होइहि सोइ जो राम रचि राखा, बस यही बात समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को ठीक से समझ आ जाती तो फिर क्या ही होता। वर्ष 2014 के बाद से ही अपनी पतन की गाथा लिख रही समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव ने इस बार जो किया वो साफ़ प्रदर्शित कर रहा है कि कैसे अपने किए का ठीकरा, अपनी नीतियों के अनुरूप परिणाम न आने का भोझा कार्यकर्ताओं पर मढ़ना अखिलेश यादव के लिए ज़्यादा सुलभ है न कि अपनी गलतियों को स्वीकारना। समाजवादी पार्टी ने रविवार को लोकसभा उपचुनावों में हार के बाद पार्टी में सुधार के प्रयास के रूप में अपने सभी संगठनों के राष्ट्रीय, राज्य और जिला कार्यकारी निकायों को भंग कर दिया है। यह करना सिद्ध कर रहा है कि कैसे अखिलेश यादव अब भी अपनी खामियों को मानने से अधिक दोषारोपण करने में अधिक दिलचस्पी ले रहे हैं।
दरअसल, समाजवादी पार्टी के आधिकारिक ट्वीटर हैंडल @samajwadiparty से ट्वीट किया गया कि, “समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अखिलेश यादव जी ने तत्काल प्रभाव से सपा उ.प्र. के अध्यक्ष को छोड़कर पार्टी के सभी युवा संगठनों, महिला सभा एवं अन्य सभी प्रकोष्ठों के राष्ट्रीय अध्यक्ष, प्रदेश अध्यक्ष,जिला अध्यक्ष सहित राष्ट्रीय,राज्य, जिला कार्यकारिणी को भंग कर दिया है।” इसके बाद कई बिंदुओं पर सभी का ध्यान आकर्षित करना बेहद ज़रूरी है जो बताते हैं कि समाजवादी पार्टी में कितनी समाजवाद जीवित है और वास्तव में एक राजनीतिक दल के रूप में उसके गिरते ग्राफ ने स्पष्ट कर दिया है कि तुष्टिकरण ज़्यादा दिन नहीं चल सकता।
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अखिलेश यादव जी ने तत्काल प्रभाव से सपा उ.प्र. के अध्यक्ष को छोड़कर पार्टी के सभी युवा संगठनों, महिला सभा एवं अन्य सभी प्रकोष्ठों के राष्ट्रीय अध्यक्ष, प्रदेश अध्यक्ष,जिला अध्यक्ष सहित राष्ट्रीय,राज्य, जिला कार्यकारिणी को भंग कर दिया है।
— Samajwadi Party (@samajwadiparty) July 3, 2022
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जब 2014 में सत्ता परिवर्तन हुआ
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी लेकिन लहर ऐसी कि लोकसभा की कुल 80 सीटों में भाजपा ने 71 सीटों पर जीत दर्ज़ की थी तो समाजवादी पार्टी 23 से खिसककर 5 सीटों पर ही सिमट कर रह गई। इसके बाद यह तो स्पष्ट था कि उतर प्रदेश में परिवर्तन की बयार चल उठ थी। समाजवादी पार्टी को पहला झटका 2014 में लगा तो दूसरा 2017 में सरकार जाते वक्त लगा जब भाजपा 47 सीटों से सीधा 312 सीटों पर पहुँच गई और सपा 224 से 47 सीटों पर सिमट गई। इस दौरान पारिवारिक लड़ाई, सपा अध्यक्ष बनने की लड़ाई के बाद अखिलेश का अपने चाचा शिवपाल से मतभेद हुआ और शिवपाल यादव ने अपनी पार्टी बना ली जिसका नाम “प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया)” रखा गया।
2017 विधानसभा चुनाव के नतीजों से कोई सीख न लेने वाले यही समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव 2019 में लोकसभा चुनाव में एक बार फिर से अपने तुष्टिकरण के खेल के दलदल में स्वयं धसते चले गए। 2014 लोकसभा चुनाव की तरह एक बार फिर पार्टी 5 सीटों पर ही सिमट कर ही रह गई। इस बार भी अखिलेश यह नहीं समझ पाए कि अब “M-Y” फैक्टर अर्थात मुस्लिम-यादव समीकरण समाजवादी पार्टी के हाथ में रहा ही नहीं है। बावजूद इसके पार्टी इसी तुष्टिकरण में लगी रही कि कोई साथ दे या न दे, “M-Y” समीकरण तो देगा ही। इस दावे को एक बार फिर से 2022 के विधानसभा चुनावों में जनता ने अपने मताधिकार से खारिज कर सपा की लुटिया डूबोनी जारी रखी।
“M-Y” समीकरण को नकारा
यादव बाहुल्य सीटों पर भी बुरी हार और करहल से लड़ने के बावजूद सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव को वो जीत नहीं मिली जिसके लिए वो आशान्वित थे। जिस सीट को सपा का गढ़ बताया जाता था, यादव बाहुल्य क्षेत्र, ऐसी मैनपुरी सदर सीट से सपा प्रत्याशी, 2 बार के विधायक, राजकुमार यादव को गैर यादव चेहरे और भाजपा प्रत्याशी जयवीर सिंह ने हरा दिया। ऐसी कई सीटें रहीं जहाँ सपा के “M-Y” समीकरण को जनता ने अपने मताधिकार से दर्पण दिखा दिया। विधानसभा चुनाव की हार के बाद सबसे बड़ा झटका हाल ही में 2 लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव ने दे दिया।
सपा के उन दो गढ़ों में जहाँ से मुलायम सिंह यादव भी सांसद रहे और अखिलेश यादव भी सांसद रहे, ऐसी आज़मगढ़ और रामपुर दोनों सीटों पर भाजपा के प्रत्याशियों ने जीत दर्ज़ कर यह दर्शा दिया कि अब राज्य में “M-Y” समीकरण के नाम पर समाजवादी पार्टी के पास न मुस्लिम मतदाताओं का विश्वास रहा और यादव तो 2014 से ही छिटकते चले आ रहे थे। अब अपनी कुंठा और हार का ज़िम्मेदार कार्यकर्ताओं को ठहरा सभी इकाइयों को भंग करके अखिलेश यादव अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारने का काम कर रहे हैं क्योंकि वही बचे-खुचे कार्यकर्ता उसका झंडा-डंडा उठाने के लिए आगे खड़े दिखते थे।
ऐसे में पार्टी के सभी पदों को रिक्त कर, भंग कर देना ठीक उसी परिवारवादी सोच को दर्शा रहा है कि आज भंग करेंगे और कल फिरसे उन सदस्यों के बीच में ही पद की बंदरबांट कर देंगे। परिणाम क्या रहेगा? वही परिवारपोषित पार्टी जो अपने इसी परिवारवादी सोच के कारण ज़मींदोज़ हो चुकी है। न अखिलेश यादव अपनी गलती मानेंगे और न ही अब समाजवादी पार्टी हाशिए से ऊपर आ पाएगी।
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