स्वर कोकिला लता मंगेशकर का गया हुआ “ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी…” आज भी जब कहीं यह गीत सुनाई पड़ता है तो प्रत्येक देशवासी की आंखें नम हो जाती हैं। वास्तव में भारत-चीन युद्ध का जितना मार्मिक और सच्चा चित्रण इस गीत में किया गया है, उतना कहीं और नहीं। ये महज़ एक गीत नहीं है, बल्कि सच्ची श्रद्धांजलि है भारत के उन वीर सैनिकों को, जिन्होंने अपने पराक्रम से सैन्य इतिहास में नया अध्याय जोड़ा और कठिन से कठिन परिस्थिति में भी मोर्चा छोड़ने के स्थान पर बलिदान होना स्वीकार किया।
20-21 अक्टूबर 1962 की रात समुद्र तल से 16 हज़ार मीटर की ऊंचाई पर स्थित रेजांग ला दर्रा, जहां ऑक्सीजन की कमी के कारण सांस लेने में भी भारी परेशानी होती है, वहाँ शुरू हुआ चीन की शक्तिशाली सेना और भारत की बहादुर सेना के बीच युद्ध।
रेजांग ला दर्रा में ठंड व बर्फबारी की स्थिति को देखते हुए उसे बर्फिस्तान कहा जाए तो गलत नहीं होगा। -50 से भी कम तापमान पर परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतान सिंह अपने मात्र 120 जवानों के साथ 12 सौ अधिक चीनी सैनिकों के सामने फौलाद की दीवार बनकर खड़े हो गए थे। तेरहवीं कुमाऊं रेजीमेंट के इन जाबांजों ने आखिरी सांस और अंतिम गोली तक युद्ध लड़ कर चीनी सेना के आत्मबल को हिलाकर रख दिया था। ठंड इतनी कि खून जम जाए, ऐसी स्थिति में भी युद्धरत सैनिकों ने पूरे पराक्रम से युद्ध लड़ा, किन्तु चीनी सैनिकों की संख्या व उनके ऊंचाई पर होने के कारण भारतीय सैनकों को सीने पर गोलियां खानी पड़ी थीं।
चीन द्वारा किए गए आक्रमण का जवाब देने के लिए भारतीय सैनिकों के पास अदम्य साहस, वीरता, पराक्रम और युद्ध कौशल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। मसलन, हिमालय की चोटी पर लड़े जा रहे इस युद्ध में भारत के जवान पतली ऊनी स्वेटर और सामान्य जूतों के साथ लड़ रहे थे। भोजन, पानी, तंबू, ईंधन, गर्म कपड़े हर चीज़ का अभाव था। पर्याप्त गोला बारूद नहीं था। हाथ में थीं पुराने जमाने की राइफलें, जबकि चीनी सैनिक ऑटोमेटिक राइफलों और भारी तोप के साथ हमले कर रहे थे।
सीमा पर भारतीय सेना को लेकर की गई तैयारियों का भी बुरा हाल था। 16000 फ़ीट की ऊंचाई तक जाने के लिए सड़कें नहीं थीं, और तो और संख्या बल में भी भारतीय सेना चीनियों की अपेक्षा कमज़ोर थी। जबकि चीनी सेना संख्या, साधन और हथियार सभी में अधिक थे।भारतीय सेना की इस साधनहीन स्थिति के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू व उनके प्रिय रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन ज़िम्मेदार थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री व रक्षामंत्री को ज़िम्मेदार इसलिए ठहरा जा रहा है क्योंकि नेहरू सेना की ज़रूरतों के प्रति इस कदर उपेक्षा का भाव रखते थे कि वो कहते थे कि हम तो अहिंसावादी हैं, हमें किसी से युद्ध नहीं करना। हमारा काम तो पुलिस से ही चल जाएगा।
आज विश्वास करना मुश्किल है लेकिन नेहरू के प्रधानमंत्री काल में सीमा की सुरक्षा के लिए सेना या अर्धसैनिक बलों के स्थान पर पुलिस थाने स्थापित किए गए थे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उस समय सेना के सुरक्षा उपकरणों के लिए बनवाए गए कारखानों में कप-प्लेट और सौन्दर्य प्रसाधन की वस्तुएं तैयार की जा रहीं थी। इसका कारण यह था कि हथियारों के उत्पादन के लिए न तो आदेश था और न ही आवंटित बजट। ऐसे में, कर्मचारियों से कोई न कोई काम तो करवाना ही था।
