मोपला दंगों का वृहद और विस्तृत वर्णन हमारे पूर्ववर्ती अंकों में कर दिया गया है। जनसंहार का आरंभ, विस्तार, कारण, विभीषिका, समर्थन, ऐतिहासिक विकृतिकरण और मोपला दंगों से संबंध रखने वाले सभी व्यक्ति, वस्तु, स्थान और घटनाओं के बारे में तथ्यपूर्ण परिचर्चा हम इस सीरीज में कर चुके हैं। हमारे द्वारा इस मौखिक परिचर्चा को तार्किक और तथ्यपूर्ण बनाने के साथ-साथ दर्शकों की सुगमता हेतु श्रुतितुल्य और रोचक बनाने का विनम्र प्रयास है। हम अपने दर्शकों के ज्ञान-क्षुधा और राष्ट्रप्रेम से परिचित हैं। अतः इस घोर अमानवीयता के संदर्भ में हम आपके कुछ नैसर्गिक और जिज्ञासु प्रश्न से पूर्णतः अवगत हैं। हम जानतें हैं कि हमारे विद्वत और राष्ट्रभक्त दर्शकों के मन-मस्तिष्क में ये प्रश्न अवश्य कौंधा होगा कि जब नृशंस नरसंहार का नारकीय नृत्य चल रहा था, तब क्या कोई ऐसा वीर नहीं था जिसने प्रतिकार किया हो?
क्या वीरता की संस्कृति नरसंहार के समय नपुंसकता की विकृति में परिवर्तित हो गयी थी? शौर्य कहाँ था? सामाजिक प्रतिरोध के उदाहरण कहाँ थे? नौजवान धर्मवीर उस समय कहाँ थे?
खैर, वीरों का तो पता नहीं, लेकिन एक वीरांगना की पराक्रम-गाथा प्रतिरोध का प्रतीक बनी। इस अंक में हम आपको उसी वीरांगना की वीरगाथा सुनाएँगे। हम आपको संक्षेप किन्तु स्पष्ट रूप से यह बताएँगे की धर्मरक्षण हेतु उद्दत धर्म योद्धा कैसे अधर्मीयों के पूरे समूह पर भारी पड़ता है?
उत्तरी केरल में थुवूर और करुवायकांडी के बीच बंजर पहाड़ी पर एक कुआं है। 24 अगस्त, 1921 को इस बंजर पहाड़ी की चोटी पर मुस्लिम नेता चंब्रासेरी इम्बिची कोया थंगल ने अपने 4,000 से अधिक मुस्लिम अनुयायियों के साथ एक विशाल रैली का आयोजन किया था।
पहाड़ी पर एकान्त वृक्ष के नीचे थंगल खड़ा था और 40 से अधिक हिंदुओं का सर्वेक्षण कर रहा था, जो उसके सामने करबद्ध और नतमस्तक अवस्था में थे। उन पर लगे आरोप को पढ़कर सुनाया गया। तैंतीस हिंदुओं को मौत की सजा दी गई थी। पहले तीन की मौके पर ही मौत हो गई। अन्य को एक के बाद एक पास के कुएँ में ले जाया गया, जैसे वधशाला में भेड़ के बच्चे।
जल्लाद कुएं के पास खड़ा था। वहाँ, प्रत्येक हिंदू को झुकने के लिए तख्त बनाया गया और उस पर उनके सर को रखा गया। फिर कुल्हाड़ी ने अपना वीभत्स कार्य शुरू किया। अधिकांश हिंदुओं के सिर काट दिए गए और उनके शरीर को कुएं में फेंक दिया गया। उनमें से कुछ की तत्काल मृत्यु नहीं हुई, लेकिन उन्हें गंभीर रूप से घायल कुएं में फेंक दिया गया। कुएं को ठोस चट्टान से तराशा गया था। उसके चारों ओर कोई दीवार नहीं थी। जो लोग गिरने से बच गए, उन्हें खूनी लाशों के बीच एक धीमी दर्दनाक मौत मरनी थी। खूनखराबे के तीन दिन बाद लोगों ने कुएं से चीख-पुकार सुनी लेकिन वे मदद करने नहीं आए क्योंकि वे स्वयं बहुत डरे हुए थे। जो कोई भी यहां घूमने आता, वह भयानक मृत अवशेष पाता। कुएं का तल मृतकों के कंकालों से भर गया।
चेम्ब्रसेरी के इस अमानवीय कृत्य के बाद, कई क्षेत्रों से ऐसी खबरें आई कि दंगाइयों ने दंगों में शामिल नहीं होने वालों को शारीरिक रूप से नुकसान पहुंचाना आरंभ कर दिया था। विभीषिका की पराकाष्ठा देखिये और कल्पना कीजिये कि कैसा भयक्रांत वातावरण होगा, जब कुछ निरीह और असुरक्षित हिंदुओं को इन क्रूर मजहबी भेड़ियों की दयालुता पर छोड़ दिया गया। मैं तो कहूँगा कि यह नृशंसता, राजनैतिक नपुंसकता, सामाजिक अकर्मण्यता, वामपंथी दिग्भ्रमिता, पशुता और मानवीय मूल्यों के पतन की भी पराकाष्ठा है।
परंतु, इस प्रलय और घनघोर तम के बीच संबल और प्रतिरोध का दिया जलाती एक वीरांगना विलक्षण वीरता का उदाहरण प्रस्तुत करती है।
