श्रीमद् भागवत गीता का सातवां अध्याय- विज्ञान योग :
इस अध्याय में श्री कृष्ण ने तत्वों का ज्ञान एवं उससे संबंधित सिद्धांत तथा व्यवहारिक और अनुभवजन्य ज्ञान के माध्यम से परम तत्व के साक्षात्कार का वर्णन किया है। जैसा कि विदित है कि श्रीमद् भागवत गीता का लक्ष्य आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर उसमें परम तत्व को प्रकाशित करना है। इस अध्याय में अस्तित्व के दो आयामों भौतिक एवं दिव्य की चर्चा की गई है। श्री कृष्ण के अनुसार संपूर्ण सृष्टि दो प्रकार के तत्वों से निर्मित है। भौतिक (अपर प्रकृति) जिसके अंतर्गत, पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) एवं त्रिगुण (सत्व, रजस, तमस) आते हैं। यह दृश्यमान, अस्थाई एवं नाशवान पक्ष है। दिव्य (पर प्रकृति) के अंतर्गत आत्मतत्व आता है जो अजर, अमर एवं अविनाशी है। श्री कृष्ण के अनुसार परमात्मा भौतिक एवं दिव्य दोनों रूपों में समाहित है। जब मनुष्य अपनी वास्तविक आत्मस्थिति को पहचानता है और भौतिक संसार से ऊपर उठता है, तब वह परमात्मा के दिव्य स्वरूप का साक्षात्कार करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। भागवत् गीता के इस अध्याय में श्री कृष्ण चार प्रकार के भक्तों की भी चर्चा करते हैं- आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी। यह चारों भगवानों से अलग-अलग प्रकार का एवं अलग-अलग स्तरों का संबंध रखते हैं। श्री कृष्ण के अनुसार इन चारों प्रकार के भक्तों में ज्ञानी सर्वश्रेष्ठ होते हैं, क्योंकि इस प्रकार के भक्त आत्म एवं परमात्मा तत्व की एकाकारता को अनुभूत कर चुके होते हैं। यह ऐसे भक्त की श्रेणी है जिसे हर कार्य अनासक्ति भाव में होता है तथा उनके कार्यों से स्वत: ही लोकमंगल की भावना प्रबल होती है। इस प्रकार श्री कृष्ण इस अध्याय में अर्जुन के माध्यम से संपूर्ण मानव जाति से यह संवाद स्थापित करते हैं कि ज्ञान एवं विज्ञान के माध्यम से ही व्यक्ति परमात्मा को साक्षात रूप में अनुभव कर सकता है।
गीता का अष्टम अध्याय- अक्षर ब्रह्म योग :
इस अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन से अक्षर ब्रह्म के स्वरूप एवं मृत्यु के पश्चात आत्मा की यात्रा के संबंध में चर्चा करते हैं। श्री कृष्ण अर्जुन को इस संसार की दो प्रकार की वास्तविकताओं के विषय में ज्ञान देते हैं। उनके अनुसार संसार की दो प्रकार की वास्तविकताएं हैं – अस्थाई जिसे अव्यय कहा जाता है। इसके अंतर्गत समस्त भौतिक संसार जिसमें सभी वस्तुएं शरीर एवं सुख-दुख सम्मिलित हैं। श्री कृष्ण के अनुसार संसार में जन्म, मृत्यु, सुख और दुख की चक्रीय प्रक्रिया चलती रहती है। शाश्वत वास्तविकताओं को वह अक्षर कहते हैं। उनके अनुसार ब्रह्म या परमात्मा ही अक्षर है। आत्मा जो शरीर में विद्यमान है, वो भी शाश्वत है और मृत्यु के पश्चात नष्ट नहीं होती।
श्री कृष्ण के अनुसार जो व्यक्ति ब्रह्म् के शाश्वत स्वरूप को समझ लेता है वह भौतिक संसार के मोह से मुक्त होकर परम सत्य को प्राप्त कर सकता है। गीता के आठवें अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन को मृत्यु के पक्ष की स्थितियों का भी ज्ञान देते हैं। उनके अनुसार मृत्यु के समय जिस प्रकार की स्मृति और भावनाएं मनुष्य के मन में होती हैं उसके अनुसार उसकी आत्मा को अगला जन्म प्राप्त होता है। मृत्यु के समय जिस व्यक्ति का मन भगवान के ध्यान में स्थित होता है वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। श्री कृष्ण के अनुसार मृत्यु के समय ध्यान एवं योग की महत्ता अत्यंत महत्वपूर्ण है। अष्टम् अध्याय में वह कहते हैं कि जब मृत्यु के समय मनुष्य के मन और इंद्रियों को नियंत्रित किया जाता है और व्यक्ति पूरी तरह से परमात्मा में लीन रहता है तब वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।
