फिल्में समाज के दर्पण के समान होती है। अगर ये कथन सत्य है तो फिर तो हमारा देश घोर संकट में है, क्योंकि यहां जिन फिल्मों को सम्मान की दृष्टि से देखना चाहिए, उन्हें बुद्धिजीवी और कभी कभी तो जनता तक नहीं स्वीकारती। परंतु कुछ फिल्में ऐसी होती है जिनके बारे में इतने प्रशंसा के पुल बांध दिए जाते हैं कि जब ये वास्तव में जनता देखती है तो उनके मन में एक ही प्रश्न होता है – वो सब तो ठीक है पर इसे इतना सम्मान किस खुशी में मिला?
अब फिल्म मसान को ही देख लीजिए जिसे इतनी प्रशंसा मिल चुकी है कि पूरा सिनेमा जगत उसमें “डूब जाए”, पर जब बात कथा की आती है तो सब अपनी बगलें झांकने लगते हैं। “संगम दो बार आना चाहिए। एक बार अकेले, एक बार किसी के साथ!” अच्छा है, परंतु इसके पीछे का भावार्थ क्या है, कोई बताएगा?
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फिल्म को लेकर धारणा
हमारे यहां सिनेमा जगत, विशेषकर हिन्दी सिनेमा को लेकर एक अजीब सी धारणा है– जो समझ में न आए, उसे अकल्पनीय, अद्भुत, मास्टरपीस घोषित कर दो, जिससे यह लगे कि जनता ने क्या मिस कर दिया। कई-कई बार तो इन कथित क्रिटिक्स की बातें सत्य भी प्रतीत होती हैं जो “पान सिंह तोमर”, “कहानी”, “सेक्शन 375” के चित्रण में स्पष्ट भी होता है लेकिन कुछ मायनों में यही विचार सुनकर जब दर्शक फिल्म देखता है तो उसके मन में यही विचार आता होगा कि “भाईसाब कुछ ज्यादा नहीं हो गया, मतलब कुछ भी?”
नहीं-नहीं, हम “गहराइयां” का वर्णन नहीं कर रहे हैं, हम बात कर रहे हैं “मसान” की जिसे निर्देशित किया नीरज घाईवान ने, प्रदर्शित हुआ 2015 में और जिसमें प्रमुख भूमिकाओं में हैं ऋचा चड्डा, विकी कौशल, श्वेता त्रिपाठी शर्मा, पंकज त्रिपाठी, संजय मिश्रा इत्यादि। इस फिल्म में दो कथाओं का संगम होता है– दीपक कुमार और देवी पाठक की। देवी एक कोचिंग संस्थान में कंप्यूटर तकनीक की शिक्षा देती है और वह अपने ही एक विद्यार्थी के साथ एक होटल में कथित तौर पर अवैध संबंध बनाते हुए पकड़ी जाती है।
दूसरी ओर दीपक कुमार डोम समुदाय से संबंध रखता है और वह अपने जीवन एवं परंपराओं से तंग आ चुका है और अपने लिए एक अच्छा जीवन चाहता है। वह रेलवे की परीक्षा की तैयारी करता है और इसी बीच उसे एक ऐसी कन्या से प्रेम होता है जो उच्च जाति की होती है। इन दोनों की कथाओं में समान बात क्या है, और क्या इनके स्वप्न पूरे होते हैं, “मसान” इसी के बारे में है।
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इन तीन कारणों से जानी जाती है फिल्म
यह फिल्म केवल तीन कारणों से जानी जाती है – कान फिल्म फेस्टिवल में सम्मानित होने के लिए, दुष्यंत कुमार के गीत “तू किसी रेल सी गुजरती है” के लिए एवं विकी कौशल के बहुचर्चित संवाद “ये दुख काहे खत्म नहीं होता” के लिए। इस फिल्म पर क्रिटिक्स ने इतना प्रेम लुटाया है कि पूछिए ही मत, परंतु किसी ने ये नहीं पूछा – कहानी क्या है?
किसी भी फिल्म को बनाती या बिगाड़ती उसकी मूल कथा है। इसी के आधार पर कई हिन्दी फिल्में पिछले वर्ष यानि 2022 में मुंह के बल गिरी थी। परंतु मसान को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी वास्तविकता से अभी भी कुछ लोग परिचित नहीं है। “गहराइयां” जैसी फिल्म की कमियों को गिनाने के लिए पूरा उपन्यास लिखना पड़ जाए, परंतु “मसान” की दो सबसे बड़ी कमियां– ठोस कथा का अभाव एवं निर्देशक के विचारों में विश्वसनीयता की कमी।
प्रथम बात, यदि देवी के साथ “अन्याय” हुआ, तो अनेक विकल्प थे, परंतु जो मार्ग इनके पिता ने अपनाया, उसे देखकर स्वयं “आंखों देखी” के राजे बाउजी अपना माथा पीट लें। मजे की बात तो ये है कि दोनों ही किरदार संजय मिश्रा द्वारा निभाए गए हैं। यदि फिल्म में प्रशंसा केवल विकी कौशल, पंकज त्रिपाठी इत्यादि के अभिनय पर होती तो एक बार सोचते भी लेकिन जो कथा है ही नहीं उसकी प्रशंसा करने का क्या अभिप्राय है। अभी तो हमने निर्देशक नीरज महोदय के जातिवादी विचारों पर चर्चा भी नहीं की है जिसके पीछे ‘सेक्रेड गेम्स’ के दूसरे सीजन का भी कबाड़ा कर दिया गया था।
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कथा छोड़कर फिल्म में सबकुछ है
यदि कथा छोड़कर अन्य सभी वस्तुओं के बारे में चर्चा करने से फिल्म अच्छी हो जाए, तो फिर “ब्रह्मास्त्र” कौन सी बुरी है? “ब्रह्मास्त्र” छोड़िए, “थप्पड़”, “अनेक”, यहाँ तक कि “गंगूबाई काठियावाड़ी” के रचयिताओं के पाँव पकड़ लेने चाहिए। परंतु ऐसा तो नहीं होता है? चर्चा उस “कारवां” की भी होती है, जहां एक सरल सी कथा को इतने प्रभावशाली तरीके से लिखा गया और उसे इरफान खान एवं दुलकर सलमान जैसे अभिनेताओं ने ऐसे जीवंत किया कि आज भी इसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। चर्चा तो उस “कौन प्रवीण ताम्बे” की भी होती है जहां मूल किरदार को श्रेयस तलपड़े द्वारा ऐसे चित्रित किया गया कि दर्शक भी उसकी सफलता के लिए प्रार्थना करने लगें! ऐसे में “मसान” उस मिठाई की भांति है जिसके चर्चे तो खूब होते हैं पर स्वाद, छोड़ो भाई….
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