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बिहार में पहली बार कैसे पहुंचा AK-47 और कैसे अपराध की दुनिया में उसका दबदबा कायम हुआ

भागलपुर के बड़हरवा गांव में 1991 की रात यह हथियार पहली बार बड़े पैमाने पर दहाड़ा। रात के अंधेरे में जब गांव पर हमला हुआ, तो चारों तरफ गोलियों की गूंज फैल गई।

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
10 September 2025
in कृषि, क्राइम, चर्चित, फैक्ट चेक, राजनीति, समीक्षा
बिहार में पहली बार कैसे पहुंचा AK-47 और कैसे अपराध की दुनिया में उसका दबदबा कायम हुआ

ऑपरेशनों में कई बाहुबली मारे गए, कई जेल में डाल दिए गए। सैकड़ों AK-47 बरामद हुए। लेकिन डर का वह साया आज भी बाकी है।

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पटना, 1990 का दशक। स्टेशन के बाहर चाय की दुकानों पर लोग खड़े-खड़े बतिया रहे थे। बातचीत की शुरुआत अक्सर राजनीति से होती, लेकिन जल्दी ही रुख बदल जाता। कोई धीमे स्वर में कहता—“अब बिहार में कानून से नहीं, बंदूक से बात होती है।”

बिहार में बंदूक कोई नई चीज़ नहीं थी। देसी कट्टे और भरमार तो गांव-गांव में मिल जाते थे। लेकिन अचानक एक ऐसा हथियार आया जिसने पूरे राज्य की छवि बदल दी। 1991 में हिंदुस्तान टाइम्स ने पहली बार रिपोर्ट छापी-“भागलपुर जिले के बड़हरवा गांव में हुए नरसंहार में अपराधियों ने जिस हथियार का इस्तेमाल किया, वह AK-47 बताया जा रहा है।” यही वह पल था जब बिहार की धरती पर पहली बार इस हथियार की गूंज सुनाई दी।

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बड़हरवा की रात

बड़हरवा गांव में उस रात का खौफ लोग आज भी याद करते हैं। 65 वर्षीय किसान गणेश यादव बताते हैं-“गोलियों की आवाज़ें रुकने का नाम नहीं ले रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान से आग बरस रही हो। हम खेतों में भागे, लेकिन वहां भी गोलियां पीछा कर रही थीं।” सुबह अख़बारों ने इस घटना को एक नए दौर की शुरुआत कहा। इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा—“यह महज एक हत्याकांड नहीं था, यह बिहार में संगठित अपराध की नई परिभाषा है।”

जेलों से निकलकर सड़कों पर

कहा जाता है कि इस हथियार की पहली झलक बिहार की जेलों के भीतर मिली। बड़े अपराधियों तक यह किसी गुप्त चैनल से पहुंचाया गया। अफगानिस्तान और पंजाब की धरती से होते हुए यह हथियार सीमाओं को पार करता-करता बिहार पहुंच चुका था।

भागलपुर के एक पूर्व पुलिस अधीक्षक द टेलीग्राफ से कहते हैं-“हमारे पास तब भी 303 राइफलें थीं। भारी, धीमी और बेकार। जब पहली बार हमने अपराधियों के हाथ में AK-47 देखा, तो लगा जैसे हम लकड़ी के खिलौनों से लड़ रहे हैं।”

सिवान और शहाबुद्दीन

कुछ ही सालों में यह हथियार सिवान की गलियों में आम हो गया। मोहम्मद शहाबुद्दीन का नाम और AK-47 एक-दूसरे का पर्याय बन गए। बीबीसी हिंदी ने 2005 में लिखा—“सिवान में शहाबुद्दीन का काफिला जब निकलता, तो लोग दरवाजे बंद कर लेते। यह सिर्फ राजनीतिक ताक़त का प्रदर्शन नहीं था, बल्कि हथियारों के आतंक की नुमाइश थी।” स्थानीय पत्रकार अरुण सिंह याद करते हैं-“हमने कई बार रिपोर्ट लिखते समय खुद गोलियों की बौछार महसूस की। सिवान में सिर्फ खबर नहीं लिखी जाती थी, वहां हर लाइन गोलियों के साए में निकलती थी।”

