बीसवीं सदी का आरंभिक दौर भारत में क्रांति, स्वतंत्रता और अंग्रेजी साम्राज्य से मुक्त होने की चाहत रखने वाला दौर था। इस दौरान पाटन साम्राज्य और उसके दरबार में चल रही उठा-पटक पर आयी एक साहित्यिक कृति ने गुजरात के लोगों के अंदर उत्सुकता पैदा कर दी। पाटन नी प्रभुता यानी “पाटन का प्रभुत्व” नामक यह किताब लोगों के बीच में इतनी प्रसिद्ध हुई कि इसके लेखक कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी यानी के.एम. मुंशी संपूर्ण गुजरात में प्रसिद्ध हो गए।
प्रतिभा को नहीं मिला सम्मान
के.एम. मुंशी केवल एक साहित्यकार नहीं थे, वे साहित्यकार के अलावा एक वकील, शिक्षाविद्, स्वतंत्रता सैनानी और राजनीतिज्ञ भी थे। जिन्होंने अपने जीवनकाल में ‘सोमनाथ मंदिर’ के पुनर्निमाण और ‘भारतीय विद्या भवन’ की स्थापना करने जैसे कई महत्वपूर्ण कार्य किए लेकिन उनके योगदान को इतिहास के पन्नों में सीमित कर दिया गया। उनकी प्रतिभा को वह सम्मान नहीं मिला जिसके वो अधिकारी थे।
के.एम. मुंशी का जन्म 30 दिसंबर, 1887 ई. को गुजरात के भरूच में हुआ था। छात्र के रूप में मुंशी बचपन से ही एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए बड़ौदा कॉलेज में प्रवेश लिया। बड़ौदा कॉलेज में आने के बाद वे अपने शिक्षक अरबिदों घोष से इतने प्रभावित हुए कि छात्र जीवन में ही स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों में शामिल होने लगे।
सन् 1907 में के.एम. मुंशी जी अपनी वकालत की डग्री प्राप्त कर बॉम्बे हाईकोर्ट में वकालत करने के लिए आ गए। यहां उन्होंने वकालत के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया। यही वह दौर था जब के. एम. मुंशी ने सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने के लिए ‘भार्गव’ नामक पत्रिका का संपादन किया था। इस पत्रिका के माध्यम से मुंशी जी ने अंग्रजों के विरुद्ध सभी जातियों को एक जुट करने का कार्य किया था। यही नहीं इन्होंने विधवा विवाह का समर्थन करने के लिए विधवा महिला लीलावती सेठ से विवाह भी किया। एम. मुंशी की प्रथम पत्नी का पहले ही निधन हो चुका था। बॉम्बे में मुंशी जी सामाजिक कार्यों में तल्लीन थे इसी बीच वो स्वतंत्रता की लड़ाई के तहत दो बार जेल भी गए।
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के.एम. मुंशी ने किया था बॉम्बे का कायापलट
बॉम्बे में रहने के दौरना मुंशी जी को बॉम्बे विश्वविद्यालय में एक फैलो के रूप में चुना गया था। जिसके बाद इन्होंने विश्वविद्यालय में चल रहे पाठ्यक्रम में भारतीय भाषाओं को एक विशेष स्थान दिलवाया और रसायन तकनीक विभाग की स्थापना की। इसके अलवा मुंशी जी ने नगर कल्याण क्षेत्र में अपने प्रयासों के माध्यम से बॉम्बे शहर को नया चेहरा दिया। जिसके बाद बॉम्बे में न केवल सिटी एंबुलेंस दल की स्थापना की बल्कि कई अन्य बड़े कार्य भी हुए।
साहित्यिक रचनाओं से गृहमंत्री बनने तक
सन् 1920 एक ऐसा साल था जिसमें मुंशी जी वकालत के पेशे को छोड़ शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में कार्य करने लगे। हालांकि के.एम. मुंशी अपने लेखन के लिए गुजराती में पहले से ही जाने जाते थे। लेकिन उन्होंने वकालत छोड़ने के बाद अपना पूरा समय साहित्य, शिक्षा और सामाजिक कार्यों में ही बिताया था। यही नहीं इन्होंने गुजराती भाषा को बढ़ावा देने के लिए गुजराती साहित्य संसद की स्थापना भी की थी। मुंशी जी ने इस दौरान वैसे तो कई रचनाएं की लेकिन पाटन नी प्रभुता (पाटन का गौरव, 1916), गुजरात नो नाथ (गुजरात के भगवान, 1917) और राजाधिराज (बादशाह,1922) जैसी बड़ी रचनाएं कर गुजराती साहित्य को समृद्ध करने का कार्य किया है। लेकिन अद्भुत बात ये है कि मुंशी जी घनश्याम उपनाम से रचनाएं करते थे।
