यह सभी को पता है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कई बड़ी गलतियाँ की, जिसका खामियाजा आज न सिर्फ पूरे भारत को भुगतना पड़ रहा है बल्कि आस पास के क्षेत्रों जैसे तिब्बत को भी भुगतना पड़ रहा है। स्वतन्त्रता के पहले 15 वर्ष में जवाहर लाल नेहरू ने ऐसे कई फैसले लिए जिससे भारत न सिर्फ रणनीतिक रूप से कमजोर हुआ बल्कि आगे चल कर देश को अपना क्षेत्र भी चीन और पाकिस्तान के हाथों गंवाना पड़ा। जब भी जवाहर लाल की बात आती है, तो उनके दो ब्लंडर तुरंत दिमाग में आते हैं। पहला 1947-48 का कश्मीर ब्लंडर और दूसरा 1962 का हिमालयन ब्लंडर। एक और भी ब्लंडर है जो लोगों को आमतौर पर पता नहीं होता और वह है बलूचिस्तान ब्लंडर।
अपने कार्यकाल के दौरान नेहरू बलूचिस्तान प्रांत के सामरिक महत्व को समझने में विफल रहे और कलात के “राजा” या खान, मीर अहमद खान द्वारा बलूचिस्तान के एक अहम हिस्से के भारत में विलय के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। यह नेहरू की ही गलती का परिणाम है कि आज बलूचिस्तान के लोगों को पाकिस्तान में मर-मर कर जीना पड़ रहा है।
पाकिस्तान के क्राँतिकारी और व्यवस्था विरोधी कवि हबीब जालिब ने पाकिस्तान के अत्याचारों पर लिखा था…
मुझे जंगे – आज़ादी का मज़ा मालूम है,
बलोचों पर ज़ुल्म की इंतेहा मालूम है,
मुझे ज़िंदगी भर पाकिस्तान में जीने की दुआ मत दो,
मुझे पाकिस्तान में इन साठ साल जीने की सज़ा मालूम है।
दरअसल,बलूचिस्तान को पहले कलात के नाम से जाना जाता था और ऐतिहासिक तौर पर कलात की क़ानूनी स्थिति भारत के दूसरे रियासतों से अलग थी। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और कलात के बीच संबंध 1876 में हुई संधि पर आधारित थे, जिसके अनुसार ब्रिटिश लोग कलात को एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा देते थे। BBC की एक रिपोर्ट के अनुसार जहाँ 560 रजवाड़ों को ‘ए’ सूची में रखा गया था, कलात को नेपाल, भूटान और सिक्किम के साथ ‘बी’ सूची में रखा गया था। इस रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि वर्ष 1946 में कलात के ख़ाँ ने समद ख़ाँ को अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए दिल्ली भेजा था, लेकिन नेहरू ने कलात के उस दावे को अस्वीकार कर दिया था कि वो एक आज़ाद देश हैं।
तिलक देवेशर की किताब‘द बलोचिस्तान कोननड्रम’ के अनुसार उस दौरान तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष ने बलूचिस्तान की आजादी पर ही सवाल खड़ा कर दिया। वहीं ब्रिटेन स्थित थिंक टैंक, Foreign Policy Centre का मानना है कि नेहरू ने 1947 में कलात के खान द्वारा हस्ताक्षर किया हुआ विलय पत्र वापस कर दिया था।
बात तब की है जब भारत स्वतंत्र हो चुका था और देश का दो भागों में बंटवारा हो चुका था। उस दौरान भी बलूच पहले की तरह ही स्वतंत्र रहना चाहते थे। परंतु पाकिस्तान ने अपने स्वभाव के अनुरूप वर्ष 1947-48 मे बलूचिस्तान को अपनी सीमा में मिलाने का प्रयास किया, लेकिन तब बलूचिस्तान के लोगों ने विरोध शुरु कर दिया। उस वक्त तो पाकिस्तान की सरकार थम गई और अंग्रेजों के जाने के बाद बलूचों ने अपनी आजादी की घोषणा कर दी थी। परंतु सबसे भयंकर मोड तब आया जब कलात के तत्कालीन बलूच के खान ने 27 मार्च, 1948 कोऑल इंडिया रेडियो (AIR) सुना। AIR पर सेक्रेटरी वीपी मेनन ने कहा, ” कलात के ख़ाँ भारत में विलय करने के लिए दबाव डाल रहे थे, लेकिन भारत ने इस प्रस्ताव पर कोई ध्यान नहीं दिया है और उसका इससे कोई लेना देना नहीं है।“
ख़ाँ ने ऑल इंडिया रेडियो का 9 बजे का बुलेटिन सुना और उनको भारत के इस व्यवहार से तगड़ा झटका लगा। तिलक देवेशर की किताब ‘द बलोचिस्तान कोननड्रम’में लिखा है कि इसके बाद उन्होंने जिन्ना से संपर्क किया और पाकिस्तान के साथ संधि करने के लिए बातचीत की पेशकश कर दी।” हालांकि बाद में विपक्ष ने जब सवाल पूछे तो 30 मार्च, 1948 को नेहरू ने इस खबर को गलत बताकर पल्ला झाड़ लिया लेकिन तब तक पाकिस्तान बलूचिस्तान पर हमला कर चुका था।
मानवाधिकार कार्यकर्ता वसीम अल्ताफ के अनुसार, ” जिन्ना के आदेशों पर, 27 मार्च 1948 को GOC मेजर जनरल मोहम्मद अकबर खान के नेतृत्व में 7वीं बलूच रेजिमेंट के लेफ्टिनेंट कर्नल गुलजार ने कलात के खान पर आक्रमण कर बलूचिस्तान को जबरन पाकिस्तान में मिला लिया। जनरल अकबर कलात के खान को बंदी बना कर कराची ले गए और उन्हें विलय पत्र हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया”
हैरानी की बात तो यह है कि एक तरफ जहां भारत के शीर्ष नेता बलूचिस्तान को स्वतंत्र भी नहीं मान रहे थे तो वहीं पाकिस्तान कई महीनों से अपनी सीमा में मिलाने के लिए योजना बना रहा था। 22 मार्च, 1948 को पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने बलूचिस्तान को पाकिस्तान में मिलाने के लिए तीनों सेना प्रमुखों की एक बैठक की अध्यक्षता की थी।
स्पष्ट है कि नेहरू न तो बलूचिस्तान प्रांत के रणनीतिक महत्व को समझ पाये और ना ही उन्हें बलूचिस्तान की हिंद महासागर क्षेत्र से निकटता का कोई महत्व समझ आया। नेहरू खुद को एक राजनयिक मानते थे, लेकिन उन्हें कूटनीति और रणनीति दोनों की बिलकुल भी समझ नहीं थी। वे एक दूरदर्शी नेता नहीं थे। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि नेहरू ने कई रणनीतिक ब्लंडर किए, लेकिन उनमें से सबसे बड़ा बलूचिस्तान ब्लंडर था।