26 सितंबर को एरीकोड तालुक में रहनेवाली एरिनहिक्कल नारायणियम्मा के घर कुछ मोपला घुस आए। पशुता करने को उद्दत ये मोपला दंगाईयों ने रात के दौरान बाहरी दरवाजे को तोड़ नारायणी घर में प्रवेश किया। इन क्रूर जंगली पशुओं को नारायणी एक निरीह शिकार सम प्रतीत हुई। उस समय घर में कुछ अन्य महिला और उनकी बहन थीं। अतः धर्म से ही धर्मांधता की स्वीकार्यता लिए हुए इन मप्पीलाओं को नारायणी और अन्य स्त्रियाँ सिर्फ मांस के एक टुकड़ा दिख रहीं थी, जिसके मान, सम्मान, शील और जान से वो मनोरंजन और शारीरिक क्षुधा तृप्ति को आतुर थे। इतनी अमानवीयता आश्चर्यजनक है परंतु उस समय उन मप्पीलाओं के इस अमानवीयता को इस्लामिक संरक्षण और स्वीकार्यता प्राप्त थी। अतः, इस्लामिक उन्माद और शासनकाल में हिंदुओं पर ये क्रूरता आम बात थी। नारायणी को परिस्थितियों का ज्ञान था। वह सजग और सतर्क थी। बिलकुल निर्भीक। सामर्थ्य, संबल और स्वाभिमान का प्रत्यक्ष प्रतिमूर्ति।
मप्पीलाओं को प्रवेश करते देख नारायणीयम्मा ने भागकर अन्य महिलाओं के जीवन रक्षण का प्रयत्न किया। दुर्भाग्यवश, एक मप्पीला ने उन पर चाकू से वार किया। साक्षात नारायण सम शक्ति को स्वयं में समाहित किए नारायणम्मा ने भीषण प्रतिकार किया। नारायणी ने अपने कटार से उस राक्षस का वध कर दिया। नारायणी ने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए अपने बहन और अन्य स्त्रियों के जीवन और शील रक्षण किया। परंतु, उनके इस भीषण प्रहार से अचंभित 10-15 आताताइयों ने एकसाथ उन्हें घेर लिया। दो-तीन लोगों को घायल कर नारायणी गिर गई। इस चहुंदिशी प्रहार ने शौर्य को शारीरिक क्षमताओं की सीमा में बांध दिया लेकिन, विरोध करने वाली और उनकी बहन इस हलचल से बच निकली। यह सब सुनने के बाद, मदद हेतु आगे आए कृष्णन नायर ने मप्पिलाओं पर हमला कर दिया परंतु मोपलाओं उन्हें भी धराशायी कर दिया तथा उन्हें मृत मानकर छोड़ दिया। अगले दिन, नारायणी को कोझीकोड अस्पताल लाया गया। उनके देह पर अनगिनत घाव थे। उनकी मृत्यु को वैज्ञानिक भाषा में समझाएँ तो इसे ‘death after death’ कहते हैं।
के माधवन नायर की मलयाली भाषा में प्रकाशित पुस्तक मलाबार कलप्पम के पृष्ठ संख्या 204 पर नारायणी के इस अद्वितीय वीरता का सजीव चित्रण किया गया है। उनकी इस अतुलनीय वीरता का वर्णन एरनाड कलप्पम नामक मलयाली लोकगीत के माध्यम से भी किया गया है। मलयाली भाषा में कलप्पम का अर्थ दंगों से है। शौर्य और शक्ति की समझ हेतु भावी पीढ़ियों को इसका अवश्य ही अध्ययन करना चाहिए।
राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ ऐसी वीरांगना के नाम पर वीरता का प्रदर्शन करने वाली महिलाओं को “women for exemplary bravery’’ का पुरस्कार देकर नारायणी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहती है। यह प्रशंसनीय है। पीढ़ियों को उनके बारे में ज्ञात होना चाहिए।
इस सच्ची घटना से हम अपने दर्शकों को दो बात समझाना चाहते हैं। प्रथम, जितने प्रहार नारायणी के शरीर पर किया गया वो इस्लामिक धर्मांधता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। और नारायणी का प्रतिकार ‘धर्मो रक्षति रक्षतः’ का प्रतिबिंब। नारायणी का साहस यह दर्शाता है कि अगर हम धर्म की रक्षा करें तो धर्म अवश्य हमारी रक्षा करेगा। यह इस्लामिक धर्मांधता पर सनातन विजय है। इस कहानी के माध्यम से आप इस्लामिक क्रूरता का दर्शन करें और धर्मपरायणता हेतु उद्दत हों। इस बात को समझें कि एकता में ही शक्ति है। इसी शक्ति से आप संरक्षित रहेंगे। अन्यथा इस्लाम आपको एक कर देगा काफिर के नाम पर। धर्मो रक्षति रक्षतः से यत: धर्मोस्ततः जयः की सीख मोपला दंगों पर हमारे इस प्रस्तुतीकरण को सार्थकता देगी।
भाग 1 – मोपला नरसंहार: कैसे टीपू सुल्तान और उसके पिता हैदर अली ने मोपला नरसंहार के बीज बोए थे
भाग 2- मोपला नरसंहार: टीपू सुल्तान के बाद मोपला मुसलमानों और हिंदुओं के बीच विभाजन का कारण
भाग 3- मोपला नरसंहार: 1921 कोई अकेली घटना नहीं थी, 1836 से 1921 के बीच 50 से अधिक दंगे हुए थे
भाग 5- मोपला हिंदू विरोधी नरसंहार का सच: इस्लाम न अपनाने पर 10,000 हिंदुओं की हत्या कर दी गई
भाग 6- मोपला हिंदू विरोधी नरसंहार: कांग्रेस ने इसे स्वतंत्रता संग्राम और कम्युनिस्टों ने ‘कृषक क्रांति’ कहा
भाग-7: मोपला हिंदू विरोधी नरसंहार: क्यों आवश्यक है “मोपला नरसंहार दिवस”