेट से इतर अन्य खेलों पर ध्यान केंद्रित करना था? क्या इसका उद्देश्य इस फिल्म के प्रमुख खेल, हॉकी को उसका खोया गौरव वापिस दिलाना था?
बिल्कुल भी नहीं। ये फिल्म कूट-कूटकर एजेंडावाद और तुष्टीकरण से भरी हुई थी, जिसका एक ही मकसद था– सनातन संस्कृति को नीचा दिखाना और मुसलमानों को पीड़ित के तौर पर दिखाना।
वो कैसे? क्या कभी आपने इस बात पर ध्यान दिया कि इस फिल्म के कोच का नाम कबीर खान ही क्यों रखा गया, जबकि वास्तविक कोच का नाम मीर रंजन नेगी था? क्या कभी आपने इस बात पे ध्यान दिया कि फिल्म में ऐसे संवाद क्यों थे, ‘ऐसे लोगों को पार्टीशन के वक्त ही पाकिस्तान चले जाना चाहिए था!’, ‘एक गलती तो सबको माफ होती है– सबको?’
शायद, आपने ध्यान नहीं दिया होगा क्योंकि चक दे इंडिया फिल्म की पटकथा में जो प्रोपेगैंडा था, वो इतनी सफाई से लिखा गया था कि लोग देशभक्ति की भावना में भ्रमित हो गए थे। वास्तव में जिस प्रकार से कबीर खान के किरदार को सिर्फ ‘मुसलमान’ होने के लिए टीम से निकाल दिया गया, वो एक प्रकार से सनातन संस्कृति को नीचा दिखाने का ही प्रयास था।
इस फिल्म के माध्यम से फिल्ममेकर ये दिखाना चाहते थे कि मुस्लिम कितने देशभक्त हैं, जिन्हे अकारण सताया जाता है। ऐसा करके न केवल फिल्ममेकरों ने अपना निजी एजेंडा साधने का प्रयास किया बल्कि वास्तविक तथ्यों के साथ भी खिलवाड़ किया।
मीर रंजन नेगी, जिनके ऊपर यह फिल्म कथित तौर पर आधारित थी, निसंदेह भारतीय जनता के आक्रोश के शिकार बने थे, पर उन्हें भी ऐसी दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा जैसे फिल्म ‘चक दे इंडिया’ में दिखाया गया। मीर रंजन नेगी भारतीय टीम के गोलकीपर थे, जब 1982 में नई दिल्ली में आयोजित एशियाई खेलों के फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ।
नेशनल स्टेडियम में ही वो फाइनल हुआ था और पाकिस्तान ने भारत को 7-1 से हरा दिया था। स्वयं टीम के अन्य सदस्य और पूर्व कप्तान ज़फ़र इकबाल भी मानते हैं कि उस पराजय के लिए अकेले मीर को दोषी ठहराना उचित नहीं था, परंतु उन्हें ही दोषी ठहराया गया और आखिरकार मीर को हॉकी छोड़ने पर विवश होना पड़ा।
हालांकि मीर फिर वापिस आए और 1998 के बैंकॉक एशियाई खेलों में उन्होंने भारतीय टीम को बतौर गोलकीपिंग कोच अपनी सेवाएँ दी थी। उनके और मुख्य कोच महाराज कृशन कौशिक के कारण भारत 32 वर्ष बाद एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने में सफल रहा। हालांकि मीर वहीं पर नहीं रुके। उन्होंने बतौर गोलकीपिंग कोच भारतीय महिला हॉकी टीम को भी अपनी सेवाएँ दी, और भारतीय महिला टीम ने इतिहास रचते हुए 2002 के राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक प्राप्त किया।
चक दे इंडिया फिल्म में इनमें से किसी भी तथ्य पर चर्चा नहीं हुई। पूरी फिल्म कबीर खान की बदनामी और उसके खोए गौरव को पुनः प्राप्त करने पर केंद्रित थी। हालांकि, इस बात पर तब लोगों ने गौर नहीं किया था क्योंकि फिल्म में दिखाई गई राष्ट्रवाद की भावना ने लोगों को ज्यादा अपनी और खींचा। पर शायद ‘चक दे इंडिया’ फिल्म का मूल एजेंडा हॉकी को उसका खोया गौरव लौटाना या अन्य खेलों की ओर ध्यान केंद्रित करना नहीं, अपितु अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को बढ़ावा देना था।
ऐसे में जब कुछ पढे लिखे गंवार भारतीय हॉकी के वर्तमान प्रदर्शन के लिए भारतीय खिलाड़ियों, शॉर्ड मारिन जैसे कोचों या ओड़ीशा जैसे खेल समर्थक राज्यों को क्रेडिट न देकर ‘चक दे इंडिया’ जैसे फिल्मों को क्रेडिट देते हैं, तो क्रोध से अधिक उनके मानसिक दिवालियापन पर हंसी ही आती है।