गीता का नवम अध्याय- राजविद्या योग :
राजविद्या का अर्थ ज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान और राजगु्ह्य का अर्थ सबसे गूढ़ रहस्य है। इस अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन को परमात्मा के ज्ञान को अंतिम सत्य के रूप में जानने का महत्व समझाते हैं। साथ ही इस अध्याय में भक्ति, आत्म समर्पण और ईश्वर की कृपा से मोक्ष कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसका भी विस्तार से वर्णन करते हैं। श्री कृष्ण के अनुसार परमात्मा का ज्ञान ही राजविद्या है, क्योंकि यह सबसे उत्तम और शुद्ध ज्ञान है जो संसार के सभी रहस्यों को आसानी से हमारे समक्ष प्रकट करती है। उनके अनुसार जो व्यक्ति इस परम तत्व के स्वरूप को जान जाता है वह इस संसार के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यह परम तत्व का ज्ञान व्यक्ति को जन्म मरण के चक्र से मुक्त कर देता है। अध्याय 9 में भगवान श्री कृष्ण ईश्वर की कृपा प्राप्त करने में भक्ति और आत्म समर्पण को सबसे सरल एवं श्रेष्ठ मार्ग बताते हैं। उनके अनुसार भक्ति किसी विशेष प्रकार की कर्मकांड या विधि पर निर्भर नहीं है बल्कि सच्ची भक्ति श्रद्धा और समर्पण पर आधारित होती है।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: ||
भगवान के अनुसार जो कोई प्रेम पूर्वक पत्ता पुष्प फल या जल अर्पित करता है उसे वह अत्यंत प्रसन्नता से स्वीकार करते हैं। इसके माध्यम से उनका उद्घोष है कि भक्ति के लिए बाह्य संसाधन की आवश्यकता न होकर प्रेम और समर्पण ही पर्याप्त है। इस अध्याय में श्री कृष्ण अनन्य भक्ति का उल्लेख करते हैं जिसमें व्यक्ति का संपूर्ण ज्ञान और प्रेम ईश्वर अर्थात परम तत्व में समर्पित होता है और इसी के माध्यम से व्यक्ति उसे परम तत्व की अहैतुकी कृपा को प्राप्त करता है। इसी को पुष्ट करता हुआ श्लोक भागवत महापुराण में भी मिलता है-
त्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन ।।
(श्रीमद्भागवतम्-10.81.4)
“यदि कोई मुझे श्रद्धा भक्ति के साथ पत्र, पुष्प, फल या जल अर्पित करता है, मैं शुद्ध चेतना युक्त मेरे भक्त द्वारा प्रेम पूर्वक अर्पित किए पदार्थ को सहर्ष स्वीकार करता हूँ।” नारद भक्ति सूत्र में भक्ति के स्वरूप का वर्णन करते हुये नारद कहते हैं –
नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति ।।
(नारद भक्तिदर्शन, सूत्र-19)
“भक्ति का अर्थ अपने समस्त कर्मों को भगवान को अर्पित करना है और उसका एक क्षण भी विस्मरण होने पर परम् व्याकुल होना है।” संत कबीर अपने दोहे में कहते हैं
जहँ जहँ चलुं करूँ परिक्रमा, जो जो करूँ सो सेवा।
जब सोवू करूँ दंडवत, जानें देव न दूजा।।
“मैं भी चलता हूँ, मैं अनुभव करता हूँ कि मैं भगवान के मंदिर की परिक्रमा कर रहा हूँ। मैं जो भी कर्म करता हूँ उसे मैं भगवान की सेवा के रूप में देखता हूँ जब मैं सोता हूँ तब मैं इस भाव का ध्यान करता हूँ कि मैं भगवान की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ। इस प्रकार मैं भगवान में एकनिष्ठ हो जाता हूँ।” इस प्रकार भारतीय परंपरा में भक्ति का अत्यंत ही प्रमुख स्थान है और नवम अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन को इसी का उपदेश करते हैं।
(डा. आलोक कुमार द्विवेदी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्ञ में पीएचडी हैं। वर्तमान में वह KSAS, लखनऊ में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। यह संस्थान अमेरिका स्थित INADS, USA का भारत स्थित शोध केंद्र है। डा. आलोक की रुचि दर्शन, संस्कृति, समाज और राजनीति के विषयों में हैं।)