देश की आजादी में वीर सावरकर के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है लेकिन कांग्रेसियों की कुंठा, वामपंथियों का एजेंडा और कट्टरपंथियों ने अपने घृणित खेल से उनके योगदान को धुंधला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज भी स्थिति ऐसी है कि घृणित मानसिकता वाला कुनबा वीर सावरकर के नामोनिशान को मिटा देना चाहता है लेकिन क्यों? इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि आखिर क्या कारण है जो वीर सावरकर के उल्लेख मात्र से ही वामपंथी त्राहिमाम कर उठते हैं और क्यों उनके योगदानों को अनदेखा करने हेतु जी तोड़ प्रयास किये जाते हैंं।
हाल ही में कर्नाटक के शिवमोगा जिले में स्वतंत्रता दिवस के शुभ अवसर पर भव्य समारोह की तैयारी की जा रही थी परंतु वहां एक घटना ने सब कुछ बदल कर रखा दिया। शिवमोगा में सोमवार को दो गुटों में झड़प हो गई। अमीर अहमद सर्कल पर हिंदू संगठन के लोगों ने वीर सावरकर का पोस्टर लगाया था। उसके बाद टीपू सुल्तान के समर्थकों ने इसका विरोध किया और अपना झंडा लेकर पहुंच गए। उन्होंने वहां टीपू सुल्तान का पोस्टर लगाने की कोशिश की जिसके बाद यह विवाद हिंसक हो गया और इसमें एक व्यक्ति घायल भी हो गया।
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विवाद रोकने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। बाद में सावरकर की तस्वीर भी हटा दी गई। इलाके में तनाव को देखते हुए पूरे शहर में धारा 144 लगा दी गई है। वहीं, भारी संख्या में पुलिस बल की तैनाती की गई है। शिवमोगा के DM ने आज मंगलवार को शहर और भद्रावती टाउन लिमिट में स्कूल और कॉलेज बंद रखने का आदेश दिया है।
परंतु बात यहां तक क्यों पहुंची? आखिर ऐसा क्या है वीर सावरकर में, जिसके नाम मात्र से अंग्रेज़ से लेकर उनके बौद्धिक वंशज यानी कांग्रेस से लेकर अनेक वामपंथी बुद्धिजीवी तक उनका नामोनिशान मिटा देना चाहते हैं? कारण स्पष्ट रहा है- भारत और भारतीयता में इस अमर क्रांतिकारी का अटूट विश्वास, जिसके कारण भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस तो क्या, जिन्ना और लेनिन जैसे लोग तक इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए थे!
उदाहरण के लिए, वर्ष 2020 में कट्टरपंथ के प्रति सचेत करते हुए फ्रेंच राष्ट्राध्यक्ष इमैनुएल मैक्रों ने कहा था कि ‘फ्रांस में मुस्लिम लगातार समानांतर समाज बना रहे हैं और यही लोग देश में इस्लामिक आतंकवाद फैला रहे हैं।’ भारत में भी ऐसे लगातार बढ़ते मामले साबित करते हैं कि वे अभिव्यक्ति की आजादी का हनन कर रहे हैं और विकसित समाज को पीछे ले जाकर नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं। परंतु इसके बारे में वर्षों पूर्व सावरकर ने सचेत करते हुए कहा था कि मुस्लिमों और ईसाइयों के पास हिंदुत्व की सारी योग्यताएं हैं लेकिन जो एक नहीं है वो ये कि वो भारत को अपनी मातृभूमि नहीं समझते हैं।
सावरकर ने अपनी किताब “हिन्दुत्व: कौन हिन्दू है” में इससे जुड़ी सारी बातों का जिक्र किया है। फ्रांस के राष्ट्रपति जिन मुद्दों पर लगातार बोल रहे हैं, वास्तव में सावरकर 1923 में ही अपनी उस किताब में यह सब कह चुके हैं। एक वक्त ऐसा भी था जब यह किताब लोगों के लिए एक पवित्र ग्रंथ बन गई थी, जो लोग हिन्दुत्व का समर्थन करते थे वो इसे धार्मिक ग्रंथ तक मानने लगे थे। सावरकर के अनुसार मुसलमान चाहे जहां भी रहें या कहीं भी पैदा हुए हो, उनकी आस्था हमेशा ही अपने पवित्र स्थान मक्का और मदीना में ही रहती है। इसी तरह ईसाइयों की आस्था भी रोम में ही रहेगी, चाहे वो दुनिया के किसी भी कोने में हों। अब समझिये, कैसी थी उनकी दूरदर्शिता और क्यों उनसे चिढ़ते हैं कट्टरपंथी और वामपंथी?
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