दरअसल, ऐसा कतई नहीं है कि चीन ने 20-21 अक्टूबर की दरमियानी रात को अचानक से हमला किया था, बल्कि तीन साल से चल रही छुटपुट वारदातें उस रात बड़ी हो गई थीं। यदि तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू में राजनीतिक सूझ-बुझ होती तो शायद इस युद्ध में भारतीय सेना को झुकना नहीं पड़ता। उस रात चीन ने पूर्वी और पश्चिमी सेक्टर पर हमला बोल दिया था, तब न तो प्रधानमंत्री नेहरू और न ही सेना किसी युद्ध के लिए तैयार थे। 20-21 अक्टूबर की रात को चीनी सेना द्वारा शुरू हुआ हमला 24 अक्टूबर को जाकर थमा था। चीनी नेता चाऊ-एन-लाई ने युद्ध विराम कर बातचीत के रास्ते खोले थे। दोनों देशों के बीच बातें हुईं, बैठकें हुईं लेकिन परिणाम नहीं निकला, चीन एक बार फिर भारतीय सेना पर हावी होने लगा।
युद्ध के बीच में ही आठ नवंबर को नेहरू ने संसद में प्रस्ताव रखा, इसमें उन्होंने चीन के धोखे की बात स्वीकार की। नेहरू को आखिरकार हज़ारों सैनिकों के शहीद होने के बाद दुनिया समझ में आ गयी थी। जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि वह आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और अपने लिए एक बनावटी माहौल तैयार कर लिया था। 28 अक्टूबर 1962 को जवाहर लाल नेहरू अमेरिकी राजदूत जॉन केनेथ गेलब्रेथ से मिले और सहायता करने के लिए कहा था। भारत की ‘दयनीय’ स्थिति को देखते हुए अमेरिका सहायता के लिए तैयार हो गया।
उधर, चीन ने 15 नवंबर को फिर हमला बोल दिया और नेफ़ा की सीमा पर जमकर बम-बारी की, 22 नवंबर को चीन ने रणनीतिक योजना के तहत एकतरफ़ा युद्धविराम की घोषणा भी कर दी थी, चीन ने युद्ध विराम क्यों किया, जबकि वह युद्ध मे ताक़तवर व आगे था। इस प्रश्न का उत्तर अब तक किसी के पास नहीं है। हालांकि रक्षा विश्लेषक कहते हैं कि चीन को यह अंदाजा हो गया था कि यदि अमेरिका भारत का साथ देगा तो उसे हार का सामना करना पड़ सकता है, इसलिए उसने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी थी।
भारत ने इस युद्ध में अपने वीर सैनिकों के अतिरिक्त एक बड़ा इलाका अक्साई चिन भी खो दिया था। हिंदुस्तान की 43,000 वर्ग किलोमीटर जमीन पर चीनी सेना कब्जा कर चुकी थी। यही नहीं इस भीषण युद्ध में भारत के 3250 जवान भी वीरगति को प्राप्त हो चुके थे।
गौरतलब है कि तमाम रक्षा विश्लेषकों व तत्कालीन सेना अध्यक्षों के आग्रह के बाद भी जवाहरलाल नेहरू ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारे में खोए रहे और चीनी सत्ता की बातों पर आंख बंद करके भरोषा करते रहे। चीन पर सरदार पटेल द्वारा दी गई चेतावनी को भी नेहरू द्वारा अनदेखा किया गया। सरदार पटेल ने भारत-चीन युद्ध से 12 साल पहले साल 1950 में नेहरू को पत्र लिखकर कहा था, “चीन शत्रुता की भाषा बोल रहा है और तुम दोस्ती निभाए जा रहे हो।”
देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने अनेकों बार तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को चीन के विषय में चेताया था लेकिन नेहरू आत्ममुग्ध थे, उन्हें लगता था कि वो हमेशा सही होते हैं।
आज जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा चीन समस्या के लिए जवाहर लाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है तो कांग्रेसी नेताओं द्वारा उनका बचाव किया जाता है, जबकि सच्चाई है कि चीन समस्या की प्रमुख जड़ जवाहर लाल नेहरू की रणनीतिक भूल है, चाहे वह संयुक्तराष्ट्र में स्थायी सदस्यता के लिए चीन का नाम आगे बढ़ाना हो या फिर तिब्बत जैसे बड़े हिस्से को चीन द्वारा कब्ज़ा कर लेना पर कोई भी प्रभावी प्रतिक्रिया न देना हो। यदि तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा कोई प्रतिक्रिया दी गई होती तो शायद आज चीन समस्या जितनी बड़ी प्रतीत होती है वह नहीं होती।