देश एक भूखंड की भौगोलिक परिस्थिति का वास्तविक विवरण है। किन्तु, राष्ट्र वहां की शाश्वत संस्कृति का सजीव चित्रण। अतः, राष्ट्र और राष्ट्र से संबन्धित स्थानों और संस्थानों का नामकरण, वहां की सनातन संस्कृति और शाश्वत सभ्यता को परिलक्षित और प्रतिबिंबित करनेवाला होना चाहिए। इस उद्देश्य से किया गया नाम परिवर्तन निश्चित ही पुनीत और प्रशंसनीय कार्य है। वैश्विक रूप से इसकी एक व्यवस्थागत परिपाटी भी है। हालांकि, हमारे स्थलों का नाम परिवर्तन उपहास के कारण है। इस उपहास और अपमान के दंश के झंझावातों को झेलने में जो नेता सबसे आगे हैं, उनका नाम है- आदित्यनाथ योगी।
योगी आदित्यनाथ ने सिर्फ अपने प्रशासनिक बल पर ही नामों को परिवर्तित नहीं किया परंतु सत्ता से इतर व्यक्तिगत स्तर पर भी इस परिपाटी को एक क्रांति के रूप में बदला। उदाहरणार्थ- मियां बाज़ार ‘माया बाज़ार’ हुआ और हुमायूँ नगर ‘हनुमान नगर’ बना। इससे आगे इनकी पार्टी का लक्ष्य मुगलों के नाम पर रखे गए 704 शहरों के नाम बदलना है। सरकार के इस फैसले से अपने द्विचित स्वभाव से ग्रसित वामपंथियों का वैचारिक विचलन स्वाभाविक था। परंतु, योगी अपने उद्देश्य पर अडिग रहें।
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अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या स्थलों के नाम परिवर्तन उचित हैं और अगर हैं तो कैसे?
संवैधानिक आधार
शहरों का नाम परिवर्तन पूर्णतः उचित है। एक शहर का नाम बदलने की प्रक्रिया एक राज्य के नामकरण के समान है। ऐसा कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है, जो किसी राज्य के किसी शहर या किसी क्षेत्र का नाम बदलने की बात करता हो। नाम बदलने की विधायी शक्ति राज्य सरकार को दी गई है। शहरों के नाम बदलने के लिए विधानसभा सदस्य द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव पर चर्चा, परिचर्चा और बहुमत से पारित होने के पश्चात इसे गृह मंत्रलाय भेजा जाता है। जहां गृह मंत्रालय, रेल मंत्रालय, खुफिया ब्यूरो, डाक विभाग, भारतीय सर्वेक्षण और भारत के महापंजीयक से ‘अनापत्ति’ प्रमाणपत्र मिलने के बाद राज्य सरकार राजपत्र में आधिकारिक अधिसूचना के माध्यम से परिवर्तन करती है। अतः नाम परिवर्तन की प्रक्रिया पूर्णतः संवैधानिक है।
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सांस्कृतिक आधार
भारत का गौरवशाली इतिहास और परंपरा इसकी अनमोल थाती है। हम इस संस्कृति के संवाहक। हमारे रुधिर में समाहित इस संस्कृति को सोखे बिना भारतीयता को समाप्त करना असंभव था। अतः वामपंथियों, अंग्रेजों, मुगलों, मुस्लिम आक्रांताओं और तुष्टीकरण समर्थक राजनेताओं द्वारा सतत वैचारिक आघात और ऐतिहासिक विकृतिकरण कर इस भारतीयता को हीनता में परिवर्तित कर दिया गया। इसके प्रतिकार में एक धर्मयोगी खड़ा हुआ। शासन की ताकत से उन्होंने राष्ट्र संस्कृति को संरक्षित और संवर्धित करनें का प्रयास किया। वामपंथ जनित विस्मृतियों को राष्ट्र संस्कृति स्मृतियों में परिवर्तित कर दिया।
मुग़लसराय जंक्शन ‘दीनदयाल स्टेशन’ बन गया। इलाहाबाद ‘प्रयागराज’ तथा फैजाबाद ‘अयोध्या’ हो गया…और हो भी क्यों ना? भारतीय जनमानस के व्यक्तित्व के संविधान, आदर्श राम की धरती का नाम अयोध्या ही होना चाहिए ना कि फैजाबाद। प्रथम विश्वविद्यालय की स्थापना स्थली का नाम नालंदा ही होना चाहिए ना की बख्तियारपुर जिसने इसे धवस्त किया। इस ऐतिहासिक भूल को शीघ्रता-शीघ्र सुधारना अत्यंत आवश्यक है। नाम से पहचान है और पहचान से शान-सम्मान और स्वाभिमान। मातृभूमि के नाम से मिट्टी के प्रति गर्व, प्रेम और सेवा की भावना जन्म लेती हैं और इसी के गोद में राष्ट्र निर्माण के विश्वकर्मा पल्लवित होते हैं।
कुछ राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय उदाहरण:
धर्म परिवर्तन के साथ नाम परिवर्तन और ऐतिहासिक विकृतिकरण में मुसलमानों का कोई तोड़ नहीं है। कंधार को गांधार और पुरुषपुर को पेशावर कर दिया गया। इस तरह के उदाहरणों से इतिहास पटा पड़ा है। सभी को अंकित करने में लेखनी और स्याही कम पड़ेंगे। जुबुलपुर से जबलपुर, जाजमो से जाजमऊ, कान्हपुर से कानपुर, त्रिवेंद्रम से तिरुवनंतपुरम, बॉम्बे से मुंबई, कोचीन से कोच्चि, मद्रास से चेन्नई, कलकत्ता से कोलकाता, कडप्पा से कडप्पा, पांडिचेरी से पुडुचेरी, Kingsway से राजपथ और Queensway से जनपथ…यह परिवर्तन के कुछ राष्ट्रीय उदाहरण है। पीकिंग से बीजिंग, कैप्टन से ग्वांगदोंग, नानकिंग से नानजिंग, सियान से शीआन और चेंगटू से चेंगदू यह नाम परिवर्तन के कुछ अंतरराष्ट्रीय उदाहरण है। इसका अर्थ वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रक्रियाओं के तहत नाम परिवर्तन होते आ रहें है। अभी हाल में ही न्यूजीलैंड के संसद में देश का नाम बदलनें की मांग की गयी। जनप्रतिनिधियों का तर्क था की ये नाम डच औपनिवेशिक शासन के एक प्रांत के नाम पर रखा गया है, अतः इसे बदला जाए।
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निष्कर्ष
नाम परिवर्तन राष्ट्रहित में है, संस्कृति सम्मत है और संवैधानिक प्रक्रिया के तहत है। राज्य को ऐसे फैसले लेने का अधिकार है। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में भी निर्दिष्ट किया गया है कि सांस्कृतिक और राष्ट्र परंपरा को बढ़ावा देना राज्य का उत्तरदायित्व है। इसके विरोध के दो ही कारण है- प्रथम, वामपंथी विचार से ग्रसित हीन मानसिकता और मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के कारण इस्लामिक आक्रांताओं का महिमामंडन। स्मरण रहे, धर्म, ध्वज और नगर तब नहीं गिरे जब अंग्रेजों और मुस्लिमों ने अत्याचार किया। बल्कि असली पराजय तब होगी जब संस्कृति का गुरूर आपके स्मृतियों से विस्मृत हो जाएगा। कम से कम ऐसे कर्मयोगी के फैसलों का सम्मान तो जनता से अपेक्षित है।