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क्या बनारसी साड़ी मुग़लों की देन है? संक्षिप्त उत्तर: नहीं, लंबा उत्तर: लेख पढ़ें

मुग़लों से वामपंथियों की इतनी 'मोहब्बत' का रहस्य क्या है?

Deeksha Sharma द्वारा Deeksha Sharma
6 August 2022
in ज्ञान
saree

Source- Google

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कई सदियां बीती और इस बदलते संसार में लोगों का न केवल खान- पान, सोच और नजरिया बदला है बल्कि उनकी वेश- भूषा भी बदली है। लेकिन विश्वभर के देशों के परिधान भले ही बदल गए हों मगर आज तक भारतीय साड़ियों को कोई मात नहीं दे सका है। चाहे बदलता समाज हो, वक्त के साथ बदलते परिधान हों या लोगों की सोच। साड़ियां जो भारतीय महिलाएं सदियों से पहनती आ रही हैं वे आज केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्वभर में लोकप्रिय हो रही हैं।

बात जब साड़ियों की आती है तो बनारसी साड़ी का कोई मुकाबला नहीं और यह बात हर कोई जानता है। बनारसी साड़ियों की मांग मार्केट में इतनी अधिक है कि चीन भी इसकी सस्ती कॉपी बनाने लगा है। जहाँ बनारसी बुनकर अपने हाथों से कड़ाई कर एक एक साड़ी तैयार करते हैं। वहीं चीनी चोर मशीनों से तैयार की गई साड़ियों को कम दाम में बेच कर मुनाफा कमाते हैं। खैर, यह सत्य तो कोई नहीं बदल सकता कि नक़ल हमेशा नक़ल ही रहती है और असली की जगह नहीं ले सकती। बनारसी साड़ियां जो सदियों से अधिकांश भारतीय महिलाओं के जीवन में एक अभिन्न अंग रही हैं। महिलाओं के अलंकरण को चित्रित करने से लेकर मर्यादा और सम्मान तक, इस पारम्परिक कपड़े का अपना एक इतिहास है।

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हालांकि कुछ लोगों को यह ग़लतफहमी है कि वे बनारसी साड़ियां जो भारतीय महिलाएं सदियों से पहनती आ रही हैं उन्हें भारत में लाने वाले मुग़ल थे। वही मुग़ल जो आज तक साड़ी से परहेज़ करते हैं। यदि आपको भी यही लगता है तो बिल्कुल गलत है। कई लोग कहते हैं कि वाराणसी दुनिया का सबसे पुराना शहर है। अधिकांश कहते हैं कि यह भारत का सबसे पुराना शहर है।

और पढ़ें: भारतीय संस्कृति पर मुगलों का प्रभाव- अध्याय 2: भारतीयों वस्त्रों पर ‘मुगलई’ छाप

अमेरिकी हास्य लेखक, कवि और उपन्यासकार मार्क ट्वेन कहते हैं, “बनारस इतिहास से भी पुराना है, परंपरा से भी पुराना है, किंवदंती से भी पुराना है, और इन सभी को मिलाकर जितना पुराना दिखता है, उससे दोगुना प्राचीन है।” बनारस स्वयं में ही इतना प्राचीन है, भारत की साड़ियां प्राचीन हैं कि 200 वर्ष भारत में हाहाकार मचाने वाले मुगलों का इतिहास भी उसके आगे कुछ नहीं। उत्तर प्रदेश के कण-कण में एक इतिहास है और इस इतिहास में बनारस सबसे पुरातन है। बनारस पूरे विश्व में भगवान शिव की नगरी के रूप में प्रसिद्ध है। जितना इस शहर का खान-पान, जीवनशैली, परम्पराएं, रीति-रिवाज़ और गंगा आरती दुनिया भर के लोगों को आकर्षित करती है उतना ही यहां बनने वाली  बनारसी साड़ी की दुनिया में अपनी अलग ही पैठ है। जानकारों का मानना ​​है कि इस साड़ी का इतिहास 2000 साल पुराना है।

जातक कथाओं में बनारसी साड़ी का उल्लेख

बनारसी साड़ी का सीधा मतलब रेशमी कपड़ा होता है। अब तक माना जाता है कि रेशम का आविष्कार सबसे पहले चीन में हुआ था और लंबे समय तक चीन ने इसे गुप्त रखा। हालाँकि रेशम का उल्लेख सबसे पहले वैदिक काल में मिलता है, जो लगभग 5000 ईसा पूर्व का है, जब रेशम और रेशम के वस्त्र भारतीयों के लिए आम हुआ करते थे। महाभारत में भी रेशम और रेशम के वस्त्रों के बारे में वर्णन है। भगवान कृष्ण को हमेशा काशी पीताम्बरा (बनारस, पश्चिम बंगाल के रेशम) में पहने हुए के रूप में वर्णित किया गया था। ऋग्वेद में ‘हिरण्य’ नाम का उल्लेख मिलता है।

