इसमें कोई दो राय नहीं कि इस समय भारतीय सिनेमा में दमदार कॉन्टेन्ट का सूखा पड़ा है। पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष अब तक पहले हाफ में पैन इंडिया उद्योग का प्रदर्शन भी असंतोषजनक रहा है, बाकी की तो बात ही छोड़िए। परंतु सुदीप्तो सेन, लक्ष्मण उटेकर और अब समीर विदवांस जैसे लोग भी है, जिन्होंने सफलता का एक अनोखा फार्मूला खोज निकाला है।
इस लेख में जानिये “द केरल स्टोरी” से लेकर “सत्यप्रेम की कथा” की अप्रत्याशित सफलता के बारे में, और जानिये क्यों इन फिल्मों ने अपने मामूली बजट और न्यूनतम प्रचार के साथ एक विजयी सूत्र का उपयोग किया है, जो प्रासंगिक सामग्री, मूल मुद्दों पर प्रहार करने वाले मुद्दों और बहुत अधिक उपदेश दिए बिना जनता का मन मोहने में सक्षम है।
प्रासंगिक कॉन्टेन्ट और आवश्यक मुद्दों पर सही फोकस
एक तरफ फिल्म इंडस्ट्री के बड़े बड़े खिलाड़ी एक सिम्पल हिट के लिए तरस रहे हैं, तो वहीं “ज़रा हटके ज़रा बचके” और “सत्यप्रेम की कथा” जैसी फिल्में भी हैं, जो सरल परंतु मनोरंजक कथाओं के साथ दर्शकों का हृदय जीतने में सफल रहे हैं। वैश्विक स्तर पर 100 करोड़ से भी अधिक “ज़रा हटके ज़रा बचके” ने सुपरहिट का टैग प्राप्त कर लिया है, जिसके बारे में किसी ने अनुमान तक नहीं लगाया था। लक्ष्मण उटेकर द्वारा निर्देशित ये फिल्म न केवल सारा अली खान के लिए वास्तविक मायनों में प्रथम बॉक्स ऑफिस सक्सेस है, अपितु विकी कौशल के साथ इनके आगामी प्रोजेक्ट “छावा” के लिए भी आशाएँ बढ़ाता है, जहां विकी कौशल भारतवर्ष के शूरवीरों में से एक, छत्रपति संभाजी महाराज की भूमिका को आत्मसात करेंगे।
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वहीं दूसरी ओर अपने प्रथम हिन्दी फिल्म में समीर विदवान्स ने झंडे गाड़ दिए हैं। एक संवेदनशील विषय को बिना अप्रासंगिक बनाए जनता के बीच परोसना, और उनका मनोरंजन दो और दो का हाल जितना सरल नहीं। परंतु जिस प्रकार से ओपनिंग वीकेंड में “सत्यप्रेम की कथा” ने जनता को इंप्रेस किया है, उससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि समीर भाऊ ने इस फॉर्मूले को क्रैक कर लिया है।
सरल बनाए पर दमदार फिल्म बनाए
समीर विद्वांस द्वारा निर्देशित “सत्यप्रेम की कथा” जैसी सफल फिल्में अत्यधिक उपदेश का सहारा लिए बिना दर्शकों का मनोरंजन करने में सफल होती हैं। फिल्म एक सम्मोहक कथा प्रस्तुत करती है जो कलात्मक उत्कृष्टता और व्यावसायिक अपील के बीच संतुलन बनाती है। “सत्यप्रेम की कथा” न केवल एक संभावित बॉक्स ऑफिस विनर के रूप में उभरती है, बल्कि “शहज़ादा” के बाद कार्तिक आर्यन को ट्रैक पर वापस लाती है, और हमने अभी तक कियारा आडवाणी की क्षमता पर प्रकाश भी नहीं डाला है।
इन स्लीपर हिट्स का एक दिलचस्प पहलू उनका मध्यम बजट है, जो 75 करोड़ से भी कम है। यह बदलाव बताता है कि सफलता के लिए हमेशा बड़ा बजट जरूरी नहीं है। सुदीप्तो सेन, लक्ष्मण उतेकर और समीर विदवान जैसे फिल्म निर्माता साबित करते हैं कि प्रासंगिक सामग्री, सम्मोहक प्रदर्शन और सामग्री को सही तरीके से प्रस्तुत करने पर ध्यान केंद्रित करना जीत का फॉर्मूला हो सकता है। ये फिल्म निर्माता दर्शकों की नब्ज को समझते हैं और उनसे जुड़ी कहानियों को गढ़ते हैं, जिससे उन्हें इस साल “भारतीय सिनेमा के डार्क हॉर्स” के रूप में संबोधित करना गलत नहीं होगा।
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जहां भारतीय सिनेमा अपने अगले प्रमुख बॉक्स ऑफिस ब्लॉकबस्टर को खोजने का प्रयास कर रहा है, यह “द केरल स्टोरी,” “जरा हटके जरा बचके,” और “सत्यप्रेम की कथा” जैसी फिल्में हैं जो थिएटर मालिकों और दर्शकों के लिए समान रूप से आशा प्रदान करती हैं। ये फ़िल्में प्रदर्शित करती हैं कि सफलता प्रासंगिक सामग्री बनाने में निहित है जो अधिक ज्ञान न दे, दर्शकों को गूढ़ विषय पर भी सरलता से शिक्षा दे, और सबसे महत्वपूर्ण, जनता का मनोरंजन करने में सफल रहे। काश सिद्धार्थ आनंद और ओम राऊत ये छोटी सी बात समझ लेते!
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