साहित्यिक रचनाएं करने के साथ-साथ के.एम. मुंशी राजनीति में सक्रीय रूप से अपनी भूमिका निभा रहे थे। इसलिए उन्होंने 1937 में बॉम्बे विधान सभा का चुनाव भी लड़ा और बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गृहमंत्री बने। गृहमंत्री बनने के बाद उन्होंने भारतीय संस्कृति के संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए सन् 1938 में भारतीय विद्या भवन की स्थापना भी की। भारतीय विद्या भवन ने संस्कृत भाषा को लोकप्रिय बनाया और आधुनिक दृष्टिकोण के साथ दैनिक जीवन में प्राचीन तथा धार्मिक ग्रंथों को लागू करने को बढ़ावा दिया। यही नहीं इस दौरान मंशी जी ने “अखण्ड हिंदुस्तान” नामक किताब की रचना भी की। इस किताब में इन्होंने ने लिखा था कि “भारत का इतिहास अधिकतर विदेशी इतिहासकारों ने लिखा है जिसमें भारतीय परिप्रेक्ष्य का अभाव नजर आता है। ये इतिहास भारतीय परिप्रेक्ष्य से नहीं बल्कि पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर पक्षपाती तरह से लिखा गया है”।
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संविधान सभा से सोमनाथ के जीर्णोद्धार तक
के.एम. मुंशी अपने ज्ञान, कानूनी जानकारी और राजनीतिक सूझबूझ के चलते 1949 में संविधान सभा की 16 समितियों और उप समितियों में भी शामिल हुए। इन समितियों में मौलिक अधिकारों का प्रारूप तैयार करने वाली समिति और उप समिति भी शामिल थीं। मुंशी जी की इन समितियों ने मौलिक अधिकारों पर अपना मसौदा पेश किया था जिसमें अधिकतर प्रगतिशील अधिकार थे।
संविधान सभा में शामिल होने के अलावा के.एम. मुंशी जी का एक और महत्वपूर्ण योगदान था जिसके बारे में बहुत अधिक बात नहीं होती है और वो है सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाना। दरअसल, कहानी ये है कि भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक गुजरात वेरावाल में स्थित है जिसे हम सोमनाथ के नाम से जानते हैं। मुस्लिम आक्रांताओं के लगातार आक्रमण करने के बाद सोमनाथ मंदिर बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका था। ऐसे में सत्ता भारतीयों के पास आने के बाद ये मांग उठी कि सोमनाथ मंदिर का पुनः निर्माण होना चाहिए। इस मांग का कांग्रेस के कुछ लोगों ने समर्थन किया और कुछ लोगों ने विरोध। विरोध करने वाले लोगों में जवाहर लाल नेहरू प्रमुख थे।
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मंदिर निर्माण में लगे रहे के.एम. मुंशी
वहीं दूसरी ओर सरदार वल्लभ भाई पटेल, एन.वी. गाडगिल और मोहनदास करमचंद गांधी ने इसका समर्थन किया था। लेकिन गांधी का कहना था कि मंदिर में लगने वाला पैसा सरकारी खजाने से नहीं बल्कि आम जनता से इकट्ठा करना चाहिए। मंदिर का पुनः निर्माण करने की बात पर जब आम सहमति बनी तो इसकी जिम्मेदारी के.एम. मुंशी को सौंपी गई। लेकिन 1948 में गांधी और 1950 में पटेल की मृत्यु होने के बाद मंदिर का निर्माण कराने की पूरी जिम्मेदारी मुंशी और गाडगिल के कंधों पर आ गई। नेहरू लगातार इसका विरोध कर रहे थे। नेहरू मंदिर निर्माण की परियोजना में शामिल मंत्रियों के खिलाफ थे। लेकिन मुंशी दृढ़ निश्चयता के साथ मंदिर निर्माण में लगे रहे।
सोमनाथ मंदिर को के.एम. मुंशी हिंदुओं के पूजा स्थल या एक प्राचीन स्मारक के रूप में नहीं देखते थे बल्कि उनका कहना था कि सोमनाथ भारत के प्राचीन इतिहास का एक प्रतीक है इसलिए इसका पुनः निर्माण होना बहुत आवश्यक है।
यदि के.एम. मुंशी के बारे में संक्षिप्त में कहा जाए तो भारत को आजाद कराने और आधुनिक भारत का निर्माण करने में मुंशी जी का अतुलनीय योगदान था। साहित्य से लेकर शिक्षा तक और वकालत से लेकर राजनीति तक एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं था जिसमें इन्होंने अपना योगदान न दिया हो। मुंशी जी ने कृषि क्षेत्र में भी अपना योगदान दिया था।
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