जो रेशम पर की जाने वाली जरी का कार्य माना जाता है। जानकारों का कहना है कि यह बनारसी साड़ी की खासियत है। रेशम भारी ज़री के काम के लिए सबसे उपयुक्त है। इसके बाद जातक कथाओं में भी गंगा के किनारे कपड़े खरीदने-बेचने का उल्लेख मिलता है। जिसमें रेशम और जरी की साड़ियों का वर्णन है। माना जाता है कि यह बनारसी साड़ी है। भगवान बुद्ध जब जीवित थे उस समय भी वाराणसी के ये रेशमी वस्त्र हर जगह प्रसिद्ध थे। वाराणसी के इन वस्त्रों का उल्लेख बौद्धिक शास्त्रों के सूत्र 9 में किया गया है कि जब राजकुमार सिद्धार्थ संन्यासी बन गए, तो उन्होंने काशी के शाही राज्य के शानदार रेशमी कपड़े उतार दिए और इसके बजाय कसायनी वस्त्राणी पहन ली।

जातक में, काशी साम्राज्य का उल्लेख 5वीं शताब्दी या 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में कपास के साथ-साथ रेशम के निर्माण में एक प्रमुख केंद्र के रूप में किया गया है। काशी के सूती कपड़े उत्कृष्ट रूप से बुने हुए, चिकने, पूरी तरह से सफेद रंग, और उनके रेशे महीन, नरम और उत्कृष्ट थे। ऐसा कहा जाता है कि जब बुद्ध की मृत्यु हुई, तो उनके अवशेषों को शुद्ध करके काशी के नए सूती कपड़े से लपेटा गया था।

और पढ़ें: 28 अप्रैल 1758 – आज ही के दिन “कटक से अटक तक” हिंदवी स्वराज्य की नींव पड़ी

मुग़ल और बनारसी साड़ी

सोने और चांदी के धागों से सजने वाली ये साड़ियां हज़ारों वर्षों से राजा महाराजाओं में लोकप्रिय रही है। फिर भारत में मुग़ल आये और बनारसी बुनकरों का काम देख वे काफी प्रभावित हुए। मुग़ल राजा अकबर बनारसी सिल्क और जरी के काम पर ऐसे मंत्रमुग्ध हुए कि अपने लबादे से लेकर अपनी बेगमों के कपडे तक पर बनारसी बुनकरों से बनवाने लगे। यहाँ तक कि वह इन साड़ियों को तोहफे के तौर पर भी इस्तेमाल करते थे। पहले जहाँ बनारसी साड़ियों में मुगलों के दौरान हिंदू देवी-देवताओं के डिजाइन हुआ करते थे वहीं अब इन साड़ियों पर इस्लामिक डिजाइन के फूल बनाए जाने लगे।

मुगलों के बाद बनारसी साड़ी का व्यापार/अंग्रेज़ भी बनारसी बुनकरों के कायल

भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान कई ब्रिटिश यात्रियों द्वारा भी बनारस के कई विवरण दर्ज किये गए हैं और उनमें बनारसी वस्त्रों का भी उल्लेख है। बनारस के वस्त्र जितनी मेहनत और कुशलता से बनाये जाते थे उनकी लोकप्रियता अंग्रेज़ों तक भी पहुँच गई और बनारसी वस्त्र यूरोप को निर्यात की जाने वाली लोकप्रिय वस्तुओं में शामिल हो गए।

आज आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी फैशन जगत में हर दिन कोई न कोई नया वस्त्र और डिजाइन आने पर भी कोई वस्त्र बनारसी साड़ी की जगह और इससे तुलना नहीं कर सकता है। बनारस शहर और इसके बुनाई कौशल से जुड़े इतने प्रभावशाली इतिहास के साथ यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इसके बुनकरों को कौशल और प्रतिभा पीढ़ियों से विरासत में मिली है।

और पढ़ें: मुगलों और किन्नरों के संबंध का NCERT में किया गया महिमामंडन, सच्चाई आपको चौंका देगी!

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