भोजपुर: गोलियों के बीच गांव

भोजपुर के गांवों में रणवीर सेना और नक्सलियों की लड़ाई में यह हथियार बार-बार इस्तेमाल हुआ। रात में गांव घेर लिए जाते, फायरिंग होती और सुबह खेतों में लाशें मिलतीं। गांव की बुजुर्ग महिला फूलवती देवी कहती हैं-“हम बच्चों को खटिया के नीचे छुपा देते। ऊपर से गोलियां चलतीं, नीचे दिल धड़कता। हमें नहीं पता था सुबह देख पाएंगे भी या नहीं।” डाउन टू अर्थ ने उस दौर पर टिप्पणी की थी-“यहां फसल से ज्यादा गोलियां बोई जा रही थीं।”

लोकतंत्र पर गोलियों की छाया

1995 और 2000 के विधानसभा चुनावों में बूथ कब्जाने के लिए AK-47 का जमकर इस्तेमाल हुआ। द हिंदू ने लिखा—“बिहार में मतपेटी की ताक़त को गोलियों ने निगल लिया है।” उस दौर में एक मतदाता ने पत्रकार से कहा था-“हम वोट देने नहीं जाते थे। हमें डर था कि लौटकर घर भी आएंगे या नहीं।” AK-47 सिर्फ गोलियां नहीं चलाता था, वह मनोवैज्ञानिक खौफ पैदा करता था। पटना विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने इंडिया टुडे को कहा-“AK-47 महज हथियार नहीं था, यह मनोवैज्ञानिक आतंक था। इसने लोगों को विश्वास दिला दिया कि सरकार या कानून से ज्यादा ताक़त इस बंदूक में है।”

पूरे राज्य की पहचान बदल गई

1990 के दशक के अंत तक बिहार की पहचान पूरे देश में बदल चुकी थी। दिल्ली या मुंबई में कोई कहता कि वह बिहार से है, तो सामने वाला मुस्कुरा कर कहता—“अच्छा, वहां तो AK-47 चलता है।” यह मज़ाक नहीं था, यह पूरे राज्य की बदनामी थी।

बदलते हालात

2000 के बाद पुलिस और अर्धसैनिक बलों के बड़े ऑपरेशनों में सैकड़ों AK-47 बरामद हुए। कई बाहुबली ढेर कर दिए गए, कई जेल भेज दिए गए। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 2003 में रिपोर्ट किया—“पिछले तीन साल में 350 से ज्यादा AK-47 बिहार से बरामद हुए हैं, लेकिन पुलिस का मानना है कि असली संख्या कहीं ज्यादा है।” पूर्व डीजीपी अजीत दूबे कहते हैं-“हमने जितनी बंदूकें बरामद कीं, उससे कई गुना ज्यादा अब भी बाहर थीं। लेकिन असली चुनौती हथियार नहीं, उस मानसिकता को बदलना था जिसने इसे सत्ता का प्रतीक बना दिया था।”

इतिहास की गलियों में गूंज

बिहार की सड़कें अब चौड़ी हो गई हैं, बिजली के तार गांव-गांव तक पहुंच चुके हैं। लेकिन जब भी किसी अख़बार में AK-47 मिलने की खबर आती है, लोग उसी पुराने दौर में लौट जाते हैं।

बेगूसराय का किसान रामकुमार सिंह कहते हैं—“हमने सोचा था वो जमाना चला गया। लेकिन जब पास के गांव से AK-47 मिला, तो लगा कि वो साया अब भी हमारे सिर पर मंडरा रहा है।” इतिहास की गलियों में अब भी एक गूंज दबे सुर में सुनाई देती है। यह गूंज है उस हथियार की, जिसने कभी पूरे राज्य को अपनी छाया में ढक लिया था—AK-47 की गूंज।

Tags: AK 47BahubaliBiharBihar criminalsBihar PoliticsJungle RajLalu Prasad YadavRJDएके 47जंगलराजबाहू​बलीबिहारबिहार की राजनीतिबिहार के अपराधीराजदलालू प्रसाद यादव
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