गंभीर आर्थिक संकट और गिरती चुनावी रेटिंग से सहमे तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन देश पर पूर्ण नियंत्रण हासिल करने के लिए कमर कस रहे हैं। कथित तौर पर, अगले साल राष्ट्रपति और संसदीय चुनावों से पहले एर्दोगन पूरे विपक्ष को अपराधी बनाना चाहते हैं, जो बदले में ‘एक पार्टी की तानाशाही’ (One Party Dictatorship) का मार्ग प्रशस्त करेगा। अल-मॉनिटर की एक रिपोर्ट के अनुसार, एर्दोगन ने विपक्ष को “देश की सबसे बड़ी समस्या” कहा है और मुख्य विपक्षी नेता तथा उनके सहयोगियों को आतंकवादी समूह से जुड़े होने और इस्लाम के विरोधी के रूप में चित्रित करने का अभियान चला रहे हैं। तुर्की की मुख्य विपक्षी पार्टी रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (CHP) के बेहद लोकप्रिय नेता और इस्तांबुल के मेयर, इक्रेम इमामोग्लू राष्ट्रपति एर्दोगन की हिट लिस्ट में बने हुए हैं।
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विपक्ष को किया आतंकवादी हमदर्द के रूप में चित्रित
इक्रेम इमामोग्लू अपनी साफ-सुथरी छवि और नैतिकता के कारण पोल रेटिंग चार्ट पर लगातार आगे बढ़ रहे हैं। इस डर से कि कहीं वो एर्दोगन के भविष्य के लिए एक बाधा न बन जाएं, आंतरिक मंत्रालय ने पिछले महीने उसके खिलाफ आतंकवाद से संबंधित आरोप लगाए। आंतरिक मंत्री सुलेमान सोयलू ने आरोप लगाया है कि इस्तांबुल मेट्रोपॉलिटन नगर पालिका (IMM) के 500 से अधिक कर्मचारी आतंकवादी समूहों से जुड़े हुए हैं। हालांकि, जब इमामोग्लू ने नामों की सूची मांगी तो मंत्रालय ने चुप्पी साध ली।
एर्दोगन समझते हैं कि इमामोग्लू को बाहर करने के लिए न्यायिक मार्ग कहीं उल्टा न पड जाए, क्योंकि वर्तमान में जनता उनके पक्ष में है। इसलिए तुर्की के राष्ट्रपति अपमानजनक आरोप लगाकर धीरे-धीरे जनता की धारणा को बदलना चाह रहे हैं। एर्दोगन को उम्मीद है कि यह धारणा उनसे चिपक जाएगी और जनता उन पर संदेह करने लगेगी।
यह पूछे जाने पर कि क्या इमामोग्लू और अन्य विपक्षी दिग्गजों को दरकिनार किया जा सकता है, सीएचपी के डिप्टी चेयरपर्सन अली ओज़टुंक ने कहा, “वे इस तरह के इरादों से अपना मनोरंजन कर सकते हैं, लेकिन आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं करेंगे, क्योंकि लोकतंत्र में लोगों और लोगों के वोट मायने रखते हैं। अंकारा और इस्तांबुल के चुनावों में लोगों ने अपनी इच्छा प्रकट की। ऐसा वे आम चुनाव में भी करेंगे।”
एर्दोगन का अंतिम खेल
एर्दोगन का अंतिम खेल यह है कि भले ही विपक्षी दलों को आतंकवाद से जोड़ने की रणनीति काम न करे, पर यह रणनीति तुर्की को तानाशाही से नियंत्रित करने और लोकतंत्र की अवधारणा को नकारने की दिशा की ओर ले जायेगी। एक राजनीतिक टिप्पणीकार को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि “चाहे सीएचपी का राष्ट्रपति उम्मीदवार कोई भी हो, एकेपी-एमएचपी गठबंधन [एर्दोगन के गठबंधन दल] उस व्यक्ति को आतंकवाद से जोड़ने और कथाओं के आधार पर एक चुनावी रणनीति बनाने की कोशिश करेंगे। यह राष्ट्र के लोकतांत्रिक अस्तित्व और राज्य की सुरक्षा के लिए घातक सिद्ध होगा।”
गौरतलब है कि एर्दोगन नया खलीफा बनने और ऑटोमन साम्राज्य को पुनर्जीवित करने का सपना देख रहें है तथा यह सऊदी अरब के खिलाफ तुर्की को सतत कूटनीतिक युद्ध में झोंक रहें है। इतना ही नहीं एर्दोगन, सऊदी वर्चस्व को बदलने और उम्मा का नेतृत्व करने की भी कोशिश कर रहें है।
हालांकि, महामारी, असंख्य संघर्षों और एक डूबते अर्थव्यवस्था ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि एर्दोगन तुर्की के एक छोटे से प्रांत का खलीफा भी नहीं बनेंगे, पूरी मुस्लिम दुनिया को तो भूल ही जाइए। आर्थिक उथल-पुथल, गंभीर मुद्रा मूल्यह्रास, आसमान छूती कीमतों और एकेपी रैंकों में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के बढ़ते आरोपों के बीच एर्दोगन के मतदान संख्या में लगातार गिरावट आई है। वहीं, दूसरी ओर सीएचपी के लोकप्रिय नेता इमामोग्लू और अंकारा के मेयर एवं सीएचपी सदस्य मंसूर यावस की लोकप्रियता में काफी बढ़ोत्तरी देखने को मिली है।
खतरे में है तुर्की की अर्थव्यवस्था
बताते चलें कि मौजूदा समय में तुर्की की अर्थव्यवस्था मंदी की स्थिति में है। तुर्की लगातार मुद्रास्फीति से जूझ रहा है और उसकी मुद्रा- लीरा अपनी मृत्युशय्या पर है। एर्दोगन ने ब्याज दरों में निरंतर निम्न स्तर तक कटौती की है, जो लीरा के टूटने का प्रमुख कारण रहा है। कम ब्याज दरों ने तुर्की में ऋण सस्ता कर दिया है और व्यावहारिक रूप से कोई भी उनका लाभ उठा सकता है। इससे तुर्की की अर्थव्यवस्था में मुद्रा का अतिप्रवाह हुआ है।
मुद्रास्फीति के कारण अनिवार्य रूप से लीरा ने अपना आधा मूल्य खो दिया और यह करेंसी अत्यंत सस्ती हो गई है। कीमतें बढ़ गई हैं और लोगों के पास अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नकदी नहीं है। तुर्की के लोग निरंतर रूप से गरीब होते जा रहे हैं। वर्ष 2013 में तुर्की में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 12,582 डॉलर था, जो अब केवल 8,538 डॉलर पर सिमट गया है।
एर्दोगन के पागलपन के कारण, तुर्की को पिछले साल अपने काल्पनिक सहयोगी पाकिस्तान के साथ FATF के ग्रे-लिस्ट में शामिल किया गया था। खलीफा बनने के सपने संजोए हुए एक पागल तानाशाह अब अपने सपनों को पूरा करने के लिए राष्ट्रवाद और राजनीति के न्यूनतम स्तर को छू रहें है, भले ही इसका असर तुर्की के लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही क्यों न पड़े!
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