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‘भागवत’ ज्ञान पर ‘मोहन’ को संतों की नसीहत: मंदिर-मस्जिद पर अब क्या करेगा हिंदू समाज?

मोहन भागवत के बयान पर नहीं थम रहा विवाद

TFI Desk द्वारा TFI Desk
24 December 2024
in चर्चित, राजनीति
मोहन भगवत रामभद्राचार्य रामदेव

'भागवत' ज्ञान पर 'मोहन' को संतों की नसीहत

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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के मंदिर-मस्जिद वाले बयान पर उन्हें संतों की नसीहत मिल रही है। एक कार्यक्रम में संघ प्रमुख ने कहा था कि कुछ लोग मंदिर-मस्जिद से जुड़ा मुद्दा इसलिए उठाते हैं, ताकि वो खुद हिंदुओं को बड़े नेता के रूप में उभर सकें। इस बयान पर शंकराचार्य समेत कई धर्माचार्य उनका विरोध कर रहे हैं। इस कड़ी में तुलसी पीठाधीश्वर रामभद्राचार्य और बाबा रामदेव का भी नाम भी जुड़ गया है। रामभद्राचार्य ने कहा है कि यह मोहन भागवत का व्यक्तिगत बयान हो सकता है, वह संघ के संचालक हो सकते हैं, हिंदू धर्म के नहीं। वहीं बाबा रामदेव ने कहा है, बाबा रामदेव ने कहा है कि सनातन धर्म और उसके धार्मिक स्थलों पर हुए आक्रमणों को कभी नहीं भुलाया जा सकता। मोहन भागवत संत

क्या बोले रामभद्राचार्य: 

अपनी कथा से इतर बयानों को लेकर लगातार चर्चा में रहने वाले तुलसी पीठाधीश्वर रामभद्राचार्य ने कहा है कि…

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यह मोहन भागवत का व्यक्तिगत बयान हो सकता है। वह हिन्दूओं के अनुशासक नहीं हो सकते हैं, आचार्य उनका अनुशासक हो सकता है। मोहन भागवत हिंदू धर्म के बारे में बहुत नहीं जानते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन का अधिकार है, उनका बयान दुर्भाग्यपूर्ण है। हम किसी को छेड़ेंगे नहीं, छेड़ेंगे तो छोड़ेंगे भी नहीं। हमको अपना अधिकार चाहिए बस, उनका अधिकार नहीं चाहिए। मोहन भागवत संत 

वहीं, शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा,

अतीत में आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किए गए मंदिरों की एक लिस्ट तैयार की जाए और हिंदू गौरव को बहाल करने के लिए स्ट्रक्चर का पुरातात्विक सर्वे किया जाए। अतीत में हिंदुओं पर बहुत अत्याचार हुए हैं। उनके धार्मिक स्थलों को नष्ट कर दिया गया है। अगर अब हिंदू समाज अपने मंदिरों का जीर्णोद्वार और संरक्षण करना चाहिए।

वहीं बाबा रामदेव ने कहा है कि सनातन धर्म और उसके धार्मिक स्थलों पर हुए आक्रमणों को कभी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने आगे कहा कि आक्रांताओं ने जो अन्याय किया, उसके लिए न्यायालय और समाज को निर्णायक कदम उठाने चाहिए। बाबा रामदेव ने कहा कि

यह उनका अपना बयान है और कई संत भी इस पर बयान दे रहे हैं लेकिन सनातन धर्म को नष्ट करने की कोशिश करने वाले आक्रमणकारियों को सबक जरूर सिखाना चाहिए। आक्रांताओं  ने हमारे धार्मिक स्थानों, मंदिरों, तीर्थ और सनातन धर्म पर आक्रमण किया, ऐसे में न्यायालय उन्हें दंडित तो करेगा ही लेकिन हमें भी बड़े तीर्थ स्थानों पर फैसले लेने होंगे। पापियों को पाप का फल मिलना चाहिए।

यह सच है कि आक्रांताओं ने यहां आकर के हमारे मंदिर, हमारे धर्मस्थान और हमारे गौरव के चिन्हों को नष्ट-भ्रष्ट किया। सनातन के हमारे तीर्थों और देवी देवताओं को प्रतिमाओं को खंडित किया। अब उनको कितना दंडित करें, यह तो न्यायपालिका का काम है। जो हमारे बड़े तीर्थ हैं, गौरव के स्थान हैं उन पर कुछ तो निर्णय करना चाहिए। जिससे कि जिन आक्रांताओं ने नुकसान पहुंचाया उनको फल मिले। बाकी देश में भाईचारा कायम रहना चाहिए। मोहन भागवत संत 

इस बारे में कथा वाचक देवकीनंदन ठाकुर ने कहा है…

 “मेरा मानना है कि मथुरा और काशी समेत सभी महत्वपूर्ण मंदिर हमें मिलने चाहिए। अगर हम भगवान कृष्ण और भोलेनाथ के मंदिर नहीं बचा सके तो हमारा सनातनी धर्म और कथावाचन व्यर्थ है। जब तक हमारे मंदिर हमें नहीं मिलते, हमारी आत्मा शांत नहीं होगी। अगर दूसरे धर्म के लोग सौहार्द दिखाना चाहते हैं तो उन्हें खुद इन मंदिरों को लौटाने का प्रस्ताव देना चाहिए।”

हिंदू संतों की संस्था अखिल भारतीय संत समिति ने भी RSS प्रमुख मोहन भागवत के बयान पर आपत्ति जताई है। समिति की ओर से कहा गया है कि मंदिर-मस्जिद विवाद को उठाने वाले नेताओं को अपने दायरे में रहना चाहिए। समिति के महासचिव स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती ने कहा कि मंदिर-मस्जिद का विषय धार्मिक मुद्दा है। इसका फैसला धर्माचार्यों के द्वारा ही किया जाना चाहिए। उन्होंने आरएसएस को सांस्कृतिक संगठन बताते हुए कहा कि संघ प्रमुख मोहन भागवत को छोड़ देना चाहिए।

स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती ने कहा कि….

जब धर्म का विषय उठेगा तो उसे धर्माचार्य तय करेंगे। जब धर्माचार्य तय करेंगे तो संघ भी उसे स्वीकार करेगा और विश्व हिंदू परिषद भी। मोहन भागवत की अतीत में इसी तरह की टिप्पणियों के बावजूद 56 नए स्थानों पर मंदिर पाए गए हैं, जो मंदिर-मस्जिद मुद्दों में रुचि और कार्रवाई का संकेत देते हैं। धार्मिक संगठनों सहित अन्य संगठन अक्सर जनता की भावनाओं के अनुसार कार्य करते हैं। यह दर्शाता है कि इन समूहों के कार्य उन लोगों की मान्यताओं और भावनाओं से आकार लेते हैं जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं, न कि केवल राजनीतिक प्रेरणाओं के चलते कार्य किया जाता है।

 

 

 

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