तिरुपति मंदिर के लड्डुओं में बीफ और मछली का तेल मिलाए जाने के आरोप ने तूल पकड़ा हुआ है। तिरुमला तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) ट्रस्ट के पास भगवान वेंकटेश्वर के मंदिर की देखरेख का जिम्मा है। तिरुपति लड्डू विवाद के बीच हिंदू मंदिरों के नियंत्रण की राजनीति एक बार फिर सतह पर आ गई है। इसकी वजह भी है। तिरुपति को हिंदुओं का वेटिकन कहा जाता है। यानी एक ऐसी जगह, जो हिंदू समुदाय के लिए बहुत पवित्र है। इसके बावजूद टीटीडी ट्रस्ट का अध्यक्ष बनाने के लिए जगन रेड्डी सरकार को आंध्र प्रदेश की 82 प्रतिशत हिंदू आबादी में से कोई प्रतिनिधि नहीं मिला।
आस्था के महाकेंद्र में राजनीतिक नियुक्ति पर सवाल
वाईएसआरसीपी के अध्यक्ष और आंध्र के पूर्व सीएम जगन रेड्डी इसलिए भी सवालों के घेरे में हैं, क्योंकि वह खुद ईसाई समुदाय से आते हैं। बात सिर्फ ईसाई होने भर की नहीं है। 2022 में उन्होंने हिंदुओं की अपार श्रद्धा के केंद्र तिरुपति मंदिर का प्रबंधन देखने वाले टीटीडी ट्रस्ट की जिम्मेदारी भी एक ईसाई को सौंप दी। टीटीडी ट्रस्ट बोर्ड में उन्होंने अपने खास भुमना करुणाकर रेड्डी को चेयरमैन नियुक्त किया। टीटीडी के कार्यकारी अधिकारी (ईओ) रहे आईवाईआर कृष्ण राव ने इस तरह की राजनीतिक नियुक्ति पर तभी सवाल उठाया था। राव ने करुणाकर रेड्डी को टीटीडी का अध्यक्ष बनाने का विरोध करते हुए कहा था, ‘टीटीडी ट्रस्ट बोर्ड के अध्यक्ष का पर एक राजनीतिक नियुक्ति बन गया है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे लोगों को ही टीटीडी अध्यक्ष नियुक्त करना चाहिए, जिनकी भगवान में असीम आस्था हो। हिंदू धार्मिक संस्थानों के नियंत्रण से जितनी जल्दी सरकार दूरी बना लेगी, हिंदू धर्म के लिए उतना ही अच्छा होगा।‘
ऐसे होती है टीटीडी अध्यक्ष की नियुक्ति
आंध्र प्रदेश धर्मार्थ और हिंदू धार्मिक संस्थान और बंदोबस्ती अधिनियम 1987 के जरिए टीटीडी का संचालन हो रहा है। हालांकि अध्यक्ष की चयन प्रक्रिया का इस अधिनियम में कोई साफ जिक्र नहीं है। वैसे तो यह स्वतंत्र ट्रस्ट है लेकिन इसके अध्यक्ष का चयन विशेषज्ञों का एक पैनल करता है। पैनल दावेदारों की योग्यता के साथ ही धार्मिक प्रथाओं के बारे में उनके ज्ञान का आकलन भी करता है। मंदिर और भक्तों की सेवा के प्रति उम्मीदवार की प्रतिबद्धता का आकलन होता है। शॉर्टलिस्ट उम्मीदवार का नाम पैनल की ओर से राज्य सरकार को भेजा जाता है। सरकार की मंजूरी मिलने के बाद औपचारिक रूप से अध्यक्ष की नियुक्ति हो जाती है। यानी अपरोक्ष रूप से टीटीडी अध्यक्ष की नियुक्ति आंध्र प्रदेश सरकार ही करती है।
‘हिंदुओं के वेटिकन’ के ट्रस्ट का अध्यक्ष हिंदू क्यों नहीं?
जाहिर सी बात है कि करुणाकर रेड्डी को टीटीडी का अध्यक्ष बनाए जाते वक्त उनकी आस्था का टेस्ट तो हुआ नहीं होगा। वैसे भी आस्था को मापने का कोई पैमाना नहीं है। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि एक हिंदू मंदिर को लेकर किसी ईसाई मान्यताओं वाले व्यक्ति की आस्था कुछ न कुछ कम होगी ही। करुणाकर रेड्डी उस वक्त भी ट्रस्ट के अध्यक्ष बने थे, जब जगन रेड्डी के पिता वाईएस राजशेखर रेड्डी आंध्र के सीएम थे। अपने पहले कार्यकाल में भी करुणाकर रेड्डी पर हिंदू समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप लगे थे। तेलुगु शब्द तिरुमला का अर्थ होता है सात पहाड़ियां। भगवान वेंकटेश्वर के मंदिर तक इन्हीं सात पहाड़ियों को पार करके पहुंचा जाता है। करुणाकर रेड्डी ने कहा था कि तिरुमला में सात नहीं पांच पहाड़ियां शामिल हैं। अब सवाल उठता है कि जो शख्स हजारों साल की हिंदू मान्यता को चोट पहुंचा सकता है, उसको दोबारा अध्यक्ष बनाकर उपकृत क्यों किया गया? क्या वह जगन रेड्डी के करीबी थे, इसलिए उनकी नियुक्ति हुई? जहां रोज औसतन साठ हजार से ज्यादा हिंदू पहुंचते हों, इतने बड़े आस्था केंद्र की देखरेख करने वाले ट्रस्ट का अध्यक्ष कोई हिंदू क्यों नहीं होना चाहिए?
तिरुपति की परंपरा को जगन और उनके पिता ने चोट पहुंचाई
सितंबर 2023 में हुए वार्षिक ब्रह्मोत्सव में भगवान वेंकटेश्वर को रेशमी वस्त्र चढ़ाने के लिए तत्कालीन सीएम जगन रेड्डी गए थे। ईसाई धर्म से आने वाले जगन रेड्डी ने मंदिर में प्रवेश से पहले फेथ फॉर्म (आस्था से जुड़ा) नहीं भरा था। टीटीडी ट्रस्ट के नियम संख्या 136 और 137 के मुताबिक गैर हिंदुओं को मंदिर में प्रवेश से पहले इस फॉर्म को भरना होता है। इस फॉर्म में अपने धर्म की जानकारी देते हुए मंदिर में प्रवेश की विशेष अनुमति ली जाती है। 2003 में फेथ फॉर्म भरने के बाद ही पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दर्शन किया था। 1999 में भी जगन रेड्डी के पिता राजशेखर रेड्डी और सोनिया गांधी ने इस नियम को तोड़ा था।
मंदिरों पर क्यों खत्म हो सरकारी नियंत्रण?
हमारे देश के संविधान के मुताबिक भारत एक पंथनिरपेक्ष देश है। इसके बावजूद एक कड़वी सच्चाई यह है कि सनातन मान्यता से जुड़े धार्मिक स्थलों के प्रबंधन में भेदभाव होता है। ज्यादातर मंदिरों पर ट्रस्ट के जरिए या सीधे तौर पर सरकारी नियंत्रण है। यही नहीं इन मंदिरों से होने वाली आय का कुछ उपयोग गैर हिंदू धार्मिक कार्यों में किया जाता है। इसके उलट मस्जिदों और चर्च का संचालन मुस्लिम और ईसाई समुदाय के पास ही है। मंदिरों पर नियंत्रण अब भी सरकार का ही है। एक आंकड़े के मुताबिक देश के 10 राज्यों में एक लाख 10 हजार हिंदू मंदिर सरकार के नियंत्रण में हैं। अकेले तमिलनाडु में 36,425 मंदिर और 56 मठ सरकार के कंट्रोल में हैं। इसी साल पेश हुए कर्नाटक के बजट में मंदिरों की आय पर 10 प्रतिशत टैक्स लगाने का फैसला हुआ था। दूसरी ओर मस्जिदों और चर्च के रख-ररखाव पर होने वाला खर्च सरकारी पैसे से होता है। मंदिर अपनी आय से हिंदू धर्म की शिक्षा या परंपरा को बढ़ावा देने के लिए कदम नहीं उठा पाते हैं। भारत जैसे पंथनिरपेक्ष देश में चर्च और मस्जिद तो अपनी आय से उसे चलाते हैं और धर्म के प्रसार का काम करते हैं। वहीं मंदिर अपनी आय से पुजारी की तनख्वाह तक नहीं उठा सकता। क्या चर्च और मस्जिद के संचालन के लिए बने बोर्डों में कोई हिंदू शामिल हो सकता है? फिर हिंदू धर्म के लिए ऐसी बाध्यता क्यों होनी चाहिए?